|| दोहा ||
अपना मस्तक काट कर लीन्ह हाथ में थाम।
कमलासन पर पग तले दलित हुए रतिकाम।।
जगतारण ही काम है, रजरप्पा है धाम।
छिन्नमस्तका को करूं बारंबार प्रणाम।।
|| चौपाई ||
जय गणेश जननी गुण खानी।
जयति छिन्नमस्तका भवानी।।
गौरी सती उमा रुद्राणी।
जयति महाविद्या कल्याणी।।
सर्वमंगला मंगलकारी।
मस्तक खड्ग धरे अविकारी।।
रजरप्पा में वास तुम्हारा।
तुमसे सदा जगत उजियारा।।
तुमसे जगत चराचर माता।
भजें तुम्हें शिव विष्णु विधाता।।
यति मुनीन्द्र नित ध्यान लगावें।
नारद शेष नित्य गुण गावें।
मेधा ऋषि को तुमने तारा।
सूरथ का सौभाग्य निखारा।।
वैश्य समाधि ज्ञान से मंडित।
हुआ अंबिके पल में पंडित।।
रजरप्पा का कण-कण न्यारा।
दामोदर पावन जल धारा।।
मिली जहां भैरवी भवानी।
महिमा अमित न जात बखानी।।
जय शैलेश सुता अति प्यारी।
जया और विजया सखि प्यारी।।
संगम तट पर गई नहाने।
लगी सखियों को भूख सताने।।
तब सखियन ने भोजन मांगा।
सुन चित्कार जगा अनुरागा।।
निज सिर काट तुरत दिखलाई।
अपना शोणित उन्हें पिलाई।।
तबसे कहें सकल बुध ज्ञानी।
जयतु छिन्नमस्ता वरदानी।।
तुम जगदंब अनादि अनन्ता।
गावत सतत वेद मुनि सन्ता।।
उड़हुल फूल तुम्हें अति भाये।
सुमन कनेर चरण रज पाये।।
भंडारदह संगम तट प्यारे।
एक दिवस एक विप्र पधारे।
लिए शंख चूड़ी कर माला।
आयी एक मनोरम बाला।।
गौर बदन शशि सुन्दर मज्जित।
रक्त वसन शृंगार सुसज्जित।।
बोली विप्र इधर तुम आओ।
मुझे शंख चूड़ी पहनाओ।।
बाला को चूड़ी पहनाकर।
चला विप्र अतिशय सुख पाकर।।
सुनहु विप्र बाला तब बोली।
जटिल रहस्य पोटली खोली।।
परम विचित्र चरित्र अखंडा।
मेरे जनक जगेश्वर पंडा।।
दाम तोहि चूड़ी कर देंगे।
अति हर्षित सत्कार करेंगे।।
पहुंचे द्विज पंडा के घर पर।
चकित हुए वह भी सब सुनकर।।
दोनों भंडार दह पर आये।
छिन्नमस्ता का दर्शन पाये।।
उदित चंद्रमुख शोषिण वसनी।
जन मन कलुष निशाचर असनी।।
रक्त कमल आसन सित ज्वाला।
दिव्य रूपिणी थी वह बाला।।
बोली छिन्नमस्तका माई।
भंडार दह हमरे मन भाई।।
जाको विपदा बहुत सतावे।
दुर्जन प्रेत जिसे धमकावे।।
बढ़े रोग ऋण रिपु की पीरा।
होय कष्ट से शिथिल शरीरा।।
तो नर कबहूं न मन भरमावे।
तुरत भाग रजरप्पा आवे।।
करे भक्ति पूर्वक जब पूजा।
सुखी न हो उसके सम दूजा।।
उभय विप्र ने किन्ह प्रणामा।
पूर्ण भये उनके सब कामा।।
पढ़े छिन्नमस्ता चालीसा।
अंबहि नित्य झुकावहिं सीसा।।
ता पर कृपा मातु की होई।
फिर वह करै चहे मन जोई।।
मैं अति नीच लालची कामी।
नित्य स्वार्थरत दुर्जन नामी।।
छमहुं छिन्नमस्ता जगदम्बा।
करहुं कृपा मत करहुं विलंबा।।
‘विनय’ दीन आरत सुत जानी।
करहुं कृपा जगदंब भवानी।।
|| दोहा ||
जयतु वज्र वैरोचनी, जय चंडिका प्रचंड।
तीन लोक में व्याप्त है, तेरी ज्योति अखंड।।
छिन्नमस्तके अम्बिके, तेरी कीर्ति अपार।
नमन तुम्हें शतबार है, कर मेरा उद्धार।।
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