संतोषी माता की पूजा 16 शुक्रवारों तक की जाती है। पूजा के दौरान, भक्त देवी को गुड़ और चना, खीर, लाल फूल और सुपारी अर्पित करते हैं। संतोषी माता को लाल रंग की साड़ी पहने हुए, हाथ में दो हाथी के दांत, एक कमंडल और एक अक्षय पात्र धारण किए हुए चित्रित किया जाता है।
उनके मुख पर सदैव मुस्कान रहती है, जो उनके नाम के अनुरूप, संतोष का प्रतीक है। संतोषी माता चालीसा भी देवी की भक्ति का एक लोकप्रिय माध्यम है। इसमें देवी के जीवन चरित्र, उनके विभिन्न रूपों और उनकी महिमा का वर्णन 40 छंदों में किया गया है।
संतोषी माता व्रत की पूजा विधि
- माता संतोषी के सुख-सौभाग्य की कामना से 16 शुक्रवार तक व्रत किया जाना चाहिए।
- सूर्योदय से पहले उठकर घर की सफ़ाई करें और अन्य कार्य पूर्ण करें।
- स्नान के बाद, घर में कोई सुंदर और पवित्र स्थान पर माता संतोषी की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें।
- माता संतोषी के सामने एक कलश में जल डालें। कलश के ऊपर एक कटोरा में गुड़ और चने रखें।
- माता के सामने एक घी का दीपक जलाएं। उन्हें अक्षत, फूल, सुगंधित गंध, नारियल, लाल वस्त्र या चुनरी अर्पित करें।
- संतोषी माता आरती देवी के गुणगान और उनके भक्तों पर उनकी कृपा का वर्णन करती है।
- माता संतोषी को गुड़ और चने का भोग चढ़ाएं। उनकी जय बोलकर माता की कथा आरंभ करें।
संतोषी माता व्रत कथा
एक बार की बात है, एक गांव में एक बुढ़िया रहती थी जिसके सात बेटे थे। इनमें से छह बेटे कमाने वाले थे, जबकि सातवां बेटा निकम्मा था। बुढ़िया माँ अपने छहों बेटों के लिए खाना बनाती और परोसती थी। भोजन खाने के बाद जो झूठन बच जाता था, वह उसे अपने सातवें बेटे को दे देती थी।
एक दिन, सातवें बेटे ने अपनी पत्नी से कहा, “देखो, मेरी माँ मुझसे कितना प्यार करती है। वह मुझे हमेशा सबसे अच्छा भोजन देती हैं।”
पत्नी को यह बात संदेहजनक लगी। उसने कहा, “यह कैसे हो सकता है? तुम्हें तो हमेशा झूठा ही मिलता है।”
पति ने कहा, “नहीं, मेरी माँ मुझसे बहुत प्यार करती हैं। मैं तुम्हें साबित कर दूंगा।”
कुछ दिनों बाद, घर में त्योहार मनाया गया। इस अवसर पर, बुढ़िया माँ ने सातों प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन और चूरमे के लड्डू बनाए। सातवें बेटे ने सिरदर्द का बहाना बनाकर रसोई घर में एक कोने में जाकर लेट गया। वहां से छुपकर उसने देखा कि कैसे उसकी माँ ने छहों भाइयों के लिए भोजन परोसा। माँ ने उनके लिए सुंदर आसन बिछाए, तरह-तरह के व्यंजन परोसे और उन्हें प्यार से खिलाया।
भोजन करने के बाद, छहों भाई उठ गए। तब बुढ़िया माँ ने उनकी थालियों से बचे हुए लड्डुओं के टुकड़ों को इकट्ठा करके एक नया लड्डू बनाया। फिर उन्होंने अपने सातवें बेटे को बुलाया और कहा, “बेटा, अब तू ही खा ले।”
लेकिन सातवें बेटे ने भोजन करने से इनकार कर दिया। उसने कहा, “माँ, मुझे अब घर में नहीं रहना है। मैं परदेश जा रहा हूँ।”
माँ ने पूछा, “कल जाना है तो आज जा?”
