|| मनसा देवी पूजा विधि ||
1. इसमें साधना सामाग्री जो लेनी है लाल चन्दन की लकड़ी के टुकड़े, नीला और सफ़ेद धागा जो तकरीबन 8 – 8 उंगल का हो | कलश के लिए नारियल, सफ़ेद व लाल वस्त्र, पूजन में फल, पुष्प, धूप, दीप, पाँच मेवा आदि
2. सबसे पहले पुजा स्थान में एक बाजोट पर सफ़ेद रंग का वस्त्र बिछा दें और उस पर एक पात्र में चन्दन के टुकड़े बिछा कर उस पर एक सात मुख वाला नाग का रूप आटा गूँथ कर बना लें और उसे स्थापित करें | साथ ही भगवान शिव अथवा विष्णु जी का चित्र भी स्थापित करें | उसके साथ ही एक छोटा सा शिवलिंग एक अन्य पात्र में स्थापित कर दें |
3. पहले गुरु पूजन कर साधना के लिए आज्ञा लें और फिर गणेश जी का पंचौपचार पूजन करें | उसके बाद भगवान विष्णु जी का और शंकर जी का पूजन करें |
4. पूजन में धूप, दीप, फल, पुष्प, नैवेद्य आदि रखें | प्रसाद पाँच मेवो का भोग लगाएं |
5. यह साधना रविवार शाम 7 से 10 बजे के बीच करें |
6. माला रुद्राक्ष की उत्तम है, और 9 ,11 या 21 माला मंत्र जाप करना है |
7. दीप साधना काल में जलता रहना चाहिए |
8. भगवान शेष नाग का पूजन करें | आपको पूर्व दिशा की ओर शेषनाग की स्थापना करनी है और उसके ईशान कोण में मनसा देवी की | अपना मुख भी पूर्व की ओर रखना है |
|| मनसा देवी व्रत कथा ||
प्राचीनकाल में जब सृष्टि में नागों का भय हो गया तो उस समय नागों से रक्षा करने के लिए ब्रह्माजी ने अपने मन से एक देवी का प्राकट्य किया, मन से प्रकट होने के कारण ये मनसा देवी के नाम से जानी जाती हैं, देवी मनसा दिव्य योगशक्ति से सम्पन्न होने के कारण कुमारावस्था में ही भगवान शंकर के धाम कैलास पहुंच गईं और वहां गहन तप किया, इससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें सामवेद का अध्ययन कराया और मृतसंजीवनी विद्या प्रदान की इसीलिए देवी मनसा को मृतसंजीवनी और ब्रह्मज्ञानयुता कहते हैं।
भगवान शंकर ने देवी मनसा को भगवान श्रीकृष्ण के अष्टाक्षर (18 अक्षर का) मन्त्र ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नम: का भी उपदेश किया साथ ही वैष्णवी दीक्षा दी, भगवान शिव से शिक्षा प्राप्त करने के कारण ये शिव की शिष्या हुईं इसलिए ये शैवी कहलाती हैं, इन्होंने भगवान शिव से सिद्धयोग प्राप्त किया था, इसलिए वे सिद्धयोगिनी के नाम से भी जानी जाती हैं।
इसके बाद देवी मनसा ने तीन युगों तक पुष्कर में तप करके परमात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन प्राप्त किया, उस समय गोपीपति भगवान श्रीकृष्ण ने उनके वस्त्र और शरीर को जीर्ण देखकर उनका नाम जरत्कारु रख दिया, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी पूजा कर उन्हें संसार में पूजित होने का वर प्रदान किया, फिर देवताओं ने भी इनकी पूजा की तब से देवी मनसा की ब्रह्मलोक, स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक और नागलोक में पूजा होने लगी और ये विश्वपूजिता कहलाईं।
देवी मनसा अत्यन्त गौरवर्ण, सुन्दरी व मनोहारिणी हैं, अत: ये जगद्गौरी के नाम से भी पूजी जाती हैं, ये भगवान विष्णु की भक्ति में संलग्न रहती हैं और मन से परमब्रह्म परमात्मा का ध्यान करती हैं इसलिए वैष्णवी कहलाती हैं यही कारण है कि इनकी आराधना से भगवान विष्णु की कृपा भी प्राप्त हो जाती है।
भगवान श्रीकृष्ण से वर और सिद्धि प्राप्त कर ये कश्यप ऋषि के पास चली आईं, देवी मनसा कश्यप ऋषि की मानसी कन्या हैं । कश्यप ऋषि ने देवी मनसा का विवाह श्रीकृष्ण के अंशरूप महर्षि जरत्कारु के साथ कर दिया।
महर्षि जरत्कारु की पत्नी होने के कारण इन्हें जरत्कारुप्रिया भी कहते हैं। महर्षि जरत्कारु से इन्हें आस्तीक नाम का पुत्र हुआ, वे आस्तीक मुनि की माता हैं इसलिए आस्तीकमाता के नाम से प्रसिद्ध हैं। भगवान शंकर ने आस्तीक को मृत्युंजय विद्या की दीक्षा दी थी।
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