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Jagannath Rath Yatra Story 2025 (जगन्नाथ रथ यात्रा की सम्पूर्ण जानकारी) Hindi

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भारत में धार्मिक उत्सवों में सबसे प्रमुख और धार्मिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण त्योहार भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा मनाया जाता है। इस यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। भारत के चार पवित्र धामों में से एक, पुरी के 800 वर्ष पुराने मुख्य मंदिर में योगेश्वर श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप में विराजमान हैं। यह रथयात्रा न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी उन स्थानों पर आयोजित होती है जहां भारतीयों की आबादी रहती है। भारत में आयोजित होने वाली रथ यात्रा को देखने हर साल विदेशों से हजारों पर्यटक आते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के अवतार जगन्नाथजी की रथयात्रा में शामिल होने का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। सागर तट पर बसे पुरी शहर में होने वाली जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव के समय आस्था का जो भव्य उत्सव देखने को मिलता है, वह और कहीं दुर्लभ है। इस रथयात्रा के दौरान भक्तों को सीधे प्रतिमाओं तक पहुंचने का सुनहरा अवसर प्राप्त होता है। जगन्नाथ रथयात्रा दस दिवसीय महोत्सव होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा इन्द्रद्युम्न भगवान जगन्नाथ को शबर राजा से यहां लेकर आए थे और उन्होंने ही मूल मंदिर का निर्माण कराया था जो बाद में नष्ट हो गया। इस मूल मंदिर का कब निर्माण हुआ और यह कब नष्ट हो गया, इस बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। ययाति केशरी ने भी एक मंदिर का निर्माण कराया था। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान 65 मीटर ऊंचे मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में चोल गंगदेव तथा अनंग भीमदेव ने कराया था। परंतु जगन्नाथ संप्रदाय वैदिक काल से लेकर अब तक मौजूद है।

जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा की कहानी (Jagannath Puri Rath Yatra Story 2025)

जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा, जिसे भगवान जगन्नाथ का वार्षिक उत्सव भी कहा जाता है, भारत के सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक त्योहारों में से एक है। यह यात्रा कई सदियों पुरानी पौराणिक कथाओं और परंपराओं से जुड़ी हुई है।

स्नान पूर्णिमा और भगवान का ‘अस्वस्थ’ होना

पौराणिक मत के अनुसार, स्नान पूर्णिमा यानी ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ का जन्मदिन होता है। इस खास दिन, प्रभु जगन्नाथ, अपने बड़े भाई बलराम जी और बहन सुभद्रा के साथ, रत्नसिंहासन से उतरकर मंदिर के पास बने स्नान मंडप में लाए जाते हैं। यहां उनका 108 कलशों से भव्य शाही स्नान होता है। मान्यता है कि इस शाही स्नान के बाद भगवान बीमार पड़ जाते हैं और उन्हें तेज बुखार आ जाता है।

इसके बाद, 15 दिनों तक प्रभु को एक विशेष कक्ष में रखा जाता है, जिसे ओसर घर कहते हैं। इस अवधि में महाप्रभु को मंदिर के प्रमुख सेवकों और वैद्यों के अलावा कोई और नहीं देख सकता। इन 15 दिनों के दौरान, मंदिर में महाप्रभु के प्रतिनिधि अलारनाथ जी की प्रतिमा स्थापित की जाती है और उनकी पूजा-अर्चना की जाती है।

नव यौवन नैत्र उत्सव और रथ यात्रा का आरंभ

15 दिनों के बाद, भगवान स्वस्थ होकर कक्ष से बाहर निकलते हैं और अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। इस उत्सव को नव यौवन नैत्र उत्सव भी कहा जाता है। इसके ठीक बाद, द्वितीया के दिन, महाप्रभु श्री कृष्ण, अपने बड़े भाई बलराम जी और बहन सुभद्रा जी के साथ राजमार्ग पर आते हैं और भव्य रथों पर विराजमान होकर नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं।

भगवान जगन्नाथ की प्रतिमाओं का रहस्य

यह रथ यात्रा भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की लकड़ी की प्रतिमाओं के साथ निकाली जाती है। इन प्रतिमाओं का निर्माण एक अनूठी पौराणिक कथा से जुड़ा है:

श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद, जब उनके पार्थिव शरीर को द्वारिका लाया जाता है, तब बलराम अपने भाई की मृत्यु से बहुत दुखी होते हैं। वे कृष्ण के शरीर को लेकर समुद्र में कूद जाते हैं, और उनके पीछे-पीछे सुभद्रा भी कूद जाती हैं। इसी समय, भारत के पूर्व में स्थित पुरी के राजा इन्द्रद्युम्न को एक स्वप्न आता है कि भगवान का शरीर समुद्र में तैर रहा है, और उन्हें यहां कृष्ण की एक विशाल प्रतिमा बनवानी चाहिए तथा मंदिर का निर्माण करवाना चाहिए। उन्हें स्वप्न में देवदूत यह भी बताते हैं कि कृष्ण के साथ, बलराम और सुभद्रा की भी लकड़ी की प्रतिमाएं बनाई जाएं, और श्रीकृष्ण की अस्थियों को उनकी प्रतिमा के पीछे एक छेद करके रखा जाए।

राजा का सपना सच होता है और उन्हें कृष्ण की अस्थियां मिल जाती हैं। लेकिन अब राजा के सामने यह प्रश्न था कि इन प्रतिमाओं का निर्माण कौन करेगा। माना जाता है कि शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा एक बढ़ई के रूप में प्रकट होते हैं और मूर्तियों का कार्य शुरू करते हैं। कार्य शुरू करने से पहले, वे सभी से कहते हैं कि उन्हें काम करते समय परेशान न किया जाए, अन्यथा वे बीच में ही काम छोड़कर चले जाएंगे। कुछ महीने बीत जाने के बाद भी मूर्ति पूरी नहीं बन पाती है, तब अधीर होकर राजा इन्द्रद्युम्न बढ़ई के कक्ष का दरवाजा खोल देते हैं। ऐसा होते ही भगवान विश्वकर्मा गायब हो जाते हैं। मूर्तियां उस समय पूरी तरह से नहीं बन पाती हैं, लेकिन राजा ऐसी ही अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर देते हैं। वे सबसे पहले मूर्ति के पीछे भगवान कृष्ण की अस्थियां रखते हैं और फिर उन्हें मंदिर में विराजमान कर देते हैं।

यह उल्लेखनीय है कि भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की प्रतिमाएं हर 12 साल के बाद बदली जाती हैं। नई प्रतिमाएं भी पूरी तरह से बनी हुई नहीं रहती हैं। जगन्नाथ पुरी का यह मंदिर भारत का एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां तीन भाई-बहन की प्रतिमाएं एक साथ हैं और उनकी पूजा-अर्चना की जाती है।

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