|| पूजन विधि ||
- भगवान शिव का यह व्रत चार वर्ष का रहता है। हर वर्ष यह व्रत सिर्फ चार महीने ही करना रहता है।
- इस व्रत को करने से भगवान शिव बड़ी से बड़ी मन की इच्छा की पूर्ति करते है। श्रावण से कार्तिक माह तक के हर सोमवार को शिवलिंग की पूजा करें।
- सोमवार को शिवलिंग को दूध दही से स्नान करायें। फिर स्वच्छ जल से स्नान करायें। शिवलिंग पर चंदन, अबिर, गुलाल, रोली, चावल चढ़ायें। जिसके बाद बेल पत्र और फूल-माला शिवलिंग पर चढ़ा दें।
- इसी तरह व्रत की सिक्के की भी पूजा करें। व्रत के पहले दिन धागे पर ग्रंथी लगाई है उसे सिक्के के पास ही रखे। व्रत के समापन के दिन ही धागे की ग्रंथी खोल दें। हर वर्ष भिन्न -भिन्न इच्छाओं को लेकर भी यह व्रत कर सकते हैं।
|| मंशा महादेव व्रत कथा ||
गणनाथं प्रणम्यादौ गौरी शम्भुं तथैव च,
भाष्या मनसा वाचा कथां वक्तुं समुद्यतः ।
शौनकादीन् मुनीन् सूतो धर्मराजं च नारदः,
लिंगे पुराणे यचाह तदहं वक्तुमुद्यतः । ।
एक समय कैलाश पर्वत पर श्री महादेवजी तथा पार्वतीजी विराजमान थे । वहां शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चल रही थी । चारों ओर वृक्ष तथा लताएँ नाना प्रकार के पुष्पों और फलों से शोभा दे रही थीं । ऐसे सुहावने समय में पार्वतीजी ने अपने पतिदेव से प्रार्थना की कि हे नाथ ! आज अपन चौपड़ पाशा खेलें । तब महादेवजी ने उत्तर दिया कि चौपड पाशा के खेल में छल कपट बहुत होता है सो कोई मध्यस्थ हो तो खेला जाये !
इतना वचन सुनते ही पार्वतीजी ने अपनी माया से एक बालक बनाकर बिठा दिया और महादेवजी महाराज ने अपने मंत्र बल से उसे संजीवन कर दिया और आदेश दिया कि तुम हम दोनों की हार जीत को बताते रहना । ऐसा कहकर श्री महादेवजी महाराज ने पाशा चलाया और पूछा कि बताओ कौन जीता और कौन हारा है ?
तब उस पुत्र ने उत्तर दिया कि महादेवजी जीते और पार्वतीजी हारे हैं । फिर दूसरी बार पाशा चलाकर महादेवजी ने पूछा तो उस बालक ने यही जवाब दिया कि महादेवजी जीते और पार्वतीजी हारे हैं । इसी प्रकार तीसरी बार भी पाशा चलाकर पूछा तो, अबकी बार महादेवजी हार गये थे परन्त बालकने विचार किया कि यदि मैं महादेवजी को हारा हुआ बताऊंगा तो ये मुझे श्राप दे देंगे ।
ऐसा सोचकर उसने फिर यही कह दिया कि महादेवजी जीते हैं । तब झूठ बोलते हुए उस बालक को माता पार्वतीजी ने श्राप दे दिया कि तेरे शरीर मे कोढ़ हो जावे और तू निर्जन वन में भटकता फिरे।
उसी समय उसको कोढ़ हो गया और वह भटकता-भटकता सुनसान वन में जा पहुंचा । वहां जाकर उसने देखा कि ब्रह्माणीइन्द्राणी आदि देवताओं की स्त्रियां व्रत के निमित शिवजी की पूजा कर रही हैं । उनको पूजा करते देखकर पार्वतीजी की माया से बनाये बालक, जिसका कि नाम अंगद रखा था, उसने पूछा कि आप यहाँ क्या कर रही हो ?
