|| श्रीपरापूजाप्रकाशस्तोत्रम् ||
॥ अथ श्रीपरा-पूजा-प्रकाश-स्तोत्रम् ॥
(छह आम्नायों के क्रम से भगवती षोडशी की आराधना)
मुखं बिन्दुर्मिश्रो ह्यरुण-धवलं बिन्दु-युगकम्
कुच-द्वन्द्वं योनिर्भगवति! च ते हार्द्ध-सु-कला ।
सुसामास्यं वा ऋग्यजुरुभयकं ते स्तन-युगम्
ततोऽथर्वो योनिस्तव जननि हे मन्मथ-कले! ॥ १॥
हे भगवती षडैश्वर्य-शालिनी, काम-कला-रूपिणी माता! सूर्य-बिन्दु
ही आपका मुख है, अरुण तथा श्वेत अग्नि-सोमात्मक बिन्दु-युगल
आपके स्तन-युगल हैं और योनि हार्द्ध-कला है एवं साम-वेद
आपका मुख है, ऋग्वेद तथा यजुर्वेद स्तन-युगल हैं और योनि
अथर्व-वेद है । अतः हे पर-देवता! आप में, त्रि-बिन्दु एवं चार
वेदों में कोई भेद नहीं है ॥ १॥
ततः संसारेऽस्मिन् गगनमतुलं शब्द-गुणकम्
पुनः स्पर्शा-वेद्यं पवनमपि रूपञ्च दहनम् ।
रसाढ्यं पानीयं तदनु धरणीं गन्ध-गुणकाम्
सु-नाद-ब्रह्माख्यौ प्रकृति-पुरुषौ प्राजनयताम् ॥ २॥
ऊक्त त्रि-कोण से तदनन्तर इस संसार में नाद एवं ब्रह्म-रूप
पूर्वोक्त काम-कलात्मक विसर्ग और बिन्दु-रूप प्रकाश-विमर्शात्मक
प्रकृति एवं पुरुष ने श्रोत्र-ग्राह्य-गुण-युक्त शब्द-रूप
से महाकाश, स्पर्श-गुण से ज्ञेय वायु, रूप-गुण-युक्त-रूप
से तेजस्, रस-गुण-परिपूर्ण रस से जल और प्राण-ग्राह्य-गुण
से युक्त गन्ध से पृथ्वी को बिन्दु-मथन-रूप ताण्डव-लीला से
उत्पन्न किया ॥ २॥
विमर्शाख्ये शक्ते! भवसि हि परा त्वं क्षिति-तले
महेच्छा पश्यन्ती मणिपुरग-वामा भगवति! ।
तथा ज्येष्ठा ज्ञाना हृदय-गमना मध्यम-शिवा
क्रिया-शक्ती रौद्री मुख-कुहरगा वैखरि-कला ॥ ३॥
हे विमर्शाख्या भगवती!, शब्दोच्चारण के समय आप अकेली ही
जब मूलाधार चक्र में स्फुरित होती हैं, तब परा-संज्ञक
नाड़ी-रूप बन जाती हैं । मणिपुर-चक्र में जब पहुँचती
हैं, तो इच्छा-शक्ति वामा बनकर पश्यन्ती-रूप धारण करती
हैं । उसी प्रकार हृदय-अनाहत चक्र में जब गमन करती हैं,
तो ज्ञान-शक्ति ज्येष्ठा बनकर मध्यमा-रूप धारण करती हैं
और मुख-विवर में जब प्राप्त होती हैं, तो क्रिया-शक्ति रौद्री
बनकर वैखरी नामवाली बनती हैं ॥ ३॥
पुरोक्तेच्छा-शक्तिः त्रिपुर-ललिता हादि-मतगा
महोग्रा ज्ञानाख्या जगति विदिता सादि-मतगा ।
क्रिया-शक्तिः काली कलन-निरता कादि-मतगा
परे! एकैव त्वं जयसि मत-भेदैः त्रिपुर-युक् ॥ ४॥
हे भगवती परा! आप जब पूर्वोक्त इच्छा-रूपिणी होती हैं,
तब हादि-क्रम-समष्टि-रूपिणी त्रिपुर-सुन्दरी होती हैं । जब
ज्ञान-रूपिणी बनती हैं, तब संसार में महा-चीन-क्रम-युत
संवरौधि-मत से प्रसिद्ध सादि-क्रम-समष्टि-रूपिणी महोग्र-तारा
बनती हैं और जब क्रिया-रूपिणी होती हैं, तो स्थिति करने में
तत्पर कादि-क्रम-समष्टि-रूपिणी काल-संकलन-कर्त्री काली
बनती हैं । इस प्रकार आप अकेली ही कादि, सादि और हादि-क्रम
भेद से तीन पुर-रूप शरीरवाली त्रिपुर-सुन्दरी के रूप में जय
को प्राप्त होती रहती हैं ॥ ४॥
त्रि-विद्यानां नूनं ख-पवन-कृशान्वब् वसु-मती-
समेतानां जातास्तनव इह षड्धा भुवनगाः ।
प्रजातं षट्-चक्रं शुभमपि सहस्रार-सहितं
षडाम्नायात्मा त्वं रस-तनु-धराऽभर्हि ललिते! ॥ ५॥
हे ब्रह्म-स्वरूपिणी शक्ति श्री ललिता देवी! इस संसार में आकाश, वायु,
