|| जीवित्पुत्रिका पूजा विधि ||
- जीवित्पुत्रिका व्रत के पहले दिन महिलाएं सुबह जल्दी उठकर, सूर्योदय से पहले स्नान करती हैं और फिर पूजा करती हैं। इसके बाद वे एक बार भोजन करती हैं।
- दूसरे दिन सुबह फिर से स्नान करने के बाद महिलाएं पूजा करती हैं और पूरा दिन बिना पानी पिए यानी निर्जला व्रत रखती हैं।
- तीसरे दिन व्रत का पारण होता है। महिलाएं सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही कुछ खाती हैं।
- इस दिन खास तौर पर झोर भात, मरुवा की रोटी और नोनी का साग खाया जाता है।
- अष्टमी के दिन, प्रदोषकाल में महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं। जीमूतवाहन की प्रतिमा कुशा से बनाई जाती है और इसे धूप, दीप, अक्षत, फूल और फल चढ़ाकर पूजा की जाती है।
- साथ ही, मिट्टी और गोबर से सियारिन और चील की प्रतिमा बनाई जाती है। प्रतिमा बनने के बाद उसके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है।
- पूजा खत्म होने के बाद, महिलाएं जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनती हैं।
|| जीवित्पुत्रिका व्रत कथा ||
पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार एक गरुड़ और एक मादा लोमड़ी नर्मदा नदी के पास एक जंगल में रहते थे। दोनों ने कुछ महिलाओं को पूजा करते और उपवास करते देखा और खुद भी इसे देखने की कामना की। उनके उपवास के दौरान, लोमड़ी भूख के कारण बेहोश हो गई और चुपके से भोजन कर लिया।
दूसरी ओर, चील ने पूरे समर्पण के साथ व्रत का पालन किया और उसे पूरा किया। परिणामस्वरूप लोमड़ी से पैदा हुए सभी बच्चे जन्म के कुछ दिन बाद ही खत्म हो गए और चील की संतान लंबी आयु के लिए धन्य हो गई। इस कथा के अनुसार जीमूतवाहन गंधर्व के बुद्धिमान और राजा थे।
जीमूतवाहन शासक बनने से संतुष्ट नहीं थे और परिणामस्वरूप उन्होंने अपने भाइयों को अपने राज्य की सभी जिम्मेदारियां दीं और अपने पिता की सेवा के लिए जंगल में चले गए। एक दिन जंगल में भटकते हुए उन्हें एक बुढ़िया विलाप करती हुई मिलती है।
उन्होंने बुढ़िया से रोने का कारण पूछा। इसपर उसने उसे बताया कि वह सांप (नागवंशी) के परिवार से है और उसका एक ही बेटा है। एक शपथ के रूप में हर दिन एक सांप पक्षीराज गरुड़ को चढ़ाया जाता है और उस दिन उसके बेटे का नंबर था।
उसकी समस्या सुनने के बाद जिमूतवाहन ने उन्हें आश्वासन दिया कि वह उनके बेटे को जीवित वापस लेकर आएंगे। तब वह खुद गरुड़ का चारा बनने का विचार कर चट्टान पर लेट जाते हैं। तब गरुड़ आता है और अपनी अंगुलियों से लाल कपड़े से ढंके हुए जिमूतवाहन को पकड़कर चट्टान पर चढ़ जाता है।
उसे हैरानी होती है कि जिसे उसने पकड़ा है वह कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दे रहा है। तब वह जिमूतवाहन से उनके बारे में पूछता है। तब गरुड़ जिमूतवाहन की वीरता और परोपकार से प्रसन्न होकर सांपों से कोई और बलिदान नहीं लेने का वादा करता है। मान्यता है कि तभी से ही संतान की लंबी उम्र और कल्याण के लिए जितिया व्रत मनाया जाता है।
|| जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा – 2 ||
पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक समय की बात है, गंधर्वों के राजकुमार जीमूतवाहन अपने परोपकार और पराक्रम के लिए जाने जाते थे। एक बार जीमूतवाहन के पिता उन्हें राजसिंहासन पर बिठाकर वन में तपस्या के लिए चले गए। लेकिन उनका मन राज-पाट में नहीं लगा, जिसके चलते वे अपने भाइयों को राज्य की जिम्मेदारी सौंप कर अपने पिता के पास उनकी सेवा के लिए चले जा पहुंचे, जहां उनका विवाह मलयवती नाम की कन्या से हुआ।
एक दिन भ्रमण करते हुए उनकी भेंट एक वृद्ध स्त्री से हुई, जो नागवंश से थी। वह बहुत ज्यादा दुखी और डरी हुई थी। उसकी ऐसी हालत देखकर जीमूतवाहन ने उनका हाल पूछा, जिसपर उस वृद्धा ने कहा कि नागों ने पक्षीराज गरुड़ को यह वचन दिया है कि वे प्रत्येक दिन एक नाग को उनके आहार के रूप में उन्हें देंगे। उस स्त्री ने रोते हुए बताया कि उसका एक बेटा है, जिसका नाम शंखचूड़ है। आज उसे पक्षीराज गरुड़ के पास आहार के रूप में जाना है।
जैसे जीमूतवाहन ने वृद्धा की हालत देखी उन्होंने उसे आश्वासन दिया कि वो उसके पुत्र के प्राणों की रक्षा जरूर करेंगे। अपने कहे हुए वचनों के अनुसार, जीमूतवाहन पक्षीराज गरुड़ के समक्ष गए और गरुड़ उन्हें अपने पंजों में दबोच कर साथ ले गए। उस दौरान उन्होंने जीमूतवाहन के कराहने की आवाज सुनी और वे एक पहाड़ पर रुक गए, जहां जीमूतवाहन ने उन्हें पूरी घटना बताई।
तब पक्षीराज उनके साहस और परोपकार को देखकर दंग रह गए और प्रसन्न होकर उन्होंने जीमूतवाहन को प्राणदान दे दिया। साथ ही उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि वे अब किसी नाग को अपना आहार नहीं बनाएंगे। तभी से संतान की सुरक्षा और उन्नति के लिए जीमूतवाहन की पूजा का विधान है, जिसे लोग आज जितिया व्रत के नाम से भी जानते हैं। कहा जाता है कि इस कथा के बिना जितिया व्रत (Jivitputrika Parv Ke Niyam) अधूरा होता है, इसलिए इसका पाठ जरूर करना चाहिए।
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