बेटे ने कहा, “हाँ, मैं आज ही जा रहा हूँ।”
यह कहकर वह घर से निकल गया।
चलते समय उसे अपनी पत्नी की याद आई। वह गौशाला में काम कर रही थी। वहाँ जाकर उसने पत्नी से कहा, “मैं परदेश जा रहा हूँ। तुम धैर्य रखना और अपना धर्म निभाना।”
पत्नी ने कहा, “जाओ जी, खुशी से जाओ। मेरी चिंता मत करो। मैं राम भरोसे रहूंगी और ईश्वर आपकी सहायता करेगा।”
फिर उसने कहा, “मैं आपको दो निशानियां देती हूँ। इन्हें देखकर आप मेरा ध्यान रखें और अपना मन शांत रखें।”
बेटे ने कहा, ” मेरे पास तो कुछ नहीं है, यह अंगूठी तुम्हें दे रहा हूँ। और तुम मुझे अपनी कोई निशानी दो।”
पत्नी ने कहा, ” मेरे पास क्या है? यह गोबर भरा हाथ है।”
यह कहकर उसने पति की पीठ पर गोबर लगे हाथ से थाप मार दी।
वह साहूकार की दुकान पर पहुंचा और नौकरी के लिए अनुरोध किया। साहूकार को उसकी आवश्यकता थी, इसलिए उसने उसे काम पर रख लिया।
लड़के ने पूछा कि उसे कितना वेतन मिलेगा। साहूकार ने कहा कि उसे उसके काम के आधार पर भुगतान किया जाएगा।
इस प्रकार, लड़के को नौकरी मिल गई। वह सुबह 7 बजे से 10 बजे तक काम करता था। कुछ ही दिनों में, वह दुकान के सभी लेन-देन, हिसाब-किताब और ग्राहकों को माल बेचने का काम करने लगा।
साहूकार के सात-आठ अन्य नौकर थे, जो उसकी बुद्धिमत्ता और कार्यकुशलता से ईर्ष्या करने लगे।
सेठ ने भी लड़के के काम को देखा और उसकी मेहनत से प्रभावित हुआ। तीन महीने के भीतर ही, उसने उसे मुनाफे का आधा हिस्सेदार बना दिया।
कुछ वर्षों में ही, वह एक प्रसिद्ध सेठ बन गया और मालिक ने पूरा कारोबार उसी के जिम्मे छोड़ दिया।
उसकी अनुपस्थिति में, उसकी पत्नी को सास-ससुर ने परेशान करना शुरू कर दिया। वे उसे सारी घरेलू कामकाज करवाते थे और उसे लकड़ी लेने के लिए जंगल भेजते थे।
इस बीच, घर के आटे से निकलने वाली भूसी से उसकी रोटियां बनाकर रख दी जाती थीं और फूटे नारियल में पानी दिया जाता था।
एक दिन, जब वह लकड़ी लेने जा रही थी, तो उसने रास्ते में कई महिलाओं को संतोषी माता का व्रत करते हुए देखा। वह वहां रुक गई और उनसे पूछा कि वे किस देवी का व्रत कर रही हैं और इससे क्या लाभ होता है।
उसमें से एक महिला ने बताया कि यह संतोषी माता का व्रत है। इसके करने से निर्धनता और दरिद्रता दूर होती है और मन में जो भी इच्छा हो, वह संतोषी माता की कृपा से पूरी होती है। पत्नी ने उससे व्रत की विधि पूछी।
भक्तिन ने बताया कि व्रत के लिए सवा आने का गुड़ या चना लेना चाहिए। यदि चाहें तो सवा पांच आने या सवा रुपए का भी ले सकते हैं। प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रहकर कथा सुननी चाहिए। व्रत के दौरान नियमों का पालन करना चाहिए और यदि कोई सुनने वाला न हो तो दीपक जलाकर या जल के पात्र को सामने रखकर कथा कहनी चाहिए।
यदि मनोकामना पूरी न हो तो भी नियमों का पालन करते रहना चाहिए और मनोकामना पूरी होने पर व्रत का उद्यापन करना चाहिए। तीन महीने में माता फल पूरा करती हैं। यदि किसी के ग्रह अशुभ हों, तो भी माता एक वर्ष के अंदर कार्य सिद्ध करती हैं।
उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा, खीर और चने का साग बनाना चाहिए। आठ लड़कों को भोजन कराना चाहिए और यथाशक्ति दक्षिणा देकर माता का नियम पूरा करना चाहिए। उस दिन घर में खटाई नहीं खाना चाहिए।
यह सुनकर, बुढ़िया के लड़के की बहू अपने घर लौट आई। रस्ते में, उसने लकड़ी का बोझ बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना खरीदकर माता के व्रत की तैयारी की। आगे बढ़ते हुए, उसने एक मंदिर देखा और पूछा, “यह मंदिर किसका है?”
सबने कहा, “यह संतोषी माता का मंदिर है।”
यह सुनकर, वह माता के मंदिर में गई और उनके चरणों में लोटने लगी।
दीन-हीन होकर उसने विनती की, “माँ, मैं निपट अज्ञानी हूँ। व्रत के नियमों के बारे में मुझे कुछ भी नहीं पता। मैं दुखी हूँ। हे माता! जगत जननी, मेरा दुख दूर करो। मैं तुम्हारी शरण में हूँ।”
माता को उसकी दया आई। एक शुक्रवार बीता, और दूसरे को उसके पति का पत्र आया। तीसरे शुक्रवार को, उसके द्वारा भेजा गया पैसा भी आ पहुँचा। यह देखकर जेठ-जिठानी मुंह सिकोड़ने लगे। लड़के ताने देने लगे, “काकी के पास पत्र आने लगे, रुपया आने लगा। अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी।”
बेचारी सरलता से कहती, “भैया, कागज आवे रुपया आवे हम सब के लिए अच्छा है।” यह कहकर, आँखों में आँसू भरकर, वह संतोषी माता के मंदिर में गई और मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी।
“माँ, मैंने तुमसे पैसा कब माँगा है? मुझे पैसे से क्या काम है? मुझे तो अपने सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन माँगती हूँ।” तब माता ने प्रसन्न होकर कहा, “जा बेटी, तेरा स्वामी आयेगा।” यह सुनकर, खुशी से बावली होकर, वह घर में जाकर काम करने लगी।
अब संतोषी माँ विचार करने लगी, “इस भोली पुत्री को मैंने कह तो दिया कि तेरा पति आयेगा, लेकिन कैसे? वह तो इसे स्वप्न में भी याद नहीं करता।” उसे याद दिलाने के लिए मुझे ही जाना पड़ेगा।
इस तरह, माता जी उस बुढ़िया के बेटे के पास जाकर स्वप्न में प्रकट हुईं और कहने लगीं, “साहूकार के बेटे, सो रहा है या जागता है?”
वह कहने लगा, “माता, सोता भी नहीं, जागता भी नहीं हूँ। कहो क्या आज्ञा है?”
माँ कहने लगीं, “तेरे घर-बार कुछ है कि नहीं?”
वह बोला, ” मेरे पास सब कुछ है। माँ-बाप है, बहू है। क्या कमी है?”
माँ बोलीं, “भोले पुत्र, तेरी बहू घोर कष्ट उठा रही है। तेरे माँ-बाप उसे परेशानी दे रहे हैं। वह तेरे लिए तरस रही है। तू उसकी सुध ले।”
वह बोला, “हाँ माता जी, यह तो मालूम है, लेकिन जाऊं तो कैसे? परदेश की बात है। लेन-देन का कोई हिसाब नहीं। कोई जाने का रास्ता नहीं आता। कैसे चला जाऊं?”