अग्नि, जल तथा पृथ्वी से युक्त कादि, हादि, सादि-रूप तीन विद्याओं
से ही जगत् में व्याप्त छह प्रकार की मूर्तियाँ बनी हैं । वे ही
षडाम्नाय-विद्याएँ बनीं तथा सहस्रार-सहित सुन्दर षट्-चक्र
(१. मूलाधार, २. स्वाधिष्ठान, ३. मणिपूर, ४. अनाहत,
५. विशुद्ध और ६. आज्ञा) बने । इस प्रकार आप निश्चय ही
षट्-शरीर-धारिणी षडाम्नायात्मा हैं ॥ ५॥
परे! एका सृष्टि-स्थिति-लय-विधाने पुनरहो
अनाख्या भासायां त्वमसि ललनाचार-निरता ।
समालभ्यावस्थां विविध-मत-भेदोप-जनिताम्
शनैः पञ्ची-भूत्वा विलससि सदैव त्रि-भुवने ॥ ६॥
हे परे! आश्चर्य है कि आप अकेली ही १. सृष्टि, २. स्थिति
और ३. लय-संहार-विधान में तथा ४. अनाख्या-तिरोधान एवं
५. भासा-अनुग्रह आदि कार्यों में ललनोचित क्रीड़ा में तत्पर रहती
हैं तथा उपर्युक्त पञ्च-विध अवस्थाओं से रहित होकर भी
पञ्च-विध अवस्थाओं को प्राप्त करके तीनों लोकों में सदा शोभित
होती हैं ॥ ६॥
१- पूर्वाम्नाय
रसारं तद्-बाह्ये शुभ-वसु-दलाढ्यं सु-कमलम्
सरोजान्यद् दिव्यं विधु-दल-युतं तद् बहिरथो ।
चतुर्द्वारोपेतं विलसति यदा यन्त्रमतुलम्
तदा त्वं भो मात! भवसि भुवनेशी हर-नुते ॥ ७॥
भगवान् शिव द्वारा नमस्कृत्त हे माता! जब षट्-कोण,
अष्ट-दल-कमल, षोडश-दल-कमल तथा चार द्वारों से युक्त
भू-पुरवाला उत्तम यन्त्र पूर्वोक्त बिन्दु-युगल के उच्छलन से
बनता है, तब उस समय आप पूर्वाम्नायात्मिका “भुवनेश्वरी”-रूप
होती हैं ॥ ७॥
परे प्रागाम्नाये जगति विदिता राजस-वपुः
शुभाकारा भूत्वा सृजसि भुवना विश्वमखिलम् ।
तदा शम्भ्वाकारो भवति स परो धाम-विभव-
स्तयोरंशोत्पन्नो विधिरपि स सृष्टिं वित-नुते ॥ ८॥
हे परा भगवती! जब आप पूर्वाम्नाय में सु-प्रसिद्ध सुन्दर
आकार से रजो-गुण-युक्त शरीरवाली भुवनेश्वरी बनकर
अखिल विश्व की सृष्टि करती हैं, तब तेजः-पुञ्ज-रूप
पर-शिव-पशु-पति-रूप होते हैं और आप भुवनेश्वरी एवं
पशुपति के अंश से उत्पन्न ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं ॥ ८॥
सु-पूर्वे राजीवे स्मित-मुख-सरोजां पृथु-कुचाम्
शिवाकारां शान्तां तरुण-रवि-भासं हर-वधूम् ।
कराम्भोजैः पाशाङ्कुश-वर-महाभीति-दधतीम्
भजेऽहं रत्नाङ्गीं शश-धर-धरां रम्य-भुवनाम् ॥ ९॥
सगुण भावात्मक अर्थ-पूर्वाम्नाय में मन्द-मुस्कान से युक्त
मुख-कमलवाली, विशाल स्तन-शालिनी, शिव-स्वरूपा, शान्त, तरुण
सूर्य के समान कान्तिमती, भगवान् शिव की प्रिया तथा अपने (चारों)
कर-कमलों में क्रमशः१. पाश, २. अंकुश, ३. वरद-मुद्रा
तथा ४. अभय-मुद्रा को धारण करनेवाली, रत्नों से जटित,
आभूषणों से मण्डित एवं मुकुट में चन्द्रमा को धारण करनेवाली,
भुवन-मोहिनी भगवती भुवनेश्वरी की मैं आराधना करता हूँ ।
निर्गुण भावात्मक अर्थ-नित्यानन्द-रूपिणी, बिन्दु-द्वय-रूप
स्तनोंवाली, संसार की रचना में उद्यत, सकल जगत् के लिए
कल्याण-स्वरूप, शान्ति-प्रदायिनी, जिस प्रकार तरुण सूर्य नवीन
दिवस की सृष्टि करता है, उसी प्रकार तेजस्वी विश्व का निर्माण
करनेवाली, ताप-त्रय-नाशक भगवान् हर-शिव की शक्ति-रूपा,
अपने साधकों के ताप-त्रय को दूर करनेवाली, पाश-वशीकरण
शक्ति एवं अंकुश-स्तम्भन शक्ति से समस्त भुवन को अपने
वश में करके साधकों को अभिलषित वर एवं अभय देनेवाली
परामृत-रूपिणी रमणीय मूल प्रकृति का मैं स्मरण करता हूँ
॥ ९॥
त्रिकोणं वह्न्यस्र-त्रयमपि बहिस्र-त्र्यस्तमपरं
बहिः पद्मं दिव्यं वसु-दल-युतं भूमि-सदनम् ।
शिरःपङ्क्ति-ज्वालैः सह भवति यन्त्रं सुविमलम्
तदा श्यामा-काली त्वमसि परमाद्ये भगवति! ॥ १०॥
हे परमाद्या भगवती! जब पूर्वोक्त बिन्दु-त्रय, त्रिकोण, उसके
बाहर तीन त्रिकोण और उसके बाहर पुनः त्रिकोण इस प्रकार
पाँच त्रिकोणों के बाहर अष्ट-दल-कमल, तदनन्तर बाहर
भू-पुर, मुण्ड-पंक्ति एवं ज्वालाओं से युक्त निर्मल यन्त्र बनता है,
तब आप श्यामा-काली-दक्षिण-काली-रूपिणी बनती हैं । इस यन्त्र
के पञ्च-त्रिकोण रक्त-बिन्दु के भाग हैं । अष्ट-दल-कमल
श्वेत-बिन्दु का भाग है तथा भू-पुर, मुण्ड-पंक्ति एवं
अग्नि-ज्वालाएँ मिश्र-बिन्दु के भाग हैं । पूर्वोक्त बिन्दु-त्रय से
स्थिति होती है । इसीलिए स्थित्याम्नाव में बिन्दु-त्रय के भाग होते
हैं, जिनसे समस्त दक्षिणाम्नाय चक्रों के पद्म आदि श्वेत-बिन्दु
भाग, कोणादि रक्त-बिन्दु भाग तथा अन्य भू-पुर आदि मिश्र-बिन्दु
भाग होते हैं । यह यन्त्र-संकेत है । मतान्तर में काली-यन्त्र
माया-ह्रींकार-गर्भित, बिन्दु, पञ्च-त्रिकोण, षट्-कोण,
वृत्त, अष्ट-दल, वृत्त एवं भू-पुर से युक्त होता है ॥ १०॥
२- दक्षिणाम्नाय
ततोऽवाच्याम्नाये त्वमपि परमे सत्त्व-गुणका
महा-श्यामा भूत्वा निखिल-भुवनं रक्षसि सदा ।
महा-कालाकारः प्रभवति तदा श्रीपर-शिव-
स्तयोरंशोत्पन्नो भरति च जगद्विष्णुरखिलम् ॥ ११॥
हे भगवती परम-स्वरूपा! तदनन्तर दक्षिणाम्नाय में भी
आप जब सत्त्व-गुण-युक्त दक्षिण-काली-रूप महा-श्यामा
बनकर सकल संसार की रक्षा करती हैं, तब श्रीपर-शिव
महा-काल-भैरव-स्वरूप होते हैं तथा आप दोनों के अंश से
उत्पन्न विष्णु सारे जगत् का पालन करते हैं ॥ ११॥
अवाच्यब्जे नौमि स्मर-हर-शवस्थां त्रि-नयनाम्
महा-श्यामा-कालीं जल-धर-निभां मुक्त-चिकुराम् ।
ललज्जिह्वां नग्नां शव-कर-परीधान-सुकटिम्
नृ-मुण्डं खड्गञ्चाभयमपि वरञ्चैव दधतीम् ॥ १२॥
सगुणात्मक भाव-परक अर्थ-दक्षिणाम्नाय में शिव-रूप शव
पर विराजमान, त्रि-नयना मेघ के समान वर्णवाली खुले हुए केशों
से युक्त, चलती हुई जीभवाली, नग्न, शवों के हाथों से ढके हुए
कटि-भागवाली, नृ-मुण्ड, खड्ग, अभय और वरद-मुद्रा को
(अपने चारों हाथों में) धारण की हुई महा-श्यामा काली को मैं
प्रणाम करता हूँ ।
निर्गुण भावात्मक अर्थ-काम-नाशक शव पर सत्ता
के रूप में स्थित अपने साधकों के काम-क्रोधादि का
विनाश करनेवाली, पूर्वोक्त बिन्दु-त्रय-समष्टि-रूपिणी,
शुद्ध-सत्त्व-गुणात्मक तथा चिदाकाश-रूप होने से नील-वर्ण
के रूप में चिन्तनीय, केश-विन्यासादि विलास-रूप विकारों से रहित,
रजो-गुण-रहित शुद्ध-सत्त्वात्मिका, मायातीत, कल्पावसान में
लिंग-देह का आश्रय लेकर सभी जीव स-गुण-ब्रह्म-रूपिणी
भगवती के गर्भ-धारण योग्य उदर के निम्न भाग तथा योनि
के ऊर्ध्व-भाग पर अपने मोक्ष की प्राप्ति के लिए मृत-जीवों
के प्रधान-कर्म-साधन-भूत कर-समूहों से आश्रित, अपने
वाम-हस्त से ज्ञान-खड्ग के द्वारा साधकों के मोह-पाश को
काटकर उसके नीचेवाले द्वितीय हस्त से विगत-रज, तत्त्व-ज्ञान
के आधार-भूत मस्तक को तथा दक्षिण ऊर्ध्व-हस्त से स-काम
साधकों को अभय और अधो-हस्त से अभीष्ट वर प्रदान करनेवाली
महा-श्यामा महा-सगुणात्मिका “क”-ब्रह्मा, “आ”-अनन्त, “ल”-विश्वात्मा
तथा “ई”-सूक्ष्मा इन सबसे युक्त काली को मैं नमन करता हूँ ॥ १२॥
३- पश्चिमाम्नाय
परे बिन्दुः शुद्धो विमलतरयोन्यन्तरगतो
बहिः षट्-कोणख्यं वसु-छदनकं केसर-युतम् ।
सरोजं भू-चक्र-त्रितयमपि दिव्यं सु-विमलम्
यदा यन्त्रं भाति त्वमसि हि तदा श्री-कुल-कुजा ॥ १३॥
हे परा भगवती! अतिशय निर्मल त्रि-कोण के मध्य में स्थित
बिन्दु-चक्र तथा बाहर षट्-कोण, केसर से युक्त अष्ट-दल-कमल
एवं भू-पुर-त्रय से युक्त ऐसा दिव्य उत्तम यन्त्र जब प्रकाशित
होता है अर्थात् पूर्वोक्त मिश्र-बिन्दु इस प्रकार के यन्त्र-रूप
को प्राप्त होता है, तब आप कुब्जिकेश्वरी-रूपा होती हैं । किसी के
मत में केसर-युक्त अष्ट-पत्रों के बाहर अष्ट-कोण तथा उसके
बाहर भू-पुर-त्रय भी है । कादि-मन्तान्तर में जब कुब्जिका
विद्या में ही सभी विद्याओं की समष्टि होती है, तब बिन्दु, त्रि-कोण,
षट्-कोण, केसर-युक्त अष्ट-दल, अष्ट-कोण तथा उसके बाहर
भू-पुर-त्रय से समन्वित यन्त्र को ही कुब्जिका त्रि-रत्न और
पञ्च-रत्न विद्याओं के सर्व-मत में भी श्रीचक्र-राज समझना
चाहिए । इस यन्त्र के त्रि-कोण, षट्-कोण-चक्र, मतान्तर से
अष्ट-कोण-चक्र भी विमर्श के भाग हैं । बिन्दु, केसर-सहित
अष्ट-दल-कमल, भू-पुर-त्रय-चक्र प्रकाश के भाग हैं ।
पूर्वोक्त केवल मिश्र-बिन्दु का संहार होता है । इसलिए यहाँ संहार
आम्नाय-यन्त्र में प्रकाश-विमर्शात्मक मिश्र बिन्दु के प्रकाश और
विमर्श-रूप दो भाग होते हैं, जिससे समस्त पश्चिमाम्नाय चक्रों
के बिन्दु, पद्म, भू-पुर आदि प्रकाश-भाग और कोणादि विमर्श-भाग
हैं । यह यन्त्र-संकेत है ॥ १३॥
प्रतीच्याम्नाये त्वं कुल-जन-नुते श्रीपर-शिवे!
कुजा भूत्वा सर्वं हरसि तमसा स्वीकृत-तनुः ।
कुजेशाकारः सः प्रभवति तदा श्रीपर-शिव-
स्तयोरंशोत्पन्नः प्रलयति स रुद्रोऽखिल-जगत् ॥ १४॥
हे कुल-जनों (कौलिकों) के द्वारा प्रणत श्रीपर-शिवे! पश्चिमाम्नाय
में आप तमो-गुण से स्वीकृत शरीरवाली कुब्जिकेश्वरी होकर समस्त
शिवादि-क्षिति-पर्यन्त जो तत्त्व हैं, उनका संहार करती हैं
और पर-शिव कुब्जेश के रूप में जब स्वच्छन्द ललित-भैरव
रूप बनता है, तब कुब्जेशी और कुब्जेश के अंश से उत्पन्न रुद्र
सारे जगत् का संहार करता है ॥ १४॥
प्रतीच्यम्भोजे वै कुच-भर-नतां बर्बर-शिखाम्
मृगेन्द्राङ्गे रूढां मद-मुदित-वक्त्रां त्रि-नयनाम् ।
नृ-मुण्डानां मालामपि परिदधानां कुल-कुजाम
सहस्रार्काभां त्वां ह्यभय-वरदां नौमि जननि! ॥ १५॥
सगुण भावात्मक अर्थ-हे जननी! पश्चिमाम्नाय में कुचों के
भार से नत, बिखरे हुए बालोंवाली, सिंह पर विराजमान, मद से
मुदित मुखवाली, त्रि-नेत्रा, नर-मुण्डों की माला पहनी हुई, अभय
तथा वरद-मुद्रा से युक्त तथा हजारों सूर्यों के समान तेजस्वी
कुब्जिका-रूप आपको मैं प्रणाम करता हूँ ।
निर्गुण भावात्मक अर्थ-शुक्ल तथा अरुण-रूप बिन्दु-युगल के भार
से नत, मिश्र-बिन्दु में समष्टि-रूप विलीन होने के लिए उद्यत,
विकीर्ण दीप-ज्योति तथा जैसे एक दीप-शिखा से अन्य दीप-शिखा
प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीरी के शरीर में कुण्डलिनी
के रूप में व्याप्त, ज्ञानासना, ज्ञान-सत्ता-रूप, सहस्र-दल-पद्म
से निःसृत लाक्षा-रस-तुल्य कान्तिवाली अमृत-धारा से प्रसन्न
मुखवाली अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति-रूपा बिन्दु-मय समष्टि-रूपिणी
ज्ञान, विवेक और विचार-रूपिणी महा-देवी, अपने भक्तों को
अभय तथा ईप्सित वर प्रदान करने में उद्यत सूर्य-बिन्दु-रूप
संहार-स्वरूपिणी कुल-कुण्डलिनी को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १५॥
४- उत्तराम्नाय
स-बिन्दुस्त्र्यस्राढ्यं शर-नवक-वृत्ताष्ट-दलकैः
सु-वृत्ताष्टार्केन्द्राभिध-नलिन-काष्टाशनि-युतम् ।
शिरश्शूल-ज्वाला-पितृ-वन-युतं यन्त्रमतुलम्
यदा भाति त्वं वै भवसि भुवि गुह्या भगवति! ॥ १६॥
हे भगवती! जब (उत्तराम्नाय में) बिन्दु, त्रि-कोण,
पञ्च-कोण, नव-कोण, वृत्त, अष्ट-दल, द्वादश-दल,
चतुर्दश-दल, आठ वज्रों से युक्त, ऊपर शूल और ज्वाला से युक्त
श्मशान से आवृत्त यन्त्र शोभित होता है, तब आप इस भू-तल
पर गुह्य-काली के रूप में पूज्य होती हैं । यन्त्र संकेत-उक्त
गुह्य-काली यन्त्र के त्रि-कोण, पञ्च-कोण, नव-कोण-चक्र
विमर्श-भाग हैं तथा अन्य सभी चक्र-भाग प्रकाश-भाग
होते हैं । केवल पूर्वोक्त मिश्र-बिन्दु का तिरोधान होता है,
इसलिए अनाख्या-यन्त्र में प्रकाश-विमर्शात्मक मिश्र-बिन्दु के
प्रकाश-विमर्श रूप दो भाग होते है क्योंकि समस्त उत्तराम्नाय
के चक्रों के कोणदि विमर्श-भाग तथा अन्य चक्र प्रकाश-भाग
होते हैं ॥ १६॥
उदीच्याम्नाये त्वं मनु-तनुरनाख्या त्रि-गुणका
परे गुह्या भूत्वाऽऽचरसि हि तिरोधानमखिलम् ।
नृसिंहाकारः सन् निवसति तदा श्रीपर-शिव-
स्तयोरंशोत्पन्नेश्वर इह पिधानं प्रकुरुते ॥ १७॥
हे परा भगवति! आप उत्तराम्नाय में मन्त्र-मय मूर्ति मन और
वचन से अगम्य तथा सत्त्व, रज एवं तमो-रूप त्रि-गुणवाली
गुह्य-काली-रूप होकर समस्त शिवादि-क्षित्यन्त का निश्चित
रूप से तिरोधान करती हैं । उस समय श्रीपर-शिव
नृसिंहाकार-नारसिंह भैरव-रूप बनते हैं और उन
गुह्येश्वरी तथा गुह्येश्वर के अंग से उत्पन्न ईश्वर इस
संसार में तिरोधान-संहार कर्म करते हैं । किसी के मत
में उत्तराम्नाय अनाख्या-रूप तथा उर्धाम्नाय भासा-रूप कहा गया
है, जब कि अन्य मत में ऊर्ध्वाम्नाय भासा-रूप कहा जाता है किन्तु
वड़वानल-तन्त्र में तो इन दोनों आम्नायों का एक तत्त्व ही प्रतिपादित
है । यथा-महा-त्रिपुर-सुन्दरी और चण्ड-योगेश्वरी परा-इन
दोनों में कोई भेद नहीं है । इनमें भेद करनेवाला नरक-गामी
होता है । पूर्वोक्त योनि बिन्दु एवं विसर्ग की सगुण मूर्ति उत्तराम्नाय
मत में “काम-कला-काली” तथा ऊर्ध्वाम्नाय मत में बृहद्-रूपा
महा-त्रिपुर-सुन्दरी हैं, ऐसा बड़वानल-तन्त्र कहता है । इस
तन्त्रोक्त महा-त्रिपुर-सुन्दरी के भैरव के पञ्च-मुख-रूप
में बीचवाला मुख ही सिंह-रूप है, ऊर्ध्व-ज्योति मुख में तो
सिद्धि-कराली मानी गई हैं । वड़वानल-तन्त्रोक्त निर्वाण-भैरव
के ध्यान में उपर्युक्त बात कही गई है तथा महा-काल-संहिता के
गुह्य-खण्ड में सिद्धि-कराली के भैरव नारसिंह भैरव बताये
गए हैं ॥ १७॥
मृगेन्द्रेभाश्वर्क्षाख्य-मकर-गरुत्मानव-शिव-
प्लवङ्गेशी-वक्त्रां श्रुति-शर-भुजैरायुध-धराम् ।
उदीच्याम्भोजे त्वां विधु-सकल-चूडां घन-निभाम्
भजेऽहं गुह्येशीमभिनव-वयस्कां भगवति! ॥ १८॥
सगुण भावात्मक अर्थ-हे भगवति! उत्तराम्नाय में सिंह, हाथी,
अश्व, भालू, मकर, गरुड़, मनुष्य, शृगाल, वानर और योगेश्वरी
के मुखोंवाली, चौवन भुजाओं में आयुधों को धारण करनेवाली,
चन्द्र-कला-धारिणी, श्याम-वर्ण तथा युवति-स्वरूप ऐसी
सिद्धि-कराली-रूप आपका मैं स्मरण करता हूँ ।
निर्गुण भावात्मक अर्थ-हे भगवति! उत्तराम्नाय में ज्ञान-शक्ति,
आधार-शक्ति, वेग-शक्ति, भूचर-शक्ति, जलचर-शक्ति,
खेचर-शक्ति, चैतन्य-शक्ति, धी-शक्ति, आरोह-अवरोह
करनेवाली कुण्डलिनी-शक्ति और योग-शक्ति जिस विराट्-रूप के मुख
हैं, मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार सहित पचास अक्षर-रूप
मातृका-रूप चौवन भुजाओं में आयुधों को धारण करनेवाली
परमामृत-रूपिणी विश्वम्भरा, घन के समान, दया-मयी और विश्व
को पुनः बाहर निकालने के लिए उद्यत अतीव गुप्त अनाख्या-स्वरूपिणी
आपकी मैं शरण प्राप्त करता हूँ ॥ १८॥
५- ऊर्ध्वाम्नाय
स-बिन्दु-त्र्यष्टादिग्युगल-मनु-कोणाष्ट-विधुक-
त्रि-वृत्त-ज्यागेह-त्रितय-युत-यन्त्रं लसति ते ।
तदा कामेशी त्वं जननि! निखिलाम्नाय-निलया
परे! श्रीविद्याख्या भवसि कुल-पूज्या क्रम-युता ॥ १९॥
हे परा-देवी! जब आपका सर्वानन्द-मय वैन्दव विन्दु-चक्र,
सर्व-सिद्धि-प्रद त्रि-कोण-चक्र, सर्व-रोग-हर अष्टम-चक्र,
सर्व-रक्षा-कर अन्तर्दशार-चक्र, सर्वार्थ-साधन-कर
बहिर्दशार-चक्र, सर्वार्थ-दायक चतुर्दशार-चक्र,
सर्व-संक्षोभण अष्ट-दल-चक्र, सर्वाशा-परि-पूरक
षोडश-दल-चक्र, त्रै-वर्ग-साधन-कर त्रि-वृत्त-चक्र
तथा त्रैलोक्य-मोहन-कर भू-पुर-त्रय-चक्र से युक्त
आपका यन्त्र प्रकाश को प्राप्त होता है, तब पूर्व-कथित
काम-कला और ललनाकार से मिश्र-बिन्दु के ऊपर उठने पर वह
श्री-चक्र-रूप को प्राप्त होता है । तब आप कुलाचार से पूज्य तथा
क्रम-मन्त्र-समष्टि-रूपिणी समस्त आम्नाय-निलया सर्वाम्नायेश्वरी
श्रीविद्या-रूपा श्रीमहा-त्रिपुर-सुन्दरी-रूप होती हैं । उक्त
यन्त्र-राज के १. सृष्टि, २. स्थिति और ३. संहार-रूप से
तीन क्रम होते हैं । इसमें विन्दु, अष्ट-दल, षोडश-दल,
वृत्त-त्रय और भू-पुर-चक्र ये पाँच शिव-चक्र
हैं, इसीलिए ये प्रकाशांश हैं । इसी प्रकार त्रि-कोण, अष्ट-कोण,
दश-कोण-द्वय तथा चतुर्दशार ये पाँच चक्र शक्ति-चक्र
हैं, अतः ये विमर्शांश हैं । यह यन्त्र-संकेत है ॥ १९॥
सदा-शिवः
महोर्ध्वाख्ये भाषा सु-वचन-मनो-गम्य-तनु-युक्
परे! त्वं श्रीर्भूत्वाऽऽचरसि निखिलानुग्रहमलम् ।
तदा निर्वाणाख्यः प्रभवति परः काम-तनुमान्
तयोरंशोत्पन्नः शमनुत-नुते पञ्च-वदनः ॥ २०॥
हे परा-देवी!, जब आप महोर्ध्वाम्नाय में मन और वचन से अगम्य
भाषा-रूप श्रीविद्या-मय महा-त्रिपुर-सुन्दरी-रूप होकर पुनः
बाह्य प्रकटन-रूप पूर्ण अनुग्रह करती हो, तब चिद्-घन-निष्ठ
निर्वाण-भैरव कामेश्वर-रूप हो जाते हैं और काम तथा
कामेश्वर के अंश से उत्पन्न पञ्च-वक्त्र सदा-शिव पूर्व-वत्
अनुग्रह करते हैं ॥ २०॥
महोर्ध्वाम्नाये त्वां क्रमग-निखिलाम्नाय-जननीम्
हठाचारैर्लभ्यां कहस-मनु-रूपां त्रि-पथगाम् ।
हकारार्धां सार्धामकुल-कुलमार्गाभ्यसनिनीम्
महा-पञ्च-प्रेतोपरि रुचिरसिंहासन-गताम् ॥ २१॥
सहस्रादित्याभामरुण-वासनां मन्द्र-हसनाम्
त्रि-नेत्रास्यां पाशाङ्कुश-कुसुम-बाणैक्षवधराम् ।
निशानाथोत्तंसां जित-मदन-रूपाञ्च युवतीम्
भजेऽहं श्रीविद्ये! त्रिपुर-ललितां श्रीपद-युताम् ॥ २२॥
हे श्रीविद्या देवी!, महान् ऊर्ध्वाम्नाय-रूप प्रसिद्ध सिंहासन
पर क्रम-दीक्षा-गत समस्त आम्नायों की जनक, कादि, हादि और
सादि-मत-रूप मन्त्र-मय शरीर, ब्रह्म-रन्ध्र-मण्डल
से मूलाधार तक तथा पुनः वहाँ से ब्रह्म-रन्ध्र तक
आरोहावरोह-क्रम से विचरण करनेवाली, ह-श्वास एवं
ठ-उच्छ्वास-रूप क्रियाभ्यास से प्राप्य, इड़ा-पिंगला और
सुषुम्णादि तीन नाड़ियों में सञ्चरणशील, हकारार्ध तथा सार्ध
समाधि में प्रासाद बीज के उभयाक्षर-रूपिणी, अतएव सचैतन्य
प्रकाश-विमर्शात्मिका, पञ्च-महा-प्रेत-पृथ्व्यात्मक ब्रह्मा,
जलात्मक विष्णु, तेजसात्मक रुद्र, वाय्वात्मक ईश्वर तथा
आकाशात्मक सदा-शिव (सगुण भाव से मञ्च के ब्रह्मादि चार
खुर और सदा-शिव फलक), निर्गुण भाव से पृथ्व्यादि पाँचों
तत्त्वों का ग्रास करके साक्षात् चैतन्य-रूपिणी सुन्दर पीठ पर
विराजमान, अथवा योगाभ्यास मत से पञ्च-भूतात्मक मूलाधार,
स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत और विशुद्ध-चक्र के ऊपर इड़ा,
पिंगला और सुषुम्णादि तीन नाड़ियों के स्पन्दी-रूप आज्ञा-चक्र
में विराजमान, परमात्म-स्वरूपिणी श्रीमहा-त्रिपुर-सुन्दरी, हजारों
सूर्य के समान कान्ति-मयी (सगुण भाव में सहस्रार्क-वत् तेजस्विनी
अरुण-वर्णा, निर्गुण-भाव में- प्रकाशान्तर्गत विमर्श-रूपिणी)
, काम-देव के स्वरूप को तिरस्कृत करनेवाली (सगुण-भाव
में-अत्यन्त सुन्दर, निर्गुण भाव में विश्व पर-सृष्टि के
कारण-भूत अनुग्रह को करनेवाली) युवती (निर्गुण-भाव में विश्व
को पुनः स्व-गर्भ से प्रकट करनेवाली), सूर्य-चन्द्राग्नि-रूप
तीनों नेत्रों से युक्त मुखवाली (निर्गुण-भाव में-बिन्दु-त्रय
समष्टि-रूपिणी काम-कलात्मिका), गम्भीर हास्यवाली (निर्गुण-भाव
में-आनन्द-रूप), अर्ध-चन्द्र-युक्त मुकुट-धारिणी
(निर्गुण-भाव में-परमामृत-स्वरूपिणी विश्वभ्भरा),
रक्त-वस्त्रा (निर्गुण-भाव में-सूर्य-रूप अरुण प्रकाश से
आवृत्त विमर्श-शक्ति), पाश, अंकुश, पुष्प-बाण एवं
इक्षु-चाप से विभूषित (निर्गुण-भाव में १. जगद्वशीकरण,
२. जगत्-स्तम्भन,३. शोषण, मोहन, सन्दीपन, ४. तापन तथा
५. मादन-रूप पाँच पुष्प-बाण-रूप जगत्-जृम्भण एवं
जगन्मोहनकारी आयुधों से विभूषित), शुक्ल, अरुण और मिश्र
बैन्दवात्मक तथा स्थूल-सूक्ष्म एवं कारण-देह के समाहार-रूप
त्रिपुर की शक्ति श्रीत्रिपुर-सुन्दरी का मैं स्मरण करता हूँ ॥ २१-२२॥
६- अधराम्नाय
कदाचिद्-बिन्दूनां विविध-ललना-सार-मथनात्
सु-षट्-कोणं स्पष्टं वसु-दल-युतं रम्य-कमलम् ।
चतुर्द्वारोपेतं यदि भवति यन्त्रं पर-शिवे!
तदा योगेशी त्वं भवसि किल वज्रेति पद-युक् ॥ २३॥
हे परादेवी! किसी समय पूर्वोक्त शुक्ल, अरुण और मिश्र बिन्दुओं के
विविध ललना-सार के मथन से व्यक्त षट्-कोण, अष्ट-दल से
युक्त उत्तम कमल, चार द्वारों से भूषित भू-पुरवाला यन्त्र जब
बनता है, तब आप वज्र-योगिनी-रूप बनती हैं ॥ २३॥
पुरोक्ताम्नायेभ्यः प्रभवदधराम्नाय-विषये
परे वज्रा भूत्वा लससि भुवने चीन-मतगा ।
तदाऽक्षोभ्याकारः प्रभवति परो नाग-तनु-मान्
षडाम्नायाश्चेत्थं गिरिश-रस-वक्त्रैः समुदिताः ॥ २४॥
हे परे! पहले कहे गए पाँच आम्नायों से उत्पन्न अधराम्नाय में आप
जब विश्व में चीन-क्रम से पूज्य वज्र-योगिनी-रूप होकर शोभित
होती हैं, तब श्री पर-शिव नाग-शरीरी अक्षोभ्य-रूप होते हैं ।
इस प्रकार भगवान् शिव के छह मुख (छह आम्नायों के रूप में)
व्यक्त होते हैं ॥ २४॥
अधः पद्मे वज्रां त्रि-वदन-युतां मुक्त-चिकुराम्
सु-रत्नाढ्यां सिंहाजिनमभिदधानामरुणभाम् ।
कपालं खट्वाङ्गं डमरुमपि कर्त्रीं श्रुति-करै-
र्धृतांंत्वामीडेऽहं मनसि शवगां नृत्य-चरणाम् ॥ २५॥
अधराम्नाय में त्रि-मुखी, मुक्त-केशी, उत्तम-रत्न (के आभरणों)
से युक्त, सिंह के चर्म को धारण की हुई, अरुण कान्तिवाली, चार
भुजाओं में महा-शंख का पात्र, खट्वांग, डमरु और कर्त्रिका
को धारण की हुई, शवासना तथा नृत्य के लिए प्रयुक्त चरणोंवाली
वज्र-योगिनी देवी की मैं मन से स्तुति करता हूँ ॥ २५॥
अधश्चीनार्च्या त्वं यम-दिशि कुलागार-ललनात्
प्रसन्ना वै पूर्वे मनुजपबलाच्चोत्तर-दिशि ।
शिवाबल्यर्च्याऽऽद्ये! सु-मममममैः पश्चिम-दिशि
स्फुरस्यूर्ध्वे मातः कुलज-मनसि न्यास-सहितैः ॥ २६॥
हे आदि-शक्ति माता! आप अधराम्नाय में चीन-क्रम से पूज्य
हैं, दक्षिणाम्नाय में कुल-सन्ध्या-विधान से सन्तुष्ट होती हैं ।
पूर्वाम्नाय में निश्चय ही मन्त्र-जप के बल से प्रसन्न होती
हैं । उत्तराम्नाय में शिवा-वलि-विधि से सन्तुष्ट होती हैं ।
पश्चिमाम्नाय में पञ्च-मकार-संयुक्त अर्चना से सन्तुष्ट
होती हैं । ये पञ्च-मकार दक्षाचारवालों के लिए १. मनन,
२. मन्त्र, ३. मौन, ४. मनो-योग और ५. मुद्रा-रूप हैं तथा
वामाचार साधकों के लिए १. मद्य, २. मांस,३, मत्स्य, ४. मैथुन
(कुण्डगोलादि) तथा ५. मुद्रा हैं । ऊर्ध्वाम्नाय में महा-षोढादि
विविध न्यासों से कुलीनों के चित्त में स्फुरित होती हैं ॥ २६॥
अवैत्येकाम्नायं यदि कुल-जनो भाव-सहितः
स मुक्तः स्याद् भुक्त्वा भुवि विविध-भोगान् भगवति ।
पुनः किं वक्तव्यं जननि! चतुराम्नाय-विदुषो
महोर्ध्वाम्नायज्ञः कथमिह भवेत् स्तुत्य इतरैः ॥ २७॥
हे भगवती माता! यदि पूर्वोक्त दिव्य वीरादि-भावों से युक्त कौल एक
आम्नाय को ही जानता है, तो वह संसार में अनेक प्रकार के सुख,
ऐश्वर्य-विलासों को भोगकर अन्त में मुक्ति को प्राप्त होता है,
फिर चतुराम्नायों के ज्ञाता के बारे में क्या कहा जा सकता है तथा
ऊर्ध्वाम्नाय-षडाम्नाय क्रम के ज्ञाता की तो इस संसार में सामान्य
मनुष्यों से स्तुति भी क्या की जा सकती है अर्थात् उसकी महिमा का
वर्णन अशक्य है ॥ २७॥
इति श्रीपरापूजाप्रकाशस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
Found a Mistake or Error? Report it Now