तब उन देवांगनाओं ने जवाब दिया कि हम तो मनसा वाचा नाम से प्रसिद्ध महादेवजी की पूजा कर रही हैं, याने मन और वाणी को वश में करके अर्थात् सब जगह से मन हटाकर और शिव पार्वती में ही मन लगाकर पूजा कर रही हैं, इसीलिये इस व्रत का नाम भी मनसा वाचा व्रत है । तब अंगदजी ने पूछा कि इस व्रत के करने से क्या फल होता है ? तदन्तर उन देवताओं की स्त्रियों ने कहा कि इससे सारी मनोकामना सिद्ध हो जाती है।
अंगदजी ने कहा कि मैं भी इस व्रत को करना चाहता हूँ। तब उन देवांगनाओं ने चावल सुपारी देकर व्रत का विधान बताया कि- इस व्रत को श्रावण सुदी में पहले सोमवार से करना चाहिये । उस दिन कंवारी कन्या से ढाई पूणी सूत कतवाकर उसका डोरा बनावे | उस डोरे की और श्री महादेवजी का पूजन कार्तिक सुदी चौथ तक प्रति सोमवार करते रहना चाहिये और व्रत रखना चाहिये ।
कार्तिक सुदी चौथ के दिन उद्यापन करना चाहिये । सवा सेर घृत, सवा सेर गुड़, सवा चार सेर आटा लेकर चूरमा बनाकर, उसके चार लड्डू करने चाहिये, एक भाग शिवजी के चढावें, एक भाग किसी ब्राह्मण या नाथ को देवें, एक भाग गाय को देवे और बाकी का एक मोदक का खुद भोजन करें । चारों भाग समान होने चाहिये । चाहे राजा हो चाहे गरीब सबको इतना ही सामान लेना चाहिये ।
धनवान हो तो भी अधिक न लेवें और गरीब हो तो भी कम न लेवें। व्रती मनुष्य या स्त्री एक भाग मोदक को पूरा न खा सके तो पहले से ही उसमें से निकाल कर किसी को दे देवे । वह जो डोरा बनाया था उसे स्वयं धारण कर लें. जिस प्रकार कि अनंत भगवान का डोरा पहना जाता है और उद्यापन होने के बाद जल में पधरा देवे ।
इस प्रकार उस अंगद को भी हर साल व्रत करते करते चार वर्ष हो गये । तब व्रत के प्रभाव से पार्वतीजी के हृदय में दया उत्पन्न हुई और महादेवजी से पूछा कि महाराज जिसको मैंने श्राप दे दिया था उसका पता नहीं है ।
उसको किसी ने मार तो नहीं दिया है। तब तीनों लोकों की सब बातें प्रत्यक्षवत जानने वाले महादेवजी ने कहा कि वह तो जीवित है । तब पार्वतीजी ने कहा कि महाराज ऐसा कोई व्रत हो तो बताओ जिससे कि वह मेरा मानसिक पुत्र फिर से मिल जावे । तब महादेवजी महाराज ने कहा कि श्रावण सुदी के पहले सोमवार के दिन कंवारी कन्या से ढाई पूणी सूत कतवाकर उसका डोरा बनाना और उसे केसर आदि में रंगकर, चार गांठें देकर, सुपारी पर लपेटकर, ताम्ब्र पात्र में रखकर, उसे शिव रूप मानकर, उसकी तथा शिवजी कि पूजा करनी चाहिये ।
इस प्रकार सोमवार के सोमवार शिवजी की पूजा करना, सवा सेर घृत, सवा सेर गुड़ और सवा चार सेर आटा लेकर चूरमा बनाना, उसके चार भाग करना- एक भाग शिवजी के अर्पण करें, दूसरा भाग ब्राह्मण को देवें, तीसरा गाय को देवें और चौथा खुद भोजन करें इसमें न तो अधिक होना चाहिये और न कमती होना चाहिये।
इस प्रकार पार्वतीजी ने भी यह व्रत किया । तब व्रत के प्रभाव से वह अंगद कोढ़ रहित हो गया और अपनी माता के पास बिना बुलाये ही चला गया । उसे आया देखकर पार्वती माता प्रसन्न होकर हँसने लगी तो पुत्र ने पूछा कि, हे मातेश्वरी ! आप मुझे देखकर क्यों हंसी ? तब माता ने कहा-हे पुत्र ! मैं व्रत के प्रभाव को देखकर हंसी हूँ। यह तुम्हारे पिताजी का बताया हुआ मनसा वाचा का व्रत है।