माँ कहने लगीं, “मेरी बात मान। सवेरे नहा धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जलाकर दण्डवत कर दुकान पर जा बैठ। देखते-देखते सारा लेन-देन चुक जाएगा। जमा का माल बिक जाएगा। सांझ होते-होते धन का भारी ठेर लग जाएगा।” बूढ़े की बात मानकर, वह नहा-धोकर संतोषी माता को दण्डवत कर, धी का दीपक जलाकर दुकान पर जा बैठा।
थोड़ी देर में, देने वाले रुपया लाने लगे। लेने वाले हिसाब लेने लगे। कोठे में भरे सामान के खरीददार नकद दाम देकर सौदा करने लगे। शाम तक धन का भारी ठेर लग गया। मन में माता का नाम ले चमत्कार देखकर वह प्रसन्न हो गया। घर ले जाने के लिए उसने गहना, कपड़ा और अन्य सामान खरीदना शुरू कर दिया। यहाँ काम से निपटकर, वह तुरंत घर के लिए रवाना हो गया।
उधर, उसकी पत्नी जंगल में लकड़ी लेने जाती थी। लौटते समय, वह माताजी के मंदिर में विश्राम करती थी। वह जिस स्थान पर प्रतिदिन रुकती थी, वहां धूल उड़ती देख उसने माता से पूछा, “हे माता! यह धूल कैसे उड़ रही है?”
माता ने कहा, “हे पुत्री! तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर: लकड़ियों के तीन बोझ बना ले। एक नदी के किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सिर पर।” “तेरे पति को लकड़ियों का गट्ठर देखकर मोह पैदा होगा। वह यहाँ रुकेगा, नाश्ता-पानी खाकर माँ से मिलेगा।
तब तू लकड़ियों का बोझ उठाकर चौक में गट्ठर डाल दे। जोर से आवाज लगाकर कह, ‘लो सासूजी, लकड़ियों का गट्ठर लो। भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपड़े में पानी दो। आज मेहमान कौन आया है?'”
माताजी से प्रसन्न होकर, उसने खुशी-खुशी लकड़ियों के तीन गट्ठर बनाए। एक गट्ठर उसने नदी के किनारे रखा और दूसरा माताजी के मंदिर पर।
इतने में, उसका पति वहां पहुंच गया। सूखी लकड़ी देखकर उसकी इच्छा हुई कि वह वहीं विश्राम करे और भोजन बनाकर खा-पीकर गाँव जाए। उसी तरह, उसने वहीं रुककर भोजन बनाया, विश्राम किया और फिर गाँव के लिए रवाना हो गया। गाँव में पहुंचकर, उसने सभी से प्रेम से बातचीत की।
उसी समय, सिर पर लकड़ी का गट्ठर लिए, वह उतावली सी आकर घर पहुंची। लकड़ियों का भारी बोझ आंगन में डालकर, उसने जोर से तीन बार आवाज लगाई, “लो सासूजी, लकड़ियों का गट्ठर लो। भूसी की रोटी दो। आज मेहमान कौन आया है?”
यह सुनकर, उसकी सास बाहर आई। अपने किए गए अत्याचारों को भुलाकर, उसने कहा, “बहू, ऐसा क्यों कह रही है? तेरा मालिक ही तो आया है। आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े-गहने पहिन।”
उसकी आवाज सुनकर, उसका पति भी बाहर आ गया। अंगूठी देखकर वह व्याकुल हो गया। माँ से पूछा, “माँ, यह कौन है?”
