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Shri Ganesh

आषाढ़ संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत कथा

Ashadha Sankashti Ganesh Chaturthi Vrat Katha Hindi

Shri GaneshVrat Katha (व्रत कथा संग्रह)हिन्दी
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|| आषाढ़ संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत कथा ||

पार्वती जी ने पूछा, “हे पुत्र! आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी को गणेश जी की पूजा कैसे करनी चाहिए? आषाढ़ मास के गणपति देवता का क्या नाम है? उनके पूजन का क्या विधान है? कृपया आप मुझे बताइए।”

गणेश जी ने कहा, “आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी के दिन कृष्णपिङ्गल नामक गणेश जी की पूजा करनी चाहिए। इसकी कथा निम्न प्रकार से है:

हे महाराज! द्वापर युग में महिष्मति नगरी में महीजित नामक एक राजा थे। वह बड़े ही पुण्यशील और प्रतापी राजा थे। उन्होंने अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत किया। किन्तु संतानविहीन होने के कारण उन्हें राजमहल का वैभव अच्छा नहीं लगता था।

वेदों में संतानविहीन जीवन को व्यर्थ माना गया है। यदि संतानविहीन व्यक्ति अपने पितरों को जलदान करता है, तो उनके पितृगण उस जल को गरