|| चिरंजीव और आयुषमती की कथा ||
चिरंजीव
एक समय की बात है, एक ब्राह्मण के संतान नहीं थी। उसने महामाया की तपस्या की, और माता जी उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान देने को तैयार हो गईं। ब्राह्मण ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा जताई।
माता जी ने कहा, “मेरे पास दो प्रकार के पुत्र हैं। पहला, ऐसा पुत्र जो दस हजार वर्षों तक जीवित रहेगा, लेकिन वह अत्यंत मूर्ख होगा। दूसरा, ऐसा पुत्र जो पंद्रह वर्षों तक ही जीएगा, लेकिन वह अत्यंत विद्वान होगा। तुम्हें किस प्रकार का पुत्र चाहिए?”
ब्राह्मण ने कहा, “माता, मुझे दूसरा प्रकार का पुत्र चाहिए।” माता जी ने “तथास्तु” कहा।
कुछ दिनों बाद, ब्राह्मणी ने एक पुत्र को जन्म दिया और उसका पालन-पोषण किया। धीरे-धीरे पाँच वर्ष बीत गए। ब्राह्मणी ने सोचा कि माता जी का वरदान सच हुआ है, लेकिन अब उसके बेटे की अल्पायु का समय आ गया है।
उसने ब्राह्मण से कहा, “पाँच वर्ष बीत चुके हैं, और मेरे बेटे की मृत्यु का समय निकट है। जिन आँखों ने उसे बढ़ते हुए देखा है, वे उसकी मृत्यु कैसे सहन कर पाएंगी? कृपया, मेरे बेटे को बचाइए।”
ब्राह्मण ने अपने पुत्र को विद्या प्राप्त करने के लिए काशी भेज दिया। दिन-रात दोनों पति-पत्नी अपने पुत्र के वियोग में दुखी रहते थे। समय बीता और बेटे की मृत्यु का समय पास आया।
काशी के एक व्यापारी ने अपनी पुत्री से ब्राह्मण पुत्र का विवाह कर दिया। विवाह की रात ही, पति की मृत्यु का समय आया। यमराज नाग रूप में आए और उसके प्राण हरने के लिए तैयार हो गए।
पत्नी ने नाग को पकड़कर कमंडल में बंद कर दिया, लेकिन इस दौरान पति की मृत्यु हो गई।
पत्नी महामाया की बड़ी भक्त थी। उसने अपने पति को जीवित करने के लिए माँ की आराधना की। एक माह की आराधना के बाद, सृष्टि में हाहाकार मच गया। यमराज कमंडल में बंद थे और यमलोक की सभी गतिविधियाँ ठप्प हो गईं।
देवताओं ने माता से अनुरोध किया, “हे माता! हमने यमराज को छुड़ाने की बहुत कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। हे जगदम्बा! अब आप ही यमराज को छुड़ा सकती हैं।”
माता जगदम्बा प्रकट हुईं और बोलीं, “हे पुत्री! जिस नाग को तुमने कमंडल में बंद किया है, वह स्वयं यमराज हैं। उनके बिना यमलोक की सारी गतिविधियाँ रुक गई हैं। उन्हें मुक्त कर दो।”
माता की आज्ञा का पालन करते हुए दुल्हन ने कमंडल से यमराज को मुक्त कर दिया। यमराज ने माता और दुल्हन के सतीत्व को प्रणाम किया और कहा, “मैं तुम्हारे पति के प्राण वापस कर रहा हूँ और तुम्हें चिरंजीवी रहने का वरदान देता हूँ।” इस प्रकार, लड़के के नाम के साथ “चिरंजीव” जोड़ने की परंपरा शुरू हुई।
आयुषमती
राजा आकाशधर के संतान नहीं थी। नारद जी ने सलाह दी, “सोने के हल से धरती की जोताई करो और उस भूमि पर यज्ञ करो, तुम्हें संतान अवश्य प्राप्त होगी।”
राजा ने सोने के हल से भूमि जोतनी शुरू की। जोतते समय, उन्हें भूमि से एक कन्या प्राप्त हुई। कन्या को महल में ले आया।
राजा ने देखा कि महल में एक शेर खड़ा है जो कन्या को खा जाना चाहता है। डर के कारण, कन्या राजा के हाथ से छूट गई और शेर ने उसे मुख में धर लिया। उसी समय, शेर कमल पुष्प में परिवर्तित हो गया, और विष्णु जी प्रकट हुए।
विष्णु जी ने कमल को अपने हाथ से छुआ, और कमल पुष्प उसी समय यमराज में बदल गया। कन्या तुरंत पच्चीस वर्ष की युवती बन गई।
राजा ने उस कन्या का विवाह विष्णु जी से कर दिया। यमराज ने उसे “आयुषमती” कहकर पुकारा और उसे आयुषमती को वरदान दिया। इस प्रकार, विवाह पत्रों पर कन्या के नाम के साथ “आयुषमती” जोड़ने की परंपरा शुरू हुई।
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