यह व्रत मैंने किया, तभी तो तुम आ गये हो । इस बात को सुनकर पुत्र ने कहा कि-हे अम्बे ! मैंने भी यह व्रत किया था । इससे कोढ़ भी मिट गया है । पार्वती माता ने कहा कि, हे पुत्र ! अब तेरी क्या इच्छा है सो कह ! तब उस पुत्र ने कहा कि- हे मातेश्वरी ! मुझे उज्जैन नगरी का राज्य करने की और वहाँ की राजकुमारी से ब्याह करने की इच्छा है । पार्वतीजी ने कहा कि जा तुझे उजैन का राज्य मिल जायेगा, तू फिर इस मनसा वाचा के व्रत को करले । इस प्रकार उसने चार वर्ष यह उत्तम व्रत किया तब उसे उज्जयनी का राज्य मिल गया ।
अब नारदजी राजा युधिष्ठर से कह रहे हैं कि उसे राज्य किस प्रकार मिला सो सुनो । उज्जैन के राजा रानी वृद्ध हो गये थे, उनके कोई पुत्र नहीं था केवल एक राजकुमारी थी । राजा रानी ने सोचा कि इस कन्या का विवाह किसी राजकुमार से करके उसको राज्य दे देवें । ऐसा निश्चय कर एक स्वयंवर रचा जिसमे देश-देश के राजकुमार आये।
तब एक हथिनी को श्रृंगार कराके पूजा करके हाथ जोड़कर राजाजी ने कहा कि- हे हथिनी तू देवस्वरूपा है, यह माला ले और उसको पहनादे जो इस राज्य को संभाल सके और राजकुमारी के लायक ही वर हो । मामूली मनुष्य को माला मत पहना देना । वह पार्वतीजी का पुत्र भी देवयोग से वहां पहुंच गया । हथिनी ने उसके ही गले में माला डाल दी, परन्तु लोगों ने कहा यह तो हथिनी की भूल है, यह कोई राजकुमार नहीं है ।
ऐसा कहकर उस लड़के को तो दूर हटा दिया और हथिनी को पुनः माला दी गयी और प्रार्थना की गई कि हे माता ! जो इस राज्य के लायक हो उसको ही माला पहनाना । हथिनी ने दूसरी बार भी दूर जाकर उसी के गले मे माला डाल दी । तब लोग कहने लगे कि हथिनी ने हठ पकड़ ली है और मारपीट कर उस बालक को दरवाजे से बाहर निकाल दिया एवं पुनः हथिनी पर गणपति की मूर्ति स्थापित करके वही प्रार्थना की ।
वह देवरुपी हथिनी थी, इसलिये दरवाजे के बाहर निकलकर उसी बालक के गले में उसने तीसरी बार भी माला डाल दी। तब राजा ने नगर सेठ को बुलाकर कहा कि तुम इसको ले जाओ और बारात सजाकर हमारे यहाँ ले आओ । राजा की आज्ञा मानकर सेठ उसको ले गया ।
राजा ने भी पंडितों को बुलाकर लग्न का दिन निश्चय कराया और अपनी कन्या का विवाह उस बालक के साथ कर दिया, और अपने खर्च के लिये थोड़े से गांव रखकर सारा राज्य बेटी जंवाई को कन्यादान मे दे दिया। विवाह के पश्चात वह बालक और राजकुमारी महलों में गये, अब वह राजा हो गया। अब राजा की रानी ने पछा कि- हे पतिदेव !
आप अपनी जात और नाम तो बताइये । तब उस वर ने उत्तर दिया कि मेरा नाम अंगद है, महादेवजी मेरे पिता और पार्वतीजी मेरी माता है । तब राजकुमारी ने कहा कि महाराज इस बात को तो इस मृत्युलोक के लोग मानेंगे नहीं, सत्य सत्य बताइये ।
तब राजकुमारी के पति अंगदजी ने अपने जन्म की सारी कथा कह दी कि, चौपड़ पाशे के खेल मे साखी बनाने के लिये माता पार्वतीजी ने अपनी माया से मुझे बनाया था और महादेवजी महाराज ने अपने मन्त्र बल से मझे संजीवन किया था.
