गर्भ गीता एक दुर्लभ और आध्यात्मिक ग्रंथ है, जिसमें गर्भस्थ शिशु और माता-पिता के कर्तव्यों से संबंधित गूढ़ रहस्यों का वर्णन किया गया है। यह ग्रंथ हमें यह समझाता है कि गर्भ में ही शिशु को संस्कार कैसे दिए जाएं और माता-पिता को उसके पालन-पोषण की प्रारंभिक अवस्थाओं में क्या ध्यान रखना चाहिए।
गर्भ गीता का स्रोत
गर्भ गीता का उल्लेख पुराणों और वैदिक साहित्य में मिलता है। इसे भगवान श्रीकृष्ण ने गर्भस्थ अभिमन्यु को उपदेश दिया था, जब वे माता सुभद्रा के गर्भ में थे। यह उपदेश महाभारत के युद्ध में चक्रव्यूह भेदन के सिद्धांत से संबंधित था, जिसे अभिमन्यु ने गर्भ में ही सीख लिया था।
गर्भ गीता की शिक्षाएँ
इस ग्रंथ में निम्नलिखित महत्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला गया है:
- गर्भ संस्कार का महत्व – यह ग्रंथ बताता है कि माता-पिता को गर्भकाल में कैसा आचरण करना चाहिए जिससे शिशु का मानसिक और आध्यात्मिक विकास हो सके।
- भविष्य निर्माण – गर्भस्थ शिशु केवल माता के शरीर में नहीं होता, बल्कि वह माता-पिता के विचारों, भावनाओं और कर्मों से प्रभावित होता है।
- आध्यात्मिक चेतना – गर्भस्थ शिशु को वेदों, मंत्रों और भजन-कीर्तन के माध्यम से दिव्य संस्कार दिए जा सकते हैं।
- कर्म और पुनर्जन्म – यह ग्रंथ यह भी समझाता है कि जन्म से पहले और बाद में कर्म का प्रभाव कैसे कार्य करता है।
- योग और साधना – गर्भावस्था के दौरान माता को ध्यान, प्राणायाम और सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करने पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
गर्भ गीता का वैज्ञानिक दृष्टिकोण
आज के आधुनिक विज्ञान ने भी यह सिद्ध किया है कि गर्भस्थ शिशु माता के विचारों और भावनाओं से प्रभावित होता है। *गर्भ गीता* में वर्णित सिद्धांतों का पालन करने से शिशु अधिक बुद्धिमान, संस्कारी और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बन सकता है।