।। दोहा ।।
शीश नवा अरिहंत को,
सिद्धन करूँ प्रणाम।
उपाध्याय आचार्य का,
ले सुखकारी नाम।।
सर्व साधु और सरस्वती,
जिन मंदिर सुखकर।
चन्द्रपुरी के चन्द्र को,
मन मंदिर में धार।।
।। चौपाई ।।
जय-जय स्वामी श्री जिन चन्दा,
तुमको निरख भये आनन्दा।
तुम ही प्रभु देवन के देवा,
करूँ तुम्हारे पद की सेवा।।
वेष दिगम्बर कहलाता है,
सब जग के मन भाता है।
नासा पर है द्रष्टि तुम्हारी,
मोहनि मूरति कितनी प्यारी।।
तीन लोक की बातें जानो,
तीन काल क्षण में पहचानो।
नाम तुम्हारा कितना प्यारा ,
भूत प्रेत सब करें निवारा।।
तुम जग में सर्वज्ञ कहाओ,
अष्टम तीर्थंकर कहलाओ।।
महासेन जो पिता तुम्हारे,
लक्ष्मणा के दिल के प्यारे।।
तज वैजंत विमान सिधाये,
लक्ष्मणा के उर में आये।
पोष वदी एकादश नामी,
जन्म लिया चन्दा प्रभु स्वामी।।
मुनि समन्तभद्र थे स्वामी,
उन्हें भस्म व्याधि बीमारी।
वैष्णव धर्म जभी अपनाया,
अपने को पण्डित कहाया।।
कहा राव से बात बताऊँ,
महादेव को भोग खिलाऊँ।
प्रतिदिन उत्तम भोजन आवे,
उनको मुनि छिपाकर खावे।।
इसी तरह निज रोग भगाया,
बन गई कंचन जैसी काया।
इक लड़के ने पता चलाया,
फौरन राजा को बतलाया।।
तब राजा फरमाया मुनि जी को,
नमस्कार करो शिवपिंडी को।
राजा से तब मुनि जी बोले,
नमस्कार पिंडी नहिं झेले।।
राजा ने जंजीर मंगाई,
उस शिवपिंडी में बंधवाई।
मुनि ने स्वयंभू पाठ बनाया,
पिंडी फटी अचम्भा छाया।।
चन्द्रप्रभ की मूर्ति दिखाई,
सब ने जय – जयकार मनाई।
नगर फिरोजाबाद कहाये,
पास नगर चन्दवार बताये।।
चन्द्रसैन राजा कहलाया,
उस पर दुश्मन चढ़कर आया।
राव तुम्हारी स्तुति गई,
सब फौजो को मार भगाई।।
दुश्मन को मालूम हो जावे,
नगर घेरने फिर आ जावे।
प्रतिमा जमना में पधराई,
नगर छोड़कर परजा धाई।।
बहुत समय ही बीता है कि,
एक यती को सपना दीखा।
बड़े जतन से प्रतिमा पाई,
मन्दिर में लाकर पधराई।।
वैष्णवों ने चाल चलाई,
प्रतिमा लक्ष्मण की बतलाई।
अब तो जैनी जन घबरावें,
चन्द्र प्रभु की मूर्ति बतावें।।
चिन्ह चन्द्रमा का बतलाया,
तब स्वामी तुमको था पाया।
सोनागिरि में सौ मन्दिर हैं,
इक बढ़कर इक सुन्दर हैं।।
समवशरण था यहाँ पर आया,
चन्द्र प्रभु उपदेश सुनाया।
चन्द्र प्रभु का मंदिर भारी,
जिसको पूजे सब नर – नारी।।
सात हाथ की मूर्ति बताई,
लाल रंग प्रतिमा बतलाई।
मंदिर और बहुत बतलाये,
शोभा वरणत पार न पाये।।
पार करो मेरी यह नैया,
तुम बिन कोई नहीं खिवैया।
प्रभु मैं तुमसे कुछ नहीं चाहूँ,
भव – भव में दर्शन पाऊँ।।
मैं हूँ स्वामी दास तिहारा,
करो नाथ अब तो निस्तारा।
स्वामी आप दया दिखलाओ,
चन्द्रदास को चन्द्र बनाओ।।
।। सोरठ ।।
नित चालीसहिं बार,
पाठ करे चालीस दिन।
खेय सुगन्ध अपार,
सोनागिर में आय के।।
होय कुबेर सामान,
जन्म दरिद्री होय जो।
जिसके नहिं संतान,
नाम वंश जग में चले।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नमः
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