फिर जिस प्रकार मझे श्राप दिया, जिस प्रकार इन्द्राणी आदि देवताओं की स्त्रियों ने मुझे मनसा वाचा व्रत बताया, जिसको मैंने चार वर्ष तक किया तब माता-पिता के पास वापिस पहुंचा। माता ने मुझे गले लगाया और कहा कि अब तुम्हारी क्या इच्छा है ? तब मैंने माताजी से उज्जयिनी के राज की इच्छा प्रकट की ।
फिर माताजी के कहने से मैंने चार वर्ष मनसा वाचा नाम से प्रसिद्ध पिता शिवजी का व्रत किया । इसी व्रत के प्रभाव से आज मुझे उज्जैन का राज्य मिला और तुम जैसी रानी मिली है । परन्तु मेरी राज्य की अवधि पूरी हो गई है, अब मैं अपने माता पिता के पास कैलाश को जाता हूँ। तुम्हारी क्या इच्छा है सो कहो तो मैं वरदान दे जाऊँ और उपाय बता जाऊँ । इतना वचन सुनकर राजकुमारी ने कहा कि- महाराज मैं तो पुत्र, धन तथा राज्य का सुख चाहती हूँ।
अंगदजी ने अपनी रानी को वही मनसा वाचा का शिवजी का व्रत बता दिया और कहा कि बिना मेरे व गर्भवास के तेरे पुत्र होगा । ऐसा कहकर अंगदजी कैलाश चले गये। पति की आज्ञानुसार राजकुमारी ने चार वर्षों तक यह उत्तम व्रत किया। इससे महादेवजी प्रसन्न हो गये। एक दिन इस रानी ने दासी से कहा कि जा जल की झारी ले आ, मैं दांतून करूंगी।
दासी ऊपर गयी तो क्या देखती है कि सोने की पालकी में एक छोटा सा सुन्दर बालक सो रहा है और मुंह में अंगूठा चूस रहा है । दासी ने जाकर रानीजी से यह बात कही। रानीजी ने जाकर बालक को उठा लिया और भगवान शंकरजी से प्रार्थना की किहे प्रभो ! यदि आपने यह बालक दिया है तो मेरे स्तनों मे से दूध की धारा भी निकलनी चाहिये। इतना कहते ही उसके स्तनों में दूध आ गया।
इस प्रकार वह बालक बड़ा होने लगा। एक दिन उस बालक ने अपनी माँ से पूछा कि -हे माँ ! मेरे पिता कौन है, और उनका क्या नाम है ? तब उस रानी ने कहा कि तेरे पिता तो अंगदजी हैं और महादेव-पार्वतीजी तेरे दादा-दादी है। तब बालक ने जिसका की नाम फूलकंवर है, अपनी माता से कहा कि, इस बात को तो मृत्युलोक मे कोई नहीं मानेंगे।
तब माता ने पुत्र को वह सारी कथा कह सुनाई कि, तुम्हारे पिता अंगदजी की उत्पति पार्वतीजी की इच्छा व माया से हुई और महादेवजी ने उनको संजीवन किया था। शिव पार्वती के चौपड़ पाशा के खेल में झूठ बोलने से माता ने उनको श्राप दे दिया, जिससे वे कोढ़ी हो गये और उनको वन मे भटकना पड़ा।
तब मनसा वाचा के व्रत करने से वे भले चंगे हो गये और माता पार्वतीजी से उनका पुनर्मिलन हो गया। अपनी माता पार्वती के कहने से तम्हारे पिताजी ने फिर मनसा वाचा शिवजी का व्रत किया। तब उनको उज्जैन का राज्य मिल गया व उनका मुझसे विवाह हो गया ।
उनकी अवधि कुछ ही दिन की थी इसलिये वे तो अपने माता-पिता के पास कैलाश चले गये और उनके बताये हुए व्रत को चार वर्ष करने से बिना गर्भवास के ही तुम मेरे यहाँ पुत्र रूप से प्रकट हुए हो। अब तुम्हारी क्या अभिलाषा है, सो मुझे बताओ। माता के वचन को सुनकर पुत्र ने कहा कि- हे माता ! मेरी इच्छा चेदिराजा की कन्या से विवाह करने की है, क्योंकि मैंने उसकी प्रसंशा सुनी है।
