|| विघ्नेश्वर चतुर्थी व्रत कथा (Vighneshwar Chaturthi Vrat Katha PDF) ||
सुदन्त ब्राह्मण को परम शान्ति और पुत्र-प्राप्ति की दिव्य कथा
प्राचीन काल में एक समय अयोध्या नरेश राजा दशरथ ने अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ से विनम्र भाव से कहा – “हे गुरुदेव! आपने मार्गशीर्ष मास की शुक्लपक्ष चतुर्थी के व्रत का माहात्म्य विस्तारपूर्वक बताया, जिससे मैं अत्यंत संतुष्ट हुआ हूँ। अब कृपा करके पौष मास की वरदायक शुक्लपक्ष चतुर्थी, जिसे विघ्नेश्वर चतुर्थी कहा जाता है, उसके माहात्म्य का वर्णन कीजिए।”
महर्षि वशिष्ठ बोले –
“हे राजन्! पौष मास की शुक्लपक्ष चतुर्थी का माहात्म्य अत्यंत विशाल और फलदायी है। उसका संपूर्ण वर्णन तो भूलोक में किसी के लिए भी संभव नहीं है, फिर भी मैं उसका सार तुम्हें सुनाता हूँ।”
महर्षि वशिष्ठ कथा आरंभ करते हुए बोले – “पूर्वकाल में अवन्ती नगरी में एक अत्यंत श्रेष्ठ, धर्मनिष्ठ और वेद-शास्त्रों में पारंगत ब्राह्मण रहते थे, जिनका नाम सुदन्त था। वे नीतिवान, संयमी और सत्यनिष्ठ थे। उनकी पत्नी विलासिनी भी पतिव्रता, सदाचारी और पुण्यशीला थीं।
सुदन्त, अवन्ती नरेश राजा बृहद्रथ के राजपुरोहित थे। राजा उनके निर्देशानुसार ही राज्य का संचालन करता था और धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करता था।
सुदन्त के जीवन में धन, मान और प्रतिष्ठा की कोई कमी नहीं थी, किंतु कर्मदोषवश वे संतानहीन थे। उनकी पत्नी गर्भधारण तो करती थी, परंतु संतान जन्म लेते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती थी। इस दुःख से व्यथित होकर सुदन्त ने अनेक व्रत, दान, यज्ञ और पुण्यकर्म किए, किंतु उन्हें संतान सुख की प्राप्ति नहीं हुई।
अंततः दुःखी होकर वे अपनी पत्नी सहित वन में चले गए और वहीं मृत्यु की कामना से कठोर तपस्या करने लगे।”
उसी समय वहाँ योगियों के पूजनीय महामुनि वामदेव पधारे। उनके दर्शन मात्र से ही वातावरण पवित्र हो गया। सुदन्त ने श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम कर पूजन किया और कहा –
“हे महामुनि! आपके दर्शन से मेरा जीवन धन्य हो गया। किंतु मैं पुत्रहीन हूँ। कृपया बताइए कि पुत्रहीन मनुष्य की मृत्यु के बाद क्या गति होती है?”
वामदेव जी बोले – “हे विप्रवर! तुम धर्मात्मा हो, किंतु तुम्हारे इस दुःख का कारण सुनो। तुम राजा बृहद्रथ के पुरोहित हो, इसलिए राजा द्वारा किए गए दोष का अंश तुम्हें भी भोगना पड़ रहा है। समस्त भूलोक में चतुर्थी व्रत का लोप हो गया है। इसी कारण लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों से वंचित हो रहे हैं।”
यह सुनकर सुदन्त ने विनती की – “हे मुनिवर! कृपा करके उस चतुर्थी व्रत का माहात्म्य बताइए, जो चारों पुरुषार्थों को प्रदान करता है।”
महामुनि वामदेव ने सुदन्त को भगवान गणेश के स्वरूप का ज्ञान कराते हुए कहा – “भगवान गणेश ही पूर्ण योगशान्ति प्रदान करने वाले हैं। ‘ग’ अक्षर से ज्ञान और ‘ण’ अक्षर से निवृत्ति का बोध होता है। इन दोनों अक्षरों के स्वामी भगवान गणेश हैं। वे योगस्वरूप हैं और स्वयं शान्त होकर भी शान्ति प्रदान करते हैं।”
महामुनि वामदेव ने बताया कि उन्होंने स्वयं भगवान शिव से एकाक्षर गणेश मंत्र प्राप्त कर घोर तप किया था, जिससे प्रसन्न होकर भगवान गणेश ने उन्हें योगशान्ति प्रदान की।
तत्पश्चात् वामदेव जी ने वही दिव्य मंत्र सुदन्त को प्रदान किया और अंतर्धान हो गए।
मंत्र प्राप्त कर सुदन्त अपने नगर लौटे और राजा बृहद्रथ को संपूर्ण वृत्तांत सुनाया। राजा ने पूरे राज्य में विघ्नेश्वर चतुर्थी व्रत का प्रचार करवाया। जब पौष मास की शुक्लपक्ष चतुर्थी आई, तब राजा, प्रजा और स्वयं सुदन्त ने विधिपूर्वक व्रत किया।
व्रत के प्रभाव से सुदन्त की पत्नी गर्भवती हुई और एक तेजस्वी, दीर्घायु पुत्र को जन्म दिया। इसके बाद संपूर्ण पृथ्वी पर लोग शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष दोनों चतुर्थियों को गणेश व्रत करने लगे। सब निरोगी, सुखी और समृद्ध हो गए।
महर्षि वशिष्ठ आगे बोले – “हे राजन्! एक अन्य कथा सुनो। एक अत्यंत लोभी वैश्य था, जिसके घर चोरों ने आक्रमण किया। धन लूटकर उसे घायल कर दिया। पीड़ा में वह वन चला गया। संयोगवश उस दिन पौष शुक्लपक्ष चतुर्थी थी। दुःख के कारण उसने अन्न-जल त्याग दिया और रात्रि जागरण हो गया। अगले दिन उसका देहांत हो गया।
अनजाने में ही उसका विघ्नेश्वर चतुर्थी व्रत पूर्ण हो गया, जिसके फलस्वरूप उसने भगवान गणेश का दर्शन किया और मोक्ष को प्राप्त हुआ।”
महर्षि वशिष्ठ बोले – “हे दशरथ! जो मनुष्य पौष शुक्लपक्ष विघ्नेश्वर चतुर्थी व्रत का श्रद्धा से श्रवण, पाठ या पालन करता है, उसके सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। यह व्रत समस्त विघ्नों का नाश कर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करता है।”
॥ इस प्रकार श्रीमुद्गल पुराण में वर्णित विघ्नेश्वर चतुर्थी व्रत कथा सम्पूर्ण होती है ॥
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