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क्या है बंगाल की विजयादशमी का रहस्य? दुर्गा विसर्जन और सिंदूर खेला की कथा

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पूरे भारत में नवरात्रि और विजयादशमी का पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है। जहाँ उत्तर भारत में रावण दहन (Burning of Ravana Effigy) की परंपरा है, वहीं बंगाल में इस दिन का एक अलग ही, अत्यंत भावनात्मक और सांस्कृतिक महत्व है। बंगाल की विजयादशमी, जिसे बंगाली समाज ‘बिजोया दशमी’ (Bijoya Dashami) कहते हैं, माँ दुर्गा की महिषासुर पर विजय और उनके कैलाश पर्वत वापस लौटने का उत्सव है। यह उत्सव केवल जीत का नहीं, बल्कि विदाई के आँसुओं और अगले साल फिर मिलने की आस का भी है। इस दिन दो प्रमुख रस्में निभाई जाती हैं: दुर्गा विसर्जन और सिंदूर खेला।

विजयादशमी का रहस्य – माँ का मायका प्रवास

बंगाल की मान्यताओं के अनुसार, शारदीय नवरात्रि के दौरान माँ दुर्गा (पार्वती) अपने चार बच्चों – गणेश, कार्तिक, लक्ष्मी और सरस्वती के साथ – कैलाश पर्वत से पृथ्वी पर स्थित अपने मायके आती हैं। यह 10 दिन का समय एक बेटी के मायके में रहने जैसा ही होता है, जहाँ उन्हें खूब लाड़-प्यार और पूजा-अर्चना मिलती है।

विजयादशमी वह दिन है जब माँ की यह अल्पकालिक छुट्टी समाप्त होती है और वह अपने पति, भगवान शिव, के पास कैलाश वापस लौटती हैं। यह भक्तों के लिए अत्यंत भावुक क्षण होता है। इसलिए, विजयादशमी को देवी दुर्गा के लिए एक मंगल विदाई उत्सव (Farewell Ceremony) के रूप में मनाया जाता है।

दुर्गा विसर्जन – जल में समाहित शक्ति

दुर्गा पूजा का सबसे प्रतीकात्मक और अंतिम चरण है दुर्गा विसर्जन (Durga Visarjan)। विजयादशमी के दिन, ढोल-नगाड़ों और ‘शुभ बिजोया’ (Shubho Bijoya – Happy Bijoya) के जयघोष के बीच, माँ दुर्गा की मिट्टी की प्रतिमाओं को नदियों, तालाबों या अन्य जलस्रोतों में विसर्जित किया जाता है।

क्या है इसका आध्यात्मिक महत्व?

  • रूप से अरूप में परिवर्तन – यह अनुष्ठान इस बात का प्रतीक है कि नश्वर संसार में सब कुछ क्षणभंगुर (Transitory) है। मिट्टी की प्रतिमाएँ पंच तत्वों से बनी हैं और विसर्जन के माध्यम से वे वापस उन्हीं तत्वों में विलीन हो जाती हैं। यह दर्शाता है कि देवी का भौतिक स्वरूप (Physical Form) भले ही चला जाए, लेकिन उनकी शक्ति और ऊर्जा (Shakti and Energy) हमेशा ब्रह्मांड में व्याप्त रहती है।
  • घर वापसी – विसर्जन माँ दुर्गा की उनके ससुराल यानी कैलाश पर्वत की यात्रा का प्रतीक है। भक्त उन्हें भावभीनी विदाई देते हैं और यह कामना करते हैं कि वे अगले साल फिर से उनके घर आएं।

सिंदूर खेला – सौभाग्य और मंगलकामना का उत्सव

दुर्गा विसर्जन से ठीक पहले, बंगाली विवाहित महिलाओं द्वारा जो सबसे अनूठी और रंगीन रस्म निभाई जाती है, वह है सिंदूर खेला (Sindoor Khela)। इस रस्म का न केवल धार्मिक बल्कि गहरा सामाजिक महत्व भी है।

सिंदूर खेला की कथा और इतिहास

इस परंपरा की शुरुआत को लेकर कोई निश्चित लिखित प्रमाण नहीं है, लेकिन माना जाता है कि इसकी शुरुआत बंगाल में लगभग 450 वर्ष पूर्व हुई थी।

परंपरा का निर्वहन (Observance of the Ritual)

  • माँ का श्रृंगार और विदाई – विवाहित महिलाएँ पारंपरिक सफेद और लाल रंग की साड़ी पहनकर पूजा पंडाल में एकत्रित होती हैं। सबसे पहले, वे पान के पत्तों से माँ दुर्गा के गालों का स्पर्श करती हैं और उन्हें मिठाई खिलाती हैं (माना जाता है कि मायके से विदा हो रही बेटी का मुंह मीठा कराया जाता है)। इसके बाद, वे माँ की मांग और माथे पर सिंदूर लगाती हैं, मानो उन्हें सुहागन के रूप में विदा कर रही हों।
  • सौभाग्य का खेल (The Play of Good Fortune) – माँ को सिंदूर अर्पित करने के बाद, ये महिलाएँ एक-दूसरे को सिंदूर लगाती हैं। वे एक-दूसरे के माथे, गालों और हाथों पर सिंदूर लगाकर अखंड सौभाग्य, सुखद वैवाहिक जीवन (Marital Bliss) और पति की लंबी उम्र की कामना करती हैं। यह रस्म उल्लास, हँसी और आनंद से भरी होती है।
  • बंधन और भाईचारा – सिंदूर खेला केवल पति की लंबी उम्र का पर्व नहीं है। यह महिलाओं के बीच एक अटूट बंधन (Unbreakable Bond) और भाईचारे (Sisterhood) को भी दर्शाता है। यह एक-दूसरे के प्रति मंगलकामना और सामाजिक एकजुटता (Social Unity) का प्रतीक है।

आधुनिक बदलाव और सामाजिक समावेश (Social Inclusion)

परंपरागत रूप से, सिंदूर खेला केवल विवाहित महिलाओं के लिए आरक्षित था। लेकिन समय के साथ आए सामाजिक बदलावों के कारण अब कई पंडालों में विधवाओं, तलाकशुदा महिलाओं, और यहाँ तक कि किन्नर समुदाय (Transgender Community) की महिलाओं को भी सिंदूर खेला में शामिल किया जाने लगा है। यह बदलाव इस उत्सव को अधिक समावेशी (Inclusive) और आधुनिक रूप से प्रासंगिक बनाता है, यह दर्शाते हुए कि सौभाग्य का आशीर्वाद हर महिला का अधिकार है।

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