तब माता ने कहा कि हे पुत्र ! तू भी मनसा वाचा का व्रत कर, इस व्रत के करने वाले के लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। पुत्र ने भी चार वर्ष तक व्रत किया, तब भगवान शंकरजी ने चेदिराजा को स्वप्न में आदेश दिया कि मेरे कहने से तू अपनी राजकुमारी का विवाह उज्जैन के राजकुमार से कर दे।
चेदिराज ने भगवान शिवजी के वचन माने और अपनी कन्या का विवाह उज्जैन के राजकुमार से कर दिया। अब वह राजा हो गया। एक दिन वह शिकार खेलने वन में गया। वहाँ उसके कोई शिकार हाथ नहीं आया। भूख प्यास से व्याकुल होकर वह एक बाग में जाकर आराम करने लगा। देवयोग से वहां कोई ब्राह्मण आ गया।
उसने राजा को श्रीधरी पञ्चांग सुनाया कि आज कार्तिक सुदी चौथ है सो आज मनसा वाचा के व्रत का उजीरना है। राजा ने कहा कि, महाराज ! मुझसे तो भूल हो गई, आप हमें अब पूजन करादें। ब्राह्मण ने पूजा के लिये शहर मे रानीजी को खबर भेजी कि राजा साहेब शिकार के लिये यहाँ वन में ठहरे हुए हैं। आज कार्तिक सुदी चौथ का उजीरना है इसलिये सवा चार सेर आटा, सवा सेर घी, सवा सेर गुड़ का चूरमा बनवाकर मंगवाया है।
इस पर रानी ने सोचा कि फौज के कई आदमी साथ हैं, इतने से चूरमे से क्या होगा? तो उसने गाड़ी भरकर भेज दिया। नियम विरूद्ध अधिक प्रसाद होने से महादेवजी ने कोप करके राजा को स्वप्न में| कहा कि तुम अपनी रानी को निकाल दो, नहीं तो मैं तुम्हारा राज्य नष्ट कर दूँगा !! राजा ने प्रमाण के अनुसार दुबारा चूरमा बनवाकर व्रत पूरा किया। महादेवजी के कथन के अनुसार राजा ने रानी को महल से निकलवा दिया। रानी किले से रवाना हुई। थोड़ी दूर जाने पर दीवान मिले। दीवान ने पूछा कि, रानी साहिबा आप कहाँ पधार रहे हो? रानी ने सब बातें बताई।
तब दीवान ने कहा कि- मैं राजा साहेब को समझाकर राजी कर लूँगा, तब तक आप मेरी हवेली मे पधारें। रानी ज्योंही दीवान कि हवेली मे गई त्योंही दीवान अंधा हो गया। तब दीवान ने हाथ जोड़कर कहा कि आप यहाँ से पधारो। रानी वहां से रवाना होकर आगे बढ़ी तो उन्हें नगर सेठ मिल गया।
उसने भी यही कहा कि, राजा साहब को एकदो दिन में मना लेंगे, तब तक आप हमारे घर पर ही बिराजें। रानी नगर सेठ के घर गई तो, सेठ की हुंडियां चलने से बंद हो गई और कई उपद्रव होने लगे। तब सेठ ने भी हाथ जोड़कर कहा कि रानीजी आप यहाँ से पधारो। रानी वहां से आगे गई तो, राजाजी का कुम्हार मिला। उसको रानी पर दया आ गई। वह रानी को अपने घर ले गया।
कुम्हार के घर पर रानी के जाते ही उसका न्याव फूट गया जिससे सारे बरतन फूट गये और कुम्हार भी अंधा हो गया। तब कुम्हार ने भी रानी को अपने घर से निकल जाने की प्रार्थना की। आगे जाने पर एक माली मिला। उसने पूछा – आप कहाँ पधार रही हो, तो रानी ने कहा कि, राजा साहेब ने मुझे देश निकाला दिया है। तो माली को दया आई और वह रानी को अपने बाग मे ले गया।
माली ने कहा कि जब तक राजाजी का क्रोध मिटे तब तक आप यहाँ बाग में ही रहो, पर रानी के बाग में जाते ही बाग के पेड़ पौधे सब सूखकर जलने लगे। क्यारियों का पानी भी सूख गया और माली को भी कम दिखने लगा। तब माली ने भी रानी को वहां से चले जाने के लिये कह दिया। रानी वहां से निकल कर विचार करने लगी कि मुझसे ऐसा क्या पाप हो गया कि मैं जहाँ जहाँ भी जाती हैं वहां वहां अनर्थ सा होने लगता है।
