मीराबाई जयंती 2025 में 7 अक्टूबर को मंगलवार है। भारतीय भक्ति साहित्य (Indian Devotional Literature) के इतिहास में, मीराबाई एक ऐसा नाम है जो प्रेम, समर्पण और त्याग की पराकाष्ठा को दर्शाता है। वह न केवल एक कवयित्री थीं, बल्कि एक ऐसी अमर साधिका थीं जिन्होंने समाज की रूढ़ियों को तोड़कर, अपने इष्ट भगवान श्रीकृष्ण को अपना सर्वस्व (Everything) माना।
हर साल, शरद पूर्णिमा के दिन उनकी जयंती मनाई जाती है, जो उनके अलौकिक प्रेम और त्याग की याद दिलाती है। यह जयंती केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि एक प्रेरणा है जो हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम और भक्ति हर बंधन से मुक्त होती है।
मीराबाई – जन्म और कृष्ण प्रेम की शुरुआत
मीराबाई का जन्म लगभग 1498 ईस्वी में राजस्थान के पाली जिले के कुड़की गांव में राठौड़ वंश के रतन सिंह के घर हुआ था। उनका बचपन मेड़ता में बीता, जहाँ उनके दादा राव दूदाजी संत-सेवी थे। इसी माहौल ने मीरा के मन में बचपन से ही कृष्ण भक्ति का गहरा बीज बो दिया।
मीरा के हृदय में कृष्ण प्रेम की शुरुआत एक अनोखी घटना से हुई। कहा जाता है कि एक बार उन्होंने एक बारात देखी और अपनी माँ से पूछा कि उनका दूल्हा कौन है। माँ ने मज़ाक में श्रीकृष्ण की मूर्ति की ओर इशारा करते हुए कह दिया, “यह तुम्हारा दूल्हा है।” बाल मन ने इसे सत्य मान लिया और उसी क्षण से मीरा ने श्रीकृष्ण को अपना पति (Husband) और स्वामी स्वीकार कर लिया। यह प्रेम किशोरावस्था से लेकर जीवन के अंत तक एक अविचल (Unwavering) साधना बन गया।
राजसी जीवन का त्याग और संघर्ष
मीराबाई का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र राजकुमार भोजराज से हुआ। एक राजकुमारी (Princess) होने के बावजूद, मीरा का मन राजसी वैभव में नहीं लगा। वह अपने विवाह को केवल एक सामाजिक बंधन मानती थीं, क्योंकि वह पहले ही श्रीकृष्ण को अपना पति मान चुकी थीं।
विवाह के कुछ वर्षों बाद ही उनके पति का स्वर्गवास हो गया। पति के निधन के बाद, उनकी भक्ति और भी गहरी हो गई। राज परिवार को उनका मंदिरों में जाकर कृष्ण भक्तों के साथ नाचना और भजन गाना अच्छा नहीं लगा। उन्हें लगा कि यह राजघराने की मर्यादा (Dignity) के विरुद्ध है।
राज परिवार ने मीरा को रोकने के लिए कई प्रयास किए, जिसमें उन्हें विष (Poison) देना भी शामिल था। लेकिन मीरा की अनन्य भक्ति के कारण, कहा जाता है कि उनके लिए विष भी अमृत बन गया। इस प्रकार के निरंतर अत्याचारों और विरोध से परेशान होकर, मीरा ने राजसी सुखों और घर का त्याग कर दिया।
मीरा के भजन – भक्ति की अमृत धारा
मीराबाई ने अपना शेष जीवन वृंदावन और द्वारका की यात्रा में बिताया, जहाँ वे केवल अपने ‘गिरधर नागर’ (Shri Krishna) की भक्ति में लीन रहीं। उनके भजन उनकी आत्मा का स्पंदन (Vibration) हैं। उन्होंने ब्रजभाषा, राजस्थानी और गुजराती भाषाओं में हजारों पदों की रचना की, जो आज भी प्रेम और विरह की पराकाष्ठा माने जाते हैं।
उनके कुछ प्रसिद्ध भजन और पद हैं:
- “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।” – यह भजन उनका ‘लाइफ मंत्र’ है, जो स्पष्ट करता है कि उनके जीवन में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है।
- “पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।” – यह दर्शाता है कि भौतिक धन की तुलना में ईश्वरीय प्रेम ही सबसे बड़ा धन है।
- “हरी तुम हरो जन की भीर।” – इसमें वे अपने प्रभु से भक्तों के कष्टों को हरने की प्रार्थना करती हैं।
मीरा के भजनों की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सरलता, मार्मिकता (Pathos) और निश्छल प्रेम है। उनके भजनों में एक भक्त का अपने आराध्य के प्रति समर्पण, मिलन की आतुरता और विरह का दर्द साफ झलकता है।
अमरत्व की यात्रा – द्वारका में समाधि
मीराबाई के जीवन का अंत भी उनके प्रेम जितना ही अलौकिक माना जाता है। मान्यताओं के अनुसार, अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे गुजरात के द्वारका गईं। कहा जाता है कि सन् 1547 ईस्वी के आसपास, श्रीकृष्ण के रणछोड़राय मंदिर में, भजन गाते-गाते वे श्रीकृष्ण की मूर्ति में समाहित (Merged) हो गईं।
यह घटना उनके भौतिक शरीर के अंत से अधिक उनके अमर प्रेम की विजय थी। यह उनके इस विश्वास का प्रमाण था कि वह सचमुच कृष्ण की थीं और अंततः उन्हें अपने प्रियतम से शाश्वत मिलन प्राप्त हुआ।
मीराबाई जयंती हमें यह याद दिलाती है कि सच्ची भक्ति में वह शक्ति है जो न केवल सामाजिक बंधनों को तोड़ सकती है, बल्कि आत्मा को परमात्मा से मिला सकती है। उनकी कहानी त्याग, साहस (Courage) और अलौकिक प्रेम की एक कालजयी गाथा है।
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