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Lakshmi Ji

मार्गशीर्ष महालक्ष्मी व्रत कथा व पूजा विधि

Margashirsha Mahalaxmi Vrat Katha Puja Vidhi

Lakshmi JiVrat Katha (व्रत कथा संग्रह)हिन्दी
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।। मार्गशीर्ष महालक्ष्मी व्रत पूजा विधि ।।

  • यह व्रत करने वाले स्त्री तथा पुरुष दोनों मन से स्वस्थ एवं आनंदमय होने चाहिये। इस व्रत को किसी भी महीने के प्रथम गुरुवार (बृहस्पति वार) से शुरु कर सकते हैं। विधि नियम अनुसार हर गुरुवार को महालक्ष्मी व्रत करे। श्री महालक्ष्मी की व्रतकथा को पढ़ें लगातार आठ गुरुवार को व्रत पालन करने पर अंतिम गुरुवार को समापन करे, वैसे यह व्रत पूजा पूरे वर्षभर भी कर सकते हैं। पुरे वर्ष भर हर गुरुवार के देवी की प्रतिमा या फ़ोटो के सामने बैठकर व्रत कथा को पढ़ें।
  • शेष गुरुवार के दिन आठ सुहागनों या कुँवारी कन्याओं को आमंत्रित कर उन्हें संमंके साथ पीढा या आसान पर बिठाकर श्री महालक्ष्मी का रूप समझ कर हल्दी कुमकुम लगायें। पूजा की समाप्ति पर फल प्रसाद वितरण करें तथा इस कथा की एक प्रति उन्हें देकर नमस्कार करें। केवल नारी ही नहीं अपितु पुरष भी यह पूजा कर सकते हैं। वे सुहागन या कुमारिका को आमंत्रित कर उन्हें हाथ में हल्दीकुंकुं प्रदान करें तथा व्रत कथा की एक प्रति देकर उन्हें प्रणाम करे। पुरुषो को भी इस व्रत कथा को पढ़ना चाहिये। जिस दिन व्रत हो, उपवास करे , दूध, फलाहार करें। खाली पेट न रहे, रात को भोजन से पहले देवी को भोग लगायें एवं परिवार के साथ भोजन करें।
  • पदमपुराण में यह व्रत गृहस्तजनों के लिये बताया गया है। इस पूजा को पति पत्नी मिलकर कर सकते हैं। अगर किसी कारण पूजा में बाधा आये तो औरों से पूजा करवा लेनी चाहिये। पर खुद उपवास अवश्य करें। उस गुरुवार को गिनती में न लें।
  • अगर किसी दूसरी पूजा का उपवास गुरुवार को आये तो भी यह पूजा की जा सकती है। दिन / रात में भी पूजा की जा सकती है। दिन में उपवास करें तथा रात में पूजा के बाद भोजन करलें। इस व्रत कथा को सुनने के लिये अपने आसपड़ोस के लोगों को, रिश्तेदारो को तथा घर के लोगो को बुलायें व्रत कथा को पढ़ते समय शान्ति तथा एकाग्रता बरतें।
  • अगहन (मार्गशीष) के पहले गुरुवार को व्रत शुरू करें तथा अंतिम गुरुवार को उसका समापन करे। अगर माह में पाँच गुरुवार आये तो पांचों गुरुवार को ( उस दिन अमावस्या /या पूर्णिमा ) तो भी पूजा करें।

।। मार्गशीर्ष महालक्ष्मी व्रत कथा ।।

भारतवर्ष के सौराष्ट्र देश में द्वापर युग की यह कहानी हुई है। सौराष्ट्र में उस समय भद्रश्रवा नाम के राजा थे। वे बड़े पराक्रमी राजा थे।  उनकी रानी का नाम सुरतचंद्रिका था। रानी दिखने में सुन्दर और सुलक्षणा थी तथा पतिव्रता थी। उन दोंनो को सात पुत्र तथा उसके बाद एक कन्या का वरदान मिला था। कन्या का नाम शयाम बाला था।

एक बार महालक्ष्मी जी के मन में आया की जाकर उस राजा के राजप्रसाद में रहे। इससे राजा को दुगनी धन – दौलत की प्राप्ति होगी और वह इस धन दौलत से अपनी प्रजा को और सुख दे पायेगा। गरीब के घर अगर रहे और उसे धन-दौलत प्राप्त हो तो वह स्वार्थी की तरह केवल अपने ऊपर ही खर्च करेगा।

यह सोचकर श्री महालक्ष्मी जी ने बुढ़ी ब्राह्मण स्त्री का रूप धारण किया, हाथ में लाठी लिये लाठी के सहारे रानी के द्वार तक पहुँची। यद्यपि उन्होंने बुढ़ी औरत का रूप धारण किया था पर उनके चहरे पर देवी का तेज था। उन्हें देखते ही एक दासी सामने आई, उसने इनका नाम, धाम, काम, धर्म पूछ डाला।

वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारित माता लक्ष्मी ने कहा, “बालिके मेरा नाम कमला है मेरे पति का नाम भुवनेश है। हम द्वारिका में रहते है तुम्हारी रानी पिछले जन्म में एक वैश्य की पत्नी थी। वह वैश्य गरीब था। दारिद्र्य के कारण हर रोज घर में झगड़े होते थे तथा उसका पति रोज उसे मारता था। इन बातों से तंग आ कर वह घर छोड़कर चली गयी तथा बन जंगल में खाली पेट भटकने लगी।

उसकी इस दुर्दशा पर मुझे दया आई। तब मैने उसे सुख सम्पति देने वाली श्री महालक्ष्मी की कथा सुनाई। मेरे कहने पर उसने श्री महालक्ष्मी का व्रत किया। श्री महालक्ष्मी प्रसन्न हुई उसकी गरीबी दूर हुई। उसका घर- संसार दौलत, संतति, संपत्ति से भर गया। बाद में पति पत्नी दोनों परलोक सिधारे। लक्ष्मी व्रत करने के कारण वे लक्ष्मी लोक में रहे। उन्होंने जितने साल महालक्ष्मी का व्रत किया उतने हजारों साल उन्हें सुखभोग मिला।

इस जन्म में उसका जन्म राजघराने में हुआ है, परंतु वह श्री महालक्ष्मी का व्रत करना भूल गई है। उसे यह याद दिलाने में यहाँ आई हूँ। ” बुढ़िया की बाटे सुनकर दासी ने उन्हें प्रणाम किया, तथा श्री महालक्ष्मी का व्रत किस तरह किया जाये इस बारे में पुछा बुढ़िया रूप धारण किये हुऐ श्री महालक्ष्मी माता ने दासी को पूजा की विधि तथा महिमा बताई। इसके बाद वह दासी माता को प्रणाम कर रानी को बताने अंदर चली गई ।

राजवैभव में रहते हुऐ रानी को अपने ऐश्वर्य का बहुत घमंड हुआ था। संपत्ति तथा अधिकार की वजह से वह उन्मत्त हो गई थी। दासी द्वारा बताई गई बुढ़िया की बातें सुनकर वह आग बबूला हो कर राजद्वार पर आ कर बुढ़िया रुपी श्री महालक्ष्मी पर बरस पड़ी। उसे यह मालूम नहीं था की श्री महालक्ष्मी माता बुढ़िया का रूप धारण किये द्वार तक आईं है। परंतु रानी का इस कदर रूख बर्ताव तथा अपना अनादर देखकर माता ने वहाँ ठहरना ठीक न समझा। वे वहाँ से चल पडी।

राह में उन्हें राजकुमारी शयामबाला मिली उन्होंने शयमबाला को सारी बात बताई शयमबाला ने अपनी और से श्री महालक्ष्मी माता से क्षमा माँगी। माता को उस पर दया आई। उन्होंने शयमबाला को श्री माहलक्ष्मी व्रत के बारे में बताया। उस दिन अगहन (मार्गशीर्ष) माह का पहला गुरुवार था। शयामबाला ने परम श्रद्धा से श्री महालक्ष्मी का व्रत रखा। फल स्वरूप राजा सिद्धेश्वर के सुपुत्र मालाधर से उसका विवाह हुआ। वह धन-दौलत, ऐश्वर्य, वैभव से मालामाल हो गई। पति के साथ ससुराल में आनंद से दिन बिताने लगी।

इधर श्री महालक्ष्मी का रानी पर प्रकोप हुआ। फलस्वरूप राजा भद्रश्रवा का राज्य एवं राजकरोबर नष्ट हो गया। यहाँ तक की खाने के लाले पड़ गये। ऐसी हालात में एक दिन रानी ने राजा से निवेदन किया ” हमारा दामाद इतना बड़ा राजा है, धनवान है, ऐश्वर्यशाली है, क्यों न उसके पास जाये, अपना हाल उसे बताये, वह जरूर हमारी मदद करेगा।”

इस बात पर राजा भद्रश्रवा दामाद के पास रवाना हुऐ। राज्य में पहुँचकर एक तालाब के किनारे थोड़ी देर विश्राम लेने के लिऐ ठहरे। तालाब से पानी लेने आते जाते दसियों ने उन्हें देखा। उन्होंने विनम्रता से उनकी पूछताछ की जब उन्हें यह मालूम हुआ की वे रानी श्यामबाला के पिता है तो दौड़ते हुऐ जा कर उन्होंने रानी को सारी बात बताई। रानी ने दासी के हाथ राजपरिधान भेजकर बड़े ठाठ से उनका स्वागत तथा आदरसत्कार किया। खान पान करवाया।