माँ बोली, “बेटा, यह तेरी बहू है। जब से तू गया है, तब से वह पूरे गाँव में भटकती फिरती है। घर का काम-काज कुछ नहीं करती। चार पहर आकर खा लेती है।”
वह बोला, “ठीक है माँ। मैंने इसे भी देखा और तुम्हें भी। अब दूसरे घर की ताली दो। मैं उसमें रहूँगा।”
माँ बोली, “ठीक है, जैसी तेरी मरजी।”
तब उसने दूसरे मकान की तीसरी मंजिल का कमरा खोलकर सारा सामान जमा कर लिया।
उसने अपने पति से कहा, “मुझे संतोषी माता का व्रत का उद्यापन करना है।”
पति बोला, “खुशी से कर लो।”
वह उद्यापन की तैयारी करने लगी। उसने जिठानी के लड़कों को भोजन के लिए बुलाया। उन्होंने आने की मंजूरी दे दी, लेकिन पीछे से जिठानी ने अपने बच्चों को सिखाया कि वे भोजन के समय खटाई मांगें, जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो सके।
लड़के खीर खाना पेट भर खाकर आए, लेकिन बाद में कहने लगे, “हमें खटाई दो। खीर खाना हमें पसंद नहीं है।” वह बोली, “भाई, खटाई किसी को नहीं दी जाएगी। यह तो संतोषी माता का प्रसाद है।”
लड़के उठ खड़े हुए और बोले, “पैसा लाओ। भोली बहू कुछ नहीं जानती थी।” उन्हें मजबूर होकर पैसे दे दिए। लड़कों ने उसी समय हठ करके इमली की खटाई ले ली और खाने लगे। यह देखकर माताजी ने उस बहू पर कोप किया।
राजा के दूत उसके पति को पकड़कर ले गए। जेठ-जेठानी मन-माने वचन बोलने लगे। “उसने लूट-पाट कर धन इकट्ठा किया है। अब सब मालूम पड़ जाएगा जब जेल की मार खाएगा।” बहू यह सब सहन नहीं कर सकी।
रोती हुई वह माताजी के मंदिर गई और बोली, “हे माता! तुमने क्या किया? हंसाकर अब भक्तों को रुलाने लगी हो।” माता बोलीं, “बेटी, तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है।”
वह कहने लगी, “माता, मैंने कुछ अपराध किया है, मैंने तो भूल से लड़कों को पैसे दे दिए थे। मुझे क्षमा करो। मैं फिर तुम्हारा उद्यापन करूंगी।”
माँ बोलीं, “अब भूल मत करना।”
वह कहती है, “अब भूल नहीं होगी। अब बताओ वे कैसे आएंगे?”
माँ बोलीं, “जा पुत्री, तेरा पति तुझे रास्ते में आता मिलेगा।” वह निकली और रास्ते में उसका पति मिल गया। उसने पूछा, “कहां गए थे?” वह कहने लगा, “मैंने जो इतना धन कमाया था, उसका टैक्स राजा ने मांगा था। मैं उसे भरने गया था।” वह प्रसन्न होकर बोली, “भला हुआ। अब घर चलो।”
कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया। वह बोली, “मुझे फिर माता का उद्यापन करना है।”
पति ने कहा, “करो।”
वह फिर जेठ के लड़कों को भोजन पर बुलाने गई। जेठानी ने कुछ बातें सुनाकर फिर से सभी लड़कों को सिखाया, “तुम सब पहले ही खटाई मांगना।” लड़के भोजन से पहले ही कहने लगे, “हमें खीर नहीं खानी। हमारा जी बिगड़ता है। कुछ खटाई खाने को दो।” वह बोली, “खटाई किसी को नहीं मिलेगी। आना हो तो आओ।”
वह ब्राह्मण के लड़कों को लाकर भोजन कराने लगी। यथाशक्ति दक्षिणा के स्थान पर उसने उनमें से प्रत्येक को एक फल दिया। इससे संतोषी माता प्रसन्न हुईं।
संतोषी माता व्रत की उद्यापन विधि
- संतोषी माता व्रत का शुभ फल उसके 16 विधिवत शुक्रवारों को पूजा करने से ही मिलता है। उसके बाद, व्रत का उद्यापन अत्यंत आवश्यक होता है।
- उद्यापन के लिए, 16वें शुक्रवार को, अंतिम शुक्रवार के रूप में, बाकी दिनों की तरह ही पूजा, कथा और आरती करें।
- उसके बाद, 8 बालकों को खीर-पूरी-चने का भोजन कराएं और उन्हें दक्षिणा और केले का प्रसाद देकर विदा करें।
- अंत में, स्वयं भोजन करें। इस दिन, घर में कोई भी खटाई ना खाएं, ना ही किसी को कुछ भी खट्टा दें।
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