ऐसा सोचते सोचते रानी ने देखा कि आगे दो रास्ते हैं। पूछने पर मालुम हुआ कि, एक तो छह महीने का रास्ता है व दूसरा तीन ही दिन का। रानी तीन ही दिन के रास्ते से चली। आगे जाते-जाते क्षिप्रा नदी मिली। रानी ने दुःख के मारे उसमें कूदकर आत्महत्या करनी चाही, पर ज्योंही वह नदी में कूदी तो नदी ही सूख गई। आगे चलने पर एक पर्वत आया।
उसने सोचा कि इस पर चढ़कर गिर पडूं। वह चढ़कर गिरने लगी तो पर्वत ज़मीन के बराबर हो गया । आगे जाने पर एक सिंह दिखाई दिया । रानी ने सोचा कि इस सिंह को छेडूं तो शायद यह मुझे खा जाये तो अच्छा ही है । उसने सिंह पर हाथ फेरा तो सिंह पत्थर का हो गया । आगे जाने पर बड़ा भारी अजगर सांप दिखाई दिया । रानी ने मरने के लिये उस बड़े सांप को छेड़ा तो सांप रस्सी बन गया ।
रानी हार खाकर और आगे चली तो क्या देखती है कि वहाँ एक बड़ा भारी पीपल का वृक्ष है, उसी के पास एक सुन्दर कुआ है और एक मंदिर बना हुआ है। वह मंदिर मे जाकर मुंह ढककर बैठ गई और “ॐ नमः शिवाय” इस पंचाक्षरी मन्त्र को जपने लगी । उस दिन कार्तिक सुदी चौथ का दिन था, मंदिर का पुजारी नाथ सामान लेने गांव में गया था ।
वहां उसको कुत्ते ने काट खाया । तब पुजारी नाथ ने विचार किया कि हमारे आश्रम में ऐसा कौन पापी आ पहुंचा है जिसके कारण यह उत्पात हो गया है। मंदिर जाकर नाथ ने एक स्त्री को बैठी देखा तो कहने लगा आज यहां कोई डाकन या भूतनी आ गई है। तब रानी ने विनयपूर्वक कहा कि महाराज मैं न तो डाकन हूँ, न भूतनी हूँ, मै तो मानवी हूँ। आकाश की घेरी और ज़मीन की झेली हुई दुखी स्त्री हूँ ।
यदि आप मझे धर्म की बेटी बनाओ तो अपना सारा भेद कहूँ। नाथ ने यह स्वीकार कर लिया तो रानी ने अपना सारा भेद कह दिया और वहां से जाने लगी तो चल नहीं सकी । तब नाथ ने उजीरना का एक लड्डू उसे दे दिया । लड्डू को देखते ही रानी को व्रत याद आ गया । नाथ ने भी बता दिया कि आज कार्तिक सुदी चौथ है, यह मनसा वाचा के व्रत का प्रसाद है।
इसका नियम है कि राजा हो तो भी अधिक प्रसाद न बनावे और गरीब हो तो भी कम न बनावे । यह एक भाग का लड्डू है । तब रानी के समझ मे आई कि. मैंने प्रसाद का चरमा ज्यादा भेजा था इससे यह महादेवजी का दोष हुआ है। ऐसा विचार कर रानी ने नाथजी से प्रार्थना की कि हे महाराज ! इस व्रत को अब मैं भी करना चाहती हूँ ।
तब नाथ ने कहा कि यह श्रावण सुदी चौथ आ रही है, इस दिन से तुम व्रत शुरू करो । फिर नाथजी ने कंवारी कन्या से पूणी कतवाकर उसका डोरा बना दिया । पूजन का सामान लाकर सोमवार के सोमवार व्रत और पूजन करती रही । जब कार्तिक सुदी चौथ आई तब नाथजी गांव जाकर सामान ले आये । सवा सेर घी, सवा सेर गुड़, सवा चार सेर आटा का चूरमा बनाया ।
