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Shri Ganesh

लम्बोदर संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा

Lambodar Sankashti Chaturthi Vrat Katha

Shri GaneshVrat Katha (व्रत कथा संग्रह)हिन्दी
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|| लम्बोदर संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा ||

सतयुग में हरिश्चंद्र नामक एक प्रतापी राजा थे, जो अत्यंत सरल और सत्यनिष्ठ स्वभाव के थे। उनके शासन काल में अधर्म का कोई अस्तित्व नहीं था। उनके राज्य में न कोई अपाहिज था, न दरिद्र, न ही दुखी। उसी राज्य में ऋषिशर्मा नामक एक तपस्वी ब्राह्मण रहते थे। एक पुत्र की प्राप्ति के बाद वे स्वर्गवासी हो गए और उनकी पत्नी ने अपने पुत्र का पालन-पोषण भिक्षाटन के द्वारा किया।

वह पतिव्रता ब्राह्मणी गोबर से गणेश जी की प्रतिमा बनाकर सदैव पूजन करती थी। उसने भिक्षाटन के द्वारा तिल के दस लड्डू बनाये। इसी बीच उसका पुत्र गणेश जी की मूर्ति अपने गले में बांधकर खेलने के लिए बाहर चला गया। तब एक नर पिशाच कुम्हार ने उस ब्राह्मणी के पांच वर्षीय बालक को जबरन पकड़कर अपने आवां में छोड़कर मिट्टी के बर्तनों को पकाने के लिए आग लगा दी।

इधर उसकी माता अपने पुत्र को ढूंढने लगी और न पाकर बड़ी व्याकुल हो गई। वह ब्राह्मणी विलाप करती हुई गणेश जी से विनती करने लगी, “हे गणेश जी! आप इस दुःखिनी की रक्षा कीजिये। मैं पुत्र के वियोग में व्यथित हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये।” वह ब्राह्मणी आधी रात तक विलाप करती रही।

प्रातःकाल कुम्हार अपने पके हुए बर्तनों को देखने आया। जब उसने आवां खोला, तो उसमें जांघ भर पानी जमा हुआ पाया और इससे भी अधिक आश्चर्य उसे तब हुआ जब उसने उसमें बैठे एक बालक को खेलते हुए देखा। इस अद्भुत घटना को देखकर वह भयवश कांपने लगा और इस बात की सूचना उसने राज दरबार में दी। उसने राज्य सभा में अपने कुकृत्य का वर्णन किया।

कुम्हार ने कहा, “हे महाराज हरिश्चंद्र! मैं अपने दुष्कर्म के लिए वध योग्य हूँ। कन्या के विवाह के लिए मैंने कई बार मिट्टी के बर्तन पकाने के लिए आवां लगाया, परन्तु मेरे बर्तन कभी नहीं पके और सदैव कच्चे रह गए। तब मैंने भयभीत होकर एक तांत्रिक से इसका कारण पूछा। उसने कहा कि चुपचाप किसी बच्चे की बलि चढ़ा दो, तुम्हारा आवां पक जायेगा।

मैंने सोचा कि मैं किसके बालक की बलि दूँ? मैंने अपनी पत्नी से परामर्श किया कि ऋषिशर्मा ब्राह्मण मृत हो गए हैं और उनकी विधवा पत्नी भीख मांगकर अपना गुजारा करती है। यदि मैं उसके पुत्र की बलि दे दूँ तो वह मेरा कुछ बिगाड़ न पाएगी और मेरे बर्तन भी पक जाएंगे। मैंने इस जघन्य कर्म को करके रात में निश्चिंत होकर सो गया।

प्रातः जब मैंने आवां खोलकर देखा, तो पाया कि बालक उसी स्थिति में निर्भय भाव से बैठा है और आवां में जांघ भर पानी भरा हुआ है। इस भयावह दृश्य से मैं काँप उठा और इसकी सूचना देने आपके पास आया हूँ।”

कुम्हार की बात सुनकर राजा बहुत ही विस्मित हुए और उस बालक को देखने आए। बालक को प्रसन्नता पूर्वक खेलते देखकर मंत्री से राजा ने कहा, “यह क्या बात है? यह किसका बालक है? इस आवां में जांघ भर पानी कहाँ से आया? इसमें कमल के फूल कहाँ से खिल गए? इस दरिद्र कुम्हार के आवां में हरी-हरी दूब कहाँ से उग गई? बालक को न तो आग की जलन हुई और न ही इसे भूख-प्यास लगी। यह आवां में भी वैसा ही खेल रहा है, मानो अपने घर में खेल रहा हो।”

राजा इस तरह की बात कह ही रहे थे कि वह ब्राह्मणी वहां बिलखती हुई आ पहुंची। वह कुम्हार को कोसने लगी। जिस प्रकार गाय अपने बछड़े को देखकर रंभाती है, ठीक वही अवस्था उस ब्राह्मणी की थी। वह अपने बालक को गोद में लेकर प्यार करने लगी और कांपती हुई राजा के सामने बैठ गई।

राजा हरिश्चंद्र ने पूछा, “हे ब्राह्मणी! इस बालक के न जलने का क्या कारण है? क्या तू कोई जादू जानती है अथवा तूने कोई धर्माचरण किया है, जिसके कारण बच्चे को आंच तक नहीं आई?”

राजा की बात सुनकर ब्राह्मणी ने कहा, “हे महाराज! मैं कोई जादू नहीं जानती और न ही कोई धर्माचरण, तपस्या, योग, दान आदि की प्रक्रिया जानती हूँ। हे राजन! मैं तो संकटनाशक गणेश चतुर्थी का व्रत करती हूँ। भगवान गणेश की कृपा से ही मेरा पुत्र सुरक्षित बचा है।”

माना जाता है कि इसी दिन से प्रत्येक मास की गणेश चतुर्थी का व्रत आरंभ हुआ। इस सर्वोत्तम व्रत के प्रभाव से व्रती की सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं। जो भी लोग इस पावन व्रत को करते हैं, उन्हें पूर्ण सफलता मिलती है, वे पृथ्वीलोक के समस्त सुखों का भोग कर मोक्ष को प्राप्त होते हैं।

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