जैन धर्म में संवत्सरी पर्व (Samvatsari Parv) का एक विशेष और अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। यह दिन केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि आत्मचिंतन, क्षमा और शुद्धि का महापर्व है। वर्ष 2025 में, संवत्सरी पर्व, जैन समुदाय के लिए एक और अवसर लेकर आएगा जब वे अपने भीतर झांकेंगे, अपनी गलतियों को स्वीकार करेंगे और सबसे महत्वपूर्ण, सबसे करुणामयी दिन का अनुभव करेंगे। आइए, इस पवित्र दिन की गहराई को समझें, ‘मिच्छामि दुक्कड़म्’ के रहस्य को जानें और यह क्यों जैन धर्म का सबसे करुणामयी दिन कहलाता है।
संवत्सरी पर्व (Samvatsari Parv) क्या है?
संवत्सरी पर्व, जैन धर्म के पर्युषण महापर्व का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण दिन है। दिगंबर जैन इसे दशलक्षण पर्व के अंतिम दिन के रूप में मनाते हैं, जबकि श्वेतांबर जैन इसे पर्युषण के आठवें दिन मनाते हैं। इस दिन जैन धर्मावलंबी, चाहे वे श्वेतांबर हों या दिगंबर, वर्ष भर में जाने-अनजाने में हुए सभी अपराधों, गलतियों और मन, वचन, काया से किसी को पहुंचाई गई पीड़ा के लिए क्षमा याचना करते हैं। यह दिन क्षमा पर्व के रूप में भी जाना जाता है।
2025 में कब है संवत्सरी पर्व (Samvatsari Parv)?
वर्ष 2025 में संवत्सरी पर्व अगस्त 28, 2025, बृहस्पतिवार को मनाया जाएगा। यह दिन जैन समुदाय के लिए विशेष महत्व रखेगा, जब वे सामूहिक रूप से क्षमा और आत्मशुद्धि की प्रक्रिया में संलग्न होंगे।
‘मिच्छामि दुक्कड़म्’ का गहरा अर्थ और रहस्य
संवत्सरी पर्व का केंद्रीय मंत्र ‘मिच्छामि दुक्कड़म्’ है। यह केवल दो शब्दों का संयोजन नहीं, बल्कि जैन दर्शन का एक गहरा सार है। ‘मिच्छामि’ का अर्थ है “क्षमा करता हूँ” या “क्षमा चाहता हूँ”, और ‘दुक्कड़म्’ का अर्थ है “मेरे बुरे कर्म” या “जो कुछ भी मैंने बुरा किया है”।
इस प्रकार, ‘मिच्छामि दुक्कड़म्’ का शाब्दिक अर्थ है “मेरे सभी बुरे कर्मों के लिए, मैं क्षमा चाहता हूँ।” लेकिन इसका अर्थ इससे कहीं अधिक व्यापक है। यह केवल दूसरों से क्षमा मांगने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह स्वयं को भी क्षमा करने की प्रक्रिया है। यह स्वीकार करना है कि मनुष्य गलतियाँ करते हैं, और उन गलतियों को स्वीकार कर के उनसे मुक्ति पाना आवश्यक है।
इसका रहस्य यह है
- यह हमें अपनी गलतियों को स्वीकार करने का साहस देता है, बजाय इसके कि हम उन्हें छिपाएं या दूसरों पर दोष मढ़ें।
- क्षमा मांगना अहंकार को कम करता है और विनम्रता सिखाता है।
- यह दूसरों के साथ हमारे संबंधों को शुद्ध करता है, गिले-शिकवे मिटाता है और सद्भाव स्थापित करता है।
- जैन दर्शन के अनुसार, क्षमा मांगने और देने से कर्मों का बंधन शिथिल होता है।
- क्षमा करने और क्षमा मांगने से मन को शांति मिलती है और बोझ हल्का होता है।
- यह केवल शब्दों का दोहराव नहीं, बल्कि हृदय से निकली हुई भावना है, जहां व्यक्ति अपनी सभी बुराइयों को त्याग कर एक शुद्ध आत्मा बनने का संकल्प लेता है।
संवत्सरी क्यों है जैन धर्म का सबसे करुणामयी दिन?
संवत्सरी (Samvatsari Parv) को जैन धर्म का सबसे करुणामयी दिन कहने के कई कारण हैं:
- सर्वोच्च क्षमा का भाव – इस दिन जैन धर्मावलंबी सभी जीवों से, जिनमें मनुष्य, पशु, पक्षी और यहां तक कि सूक्ष्म जीव भी शामिल हैं, जाने-अनजाने में की गई हिंसा या पीड़ा के लिए क्षमा याचना करते हैं। यह अहिंसा के सिद्धांत का उच्चतम रूप है। यह करुणा है कि आप किसी को भी दुख पहुँचाने के लिए क्षमा मांगें।
- भेदभाव रहित क्षमा – इस दिन कोई भी छोटा-बड़ा नहीं होता, अमीर-गरीब नहीं होता। हर कोई एक दूसरे से क्षमा मांगता है, चाहे संबंध कोई भी हो। यह समानता और सार्वभौमिक प्रेम का प्रतीक है।
- आत्म-शोधन की प्रक्रिया – यह दिन केवल दूसरों से क्षमा मांगने का नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर झांककर अपनी कमियों को दूर करने और आत्म-शोधन करने का भी है। यह हमें एक बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित करता है।
- द्वेष का अंत – संवत्सरी पर लोग वर्षों पुराने मनमुटाव और द्वेष को भुलाकर एक-दूसरे को गले लगाते हैं। यह सामाजिक समरसता और प्रेम को बढ़ावा देता है, जो करुणा का ही एक रूप है।
- नवीन शुरुआत – यह एक वर्ष के अंत और एक नई शुरुआत का प्रतीक है। पिछली गलतियों को पीछे छोड़कर, क्षमा मांगकर और प्राप्त करके, व्यक्ति एक नए और शुद्ध जीवन की ओर कदम बढ़ाता है। यह करुणा है कि आप खुद को एक नई शुरुआत का मौका दें।
- मोक्ष मार्ग की ओर कदम – जैन धर्म में मोक्ष की प्राप्ति के लिए आत्मा की शुद्धि अत्यंत आवश्यक है। संवत्सरी पर क्षमा और आत्मशुद्धि की प्रक्रिया मोक्ष मार्ग पर एक महत्वपूर्ण कदम है। यह आत्मा के प्रति करुणा का भाव है।
इस प्रकार, संवत्सरी पर्व (Samvatsari Parv) केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह मानवता को करुणा, क्षमा और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाला एक अनुपम पर्व है। यह हमें सिखाता है कि जीवन में शांति और खुशी तभी संभव है जब हम दूसरों को और स्वयं को क्षमा करना सीखें।
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