चूरमा के चार भाग किये और शिव पार्वती की मनसा वाचा पूजा की । इस तरह व्रत करते करते चार वर्ष हुए तो महादेवजी महाराज ने राजा को स्वप्न मे दर्शन देकर कहा कि, राजन ! अब तू रानी को बुलवाले, नहीं तो मैं तेरे राज्य का नाश कर दूंगा। तब राजा ने कहा कि महाराज ! अब रानी का पता लगना कठिन है ।
आपकी आज्ञा से ही तो उसे देश निकाला दिया था । तब महादेवजी ने कहा कि हे राजन ! तू चार विश्वासी नौकरों को पूरब के दरवाजे पर भेज दे, वहां बिना नाथे हुए बैलों कि गाड़ी आयेगी वह गाड़ी वहीं जाकर ठहरेगी जहाँ पर तुम्हारी रानी है । प्रातःकाल राजा ने चार आदमी भेजे । आगे बिना नाथे हुए बैलों कि गाड़ी आई ।
उसमे वे चारों बैठ गये और उसी मंदिर तक चले गये जहाँ पर रानी थी । वहां रानी को पहचान कर सेवकों ने कहा कि हे रानीजी ! अब पधारिये, राजा साहब ने आपको बुलाया है और इसी कार्य के लिये हमको भेजा है । तब रानी ने नाथजी को कहा कि मै आपकी धर्म की बेटी हूं सो आप मुझे सीख देकर भेजो ।
तब नाथजी ने मिट्टी के हाथी घोड़ा व पालकी बनाकर मन्त्र के छींटे दिये, जिससे वे सच्चे हाथी घोड़ा पालकी बन गये। रानी ने नाथजी से फिर कहा कि, हे पिताजी ! आते समय रास्ते मे मेरे रहने से कई जीवों का नुकसान हो गया था, तो उनका भी उद्धार हो जाना चाहिये, नहीं तो यह पाप भी मुझको ही लगेगा ।
तब नाथजी ने शिवजी के निर्माल्य (स्नान कराये जल) की एक झारी भर दी और कहा कि हे बेटी ! तू इस जल का छींटा “ॐ नमः शिवाय” कहकर डालती जाना, सो तेरे सारे पाप निवृत हो जायेंगे। अब तो रानी शिव पार्वतीजी को और नाथजी को साष्टांग नमस्कार कर, लेने को आये चारों सेवकों के साथ रवाना हो गई । जाते जाते वही सर्प आया ।
तब शिवजी से प्रार्थना करने लगी कि प्रभु मेरे पाप से यह सर्प रस्सी बन गया था, अब यह फिर से सर्प हो जावे, ऐसी प्रार्थना कर झारी के जल से उसके छींटे दिये, जिससे वह पहले के समान सर्प बन गया । आगे वही सिंह जो पत्थर का होकर पड़ा था, मिला, उसके भी रानी ने झारी के जल के छींटे दिये तो वह भी जीवित होकर जंगल में भाग गया ।
आगे चलने पर वह पर्वत आया जो ज़मीन के बराबर हो गया था, प्रार्थना करके जल के छींटे देने से वह भी पहले जैसा पर्वत हो गया । आगे जाते-जाते वही नदी आई जो सूख गई थी । रानी ने शिवजी का ध्यान कर जल के छींटे दिये जिससे वह भी गहरे और स्वच्छ जल वाली नदी फिर से हो गई।
अब रानीजी ने पालकी हाथी घोड़े तो किले मे भेज दिये और वह खुद उसी बाग मे गई जो पहले सूख गया था । बागवान ने कहा कि रानीजी आप अब फिर क्यों आ रही हो ? पहले ही आपके आने से यह बाग उझड़ गया था । पर रानी के समझाने पर माली ने फाटक खोला । रानी ने बाग में जाकर शिवजी क ध्यान कर झारी के जल के छींटे दिये जिससे पहले से भी अच्छा हरा भरा बगीचा हो गया ।
वहाँ कई कोयलें बोलने लगी, नाना प्रकार के फल-फूल दिखाई देने लगे और कुओं में लबालब जल भर गया। फिर रानीजी उसी कुम्हार के घर गई तो कुम्हार की आँखें खुल गई और जल के छींटे देने से न्याव के बरतन सोने चांदी के बन गये । कुम्हार ने कहा कि रानीजी ये सोने के बरतन हमारे पास कौन रहने देगा । तब रानीजी ने कहा कि इनमें से चार बरतन राजा की भेंट कर देना ।