जब वे लौटने लगे तो सोने की मोहरों से भरा घड़ा दिया। राजा भद्रश्रवा जब वापस लौटे तो उन्हें देखकर रानी सुरतचंद्रिका खुश हुई। उन्होंने सोने की मोहरों से भरे घड़े का मुँह खोल, पर हाय भगवान ! घड़े में धन के बदले कोयले मिले यह सब श्री महालक्ष्मी के प्रकोप से हुआ इस प्रकार दुर्दशा में और कई दिन बीत गये। इस बार रानी स्वयं अपनी कन्या के पास गई। वह दिन अगहन माह का अन्तिम गुरुवार था। श्यामबाल ने श्री महालक्ष्मी का व्रत किया, पूजा की, अपनी माता से भी व्रत करवाया।

इसके बाद रानी अपने घर आई। श्री महालक्ष्मी का व्रत रखने पर उसे फिर से अपना राजपाठ, धन-दौलत, ऐश्वर्य प्राप्त हुआ। वह फिर से सुख, शान्ति, आनंदमय जीवन बिताने लगी। कुछ दिनों बाद राजकन्या श्यामबाला अपने पिता के घर आई, उसे अपने घर देखकर सुरतचंद्रिका को पुरानी बातें याद आई। यहीं की श्यामबाला ने अपने पिता को घड़ा भर कोयला दिया था और उसे तो कुछ भी नहीं दिया था।

इसी कारण शयामबाला को पिता के घर आने पर उसका कोई आदर आतिथ्य नहीं हुआ। बल्कि अनादर हुआ। पर उसने इस बात का बुरा नहीं माना। अपने घर लौटते समय उसने पिता के घर से थोडा नमक ले लिया। आपने घर लौटने पर उसके पति ने पूछ, “अपने मायके से क्या लाई हो?” इस पर उसने जवाब दिया, ” वहाँ का सार लाई हूँ।” पति ने पुछा “इसका मतलब क्या हुआ ? ” श्यमबाला ने कहा “थोडा धीरज रखे, सब मालूम हो जायेगा।”

उस दिन श्यामबाला ने सारा भोजन नमक डाले बिना बनाया और परोसा। पति ने खाना चखा। सारा खाना नमक बिना था इसलिये स्वाद न आया । फिर श्यामबाला ने थाली में नमक डाला इससे सारा भोजन स्वादिष्ट लगने लगा। तब श्यामबाला ने पति से कहा , “यही है वह मायके से लाया हुआ सार।” पति को उसकी बात सही लगी। फिर वह दोंनो हँसी मजाक करते हुऐ भोजन करने लगे।

कहा गया है की इस तरह जो कोई श्राद्धा भाव से श्री महालक्ष्मी की पूजा करे उसे माता की कृपा प्राप्त होती है। सुख, संपत्ति, शांति प्राप्त होती है सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। परंतु यह सब प्राप्त होने पर माता की पूजा को भूलना नहीं चाहिये। हर गुरुवार को व्रत पाठ अवश्य करना चाहिये इस तरह श्री महालक्ष्मी की महिमा भक्तो की मनोकामना पूरी करती है।

।। मार्गशीर्ष महालक्ष्मी दूसरी कथा ।।

एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। वह नियमित रुप से जगत के पालनहार विष्णु भगवान की अराधना करता था। उसकी पूजा-भक्ति से प्रसन्न होकर उसे भगवान श्रीविष्णु ने दर्शन दिए और ब्राह्मण से वर मांगने के लिए कहा। तब ब्राह्मण ने लक्ष्मीजी का निवास अपने घर में होने की इच्छा जाहिर की। तब श्रीविष्णु ने लक्ष्मीजी की प्राप्ति का मार्ग बताया। उन्होंने बताया कि मंदिर के सामने एक स्त्री आती है, जो यहां आकर उपले थापती है, तुम उसे अपने घर आने का आमंत्रण देना। वही देवी लक्ष्मी हैं।

विष्णु जी ने ब्राह्मण से कहा, जब धन की देवी मां लक्ष्मी के तुम्हारे घर पधारेंगी तो तुम्हारा घर धन और धान्य से भर जायेगा। यह कहकर श्रीविष्णु जी चले गए। अगले दिन वह सुबह ही वह मंदिर के सामने बैठ गया। लक्ष्मी जी उपले थापने के लिये आईं तो ब्राह्मण ने उनसे अपने घर आने का निवेदन किया। ब्राह्मण की बात सुनकर लक्ष्मीजी समझ गईं, कि यह सब विष्णुजी के कहने से हुआ है।

लक्ष्मीजी ने ब्राह्मण से कहा कि मैं चलूंगी तुम्हारे घर लेकिन इसके लिए पहले तुम्हें महालक्ष्मी व्रत करना होगा। 16 दिनों तक व्रत करने और 16वें दिन रात्रि को चंद्रमा को अर्घ्य देने से तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा। ब्राह्मण ने देवी के कहे अनुसार व्रत और पूजन किया और देवी को उत्तर दिशा की ओर मुंह करके पुकारा। इसके बाद देवी लक्ष्मी ने अपना वचन पूरा किया। मान्यता है कि उसी दिन से इस व्रत की परंपरा शुरू हुई थी।

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