|| फाल्गुन पूर्णिमा व्रत कथा (Falgun Purnima Vrat Katha) ||
हर वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा तिथि पर बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक स्वरूप होलिका दहन किया जाता है और होली का यह पावन पर्व श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन विष्णु एवं लक्ष्मी जी की पूजा, व्रत आदि का विशेष महत्व होता है, साथ ही फाल्गुन पूर्णिमा की पौराणिक कथा का पाठ करना भी अत्यंत फलदायी माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस कथा को सुनने से व्यक्ति को यश, कीर्ति, धन-धान्य एवं संतान सुख की प्राप्ति होती है, तथा मृत्यु के उपरांत वैकुंठ धाम की प्राप्ति होती है।
महर्षि कश्यप की पत्नी और दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष का जन्म हुआ। ये दोनों ही अत्यंत बलशाली थे और अपनी शक्ति से देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। उनके अत्याचारों से देवलोक में हाहाकार मच गया। तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार धारण कर हिरण्याक्ष का वध कर दिया। अपने भाई की मृत्यु से क्रोधित हिरण्यकश्यप ने भगवान विष्णु को अपना शत्रु मान लिया और उनसे प्रतिशोध लेने के लिए भगवान ब्रह्मा की कठोर तपस्या करने लगा।
इधर, हिरण्यकश्यप की अनुपस्थिति में देवताओं ने दैत्यों पर आक्रमण कर स्वर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया। इस दौरान हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु गर्भवती थीं, जिन्हें देवराज इंद्र ने बंदी बना लिया और अमरावती ले जाने लगे। मार्ग में उनकी भेंट देवर्षि नारद से हुई। नारद जी ने इंद्र से पूछा कि वे कयाधु को कहां ले जा रहे हैं। इंद्र ने उत्तर दिया कि उनके गर्भ में हिरण्यकश्यप का अंश है, जिसे नष्ट कर देने के पश्चात वे उसे मुक्त कर देंगे।
देवर्षि नारद बोले, “देवराज! इनके गर्भ में तो स्वयं श्री नारायण का परम भक्त है, अतः इसे छोड़ दीजिए।” नारद मुनि के वचन सुनकर इंद्र ने कयाधु को मुक्त कर दिया। नारद जी कयाधु को अपने आश्रम में ले आए और उन्हें दिव्य उपदेश देने लगे। उनके प्रवचनों का गहरा प्रभाव कयाधु के गर्भ में पल रहे शिशु पर पड़ा। समय आने पर कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया।
इधर, ब्रह्मा जी की कृपा से हिरण्यकश्यप ने मनोवांछित वरदान प्राप्त कर लिया और अपने राज्य वापस लौट आया। कयाधु भी अपने पुत्र प्रह्लाद के साथ पति के पास लौट आईं। प्रह्लाद जब बड़े हुए तो उन्हें शिक्षा के लिए गुरु के पास भेजा गया। एक दिन जब हिरण्यकश्यप अपने मंत्रियों के साथ बैठे थे, तब प्रह्लाद गुरु के साथ वहां पहुंचे और पिता को प्रणाम किया।
हिरण्यकश्यप ने प्रसन्न होकर पूछा, “वत्स! अब तक की शिक्षा में तुम्हें सबसे श्रेष्ठ ज्ञान क्या प्राप्त हुआ?”
प्रह्लाद ने उत्तर दिया, “पिताश्री! मैंने यही सीखा है कि जो आदि, मध्य और अंत से रहित हैं, जो जगत के पालनहार हैं, दीन-दुखियों के स्वामी हैं, उन श्री हरि को मैं बारंबार प्रणाम करता हूं।”
यह सुनते ही हिरण्यकश्यप क्रोधित हो उठा और उसने प्रह्लाद के गुरु को फटकारते हुए कहा, “अरे मूर्ख ब्राह्मण! तूने मेरे पुत्र को मेरे शत्रु का गुणगान करने की शिक्षा क्यों दी?”
गुरु ने उत्तर दिया, “दैत्यराज! मैंने इन्हें ऐसा कुछ नहीं सिखाया।”
हिरण्यकश्यप आश्चर्यचकित हुआ और प्रह्लाद से पूछा, “पुत्र! तुम्हें यह उपदेश किसने दिया?”
प्रह्लाद बोले, “भगवान विष्णु स्वयं प्रत्येक हृदय में स्थित होकर सबको उपदेश देते हैं। उनके अलावा कोई किसी को कुछ नहीं सिखा सकता।”
यह सुनकर हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित हो उठा और गरजते हुए बोला, “अरे दुष्ट! तू मेरे समक्ष इस विष्णु की महिमा क्यों गा रहा है? क्या तुझे इसके परिणाम का भान है?”
हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को अनेक प्रकार से भयभीत करने का प्रयास किया, किंतु वे अडिग रहे। उसने आदेश दिया कि प्रह्लाद को मृत्यु दंड दिया जाए। दैत्य सैनिकों ने उन्हें अनेक यातनाएं दीं, पर्वत से नीचे गिराया, समुद्र में डुबोने का प्रयास किया, विष दिया, किंतु हर बार वे श्री हरि की कृपा से सुरक्षित बच गए।
अंततः हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाए, क्योंकि होलिका को वरदान प्राप्त था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती। आदेशानुसार, होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर प्रज्वलित अग्नि में बैठ गई। किंतु ईश्वर-कृपा से प्रह्लाद सकुशल रहे, जबकि होलिका जलकर भस्म हो गई।
इसी घटना की स्मृति में हर वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका दहन किया जाता है, जो यह दर्शाता है कि सत्य और भक्ति की सदा विजय होती है, जबकि अहंकार और अधर्म का अंत निश्चित है।
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