इसी तरह रानी नगर सेठ के घर गई तो उसकी हंडियां सिकरने लगी व व्यापर में लाभ होने लगा । तब नगर सेठ ने कहा कि अन्नदाताजी आपके पधारने से हमारे यहाँ रिद्धि-सिद्धि हुई है, इस खुशी में मैं सारी नगरी को जिमाना चाहता हूं । सारी नगरी में ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल किसी के घर मे धुंआ न निकले । जो किसी ने चूल्हा जलाया तो दंड के भागीदार होंगे । आगे रानीजी पधारी तो दीवानजी के यहाँ पहुंची । जाते ही दीवान की आँखें खुल गई। सब आनंद हो गया ।
अब रानी साहिबा किला में पधारी । राजाजी ने उनका अच्छा स्वागत किया । नगर सेठ ने सारे नगर को जिमाया और किले में जाकर रानीजी से अर्ज की कि- अन्नदाताजी अब आप भी आरोगिये !! रानी ने कहा कि मेरे तो आज कार्तिक सुदी चौथ का उज़ीरना है सो किसी भूखे आदमी को जिमाकर जिमंगी। सारे नगर के लोग तो नगर सेठ के यहाँ जीम आये, नगर मे कोई भी भूखा व्यक्ति नहीं मिला । ढूंढते-ढूंढते धोबी घाटे पर एक अंधी बहरी, कोढनी धोबन पड़ी मिली । रानीजी की आज्ञा से उसे बलाया ।
रानी जी ने उसे स्नान कराया । स्नान कराते ही उसका सारा कोढ मिट गया । कथा सुनाते ही उसके लिये स्वर्ग से विमान आ गया और बूढ़ी धोबन कथा सुनने व प्रसाद लेने मात्र से सदेह वैकुण्ठ चली गई। राजा रानी भी हर साल मनसा वाचा का व्रत करते रहे । वे संसार के सब प्रकार के सुखों को भोगते रहे और पुत्र को राजगद्दी देकर अंतकाल में शिवलोक में गये ।
इस प्रकार मनसा वाचा भगवान शिवजी-पार्वतीजी के व्रत करने की बडी भारी महिमा है । श्रावन सदी के सोम से कार्तिक सुदी चौथ तक का यह व्रत सब मनोवांछित फल का देने वाला है । इस मनसा-वाचा के व्रत को करने वाले मनुष्य की सभी कामनाएं शिवजी महाराज पूर्ण कर देते हैं ।
पुत्र नहीं हो या होकर जीवित नहीं रहता हो तो इस व्रत के करने से स्त्री पुत्र का सुख अवश्य प्राप्त करती है । इसी प्रकार पुरूष को स्त्री का और स्त्री को पति का सुख सौभाग्य प्राप्त होता है । जिसके कमाई धंधा न हो तो इस व्रत के करने से शिवशंकर भगवान उसे जीविका प्रदान करते हैं। मंशा महादेव व्रत का इतिहास, कथा बताया जाता है कि यह मंशा महादेव व्रत देवी-देवताओं के द्वारा किया गया था। जिसे मनुष्य को अवश्य करना चाहिए। बताया जाता है भगवान इंद्र जब चन्द्रमा के श्राप से कुष्ठ रोग से पीडित हो गए थे तो उन्होने यह व्रत कर कुष्ठ रोग से मुक्ति पाई थी। इसी तरह माता पार्वती ने शिवजी को पति रूप में पाने के लिए यह व्रत किया था तथा शिवजी के पुत्र भगवान कार्तिकेय ने भी यह व्रत किया था।
कार्तिकेय भगवान ने इस व्रत की महिमा मंशा राम ब्राह्मण नामक व्यक्ति को बताई थी। जिसके द्वारा व्रत करने से उसे अवंतिकापुरी के राजा की कन्या पत्नी रूप में प्राप्त हुई थी। मंशा महादेव की व्रत कथा बागड़ी भाषा में है और यह कथा “श्री तम्बावती नगरी हती । राजा कुबेर राज करता हता । एवु नियम हतो के महादेवजी ने मंदिरे जई सेवा पूजा करी बाद भोजन जिमवु।” से शुरु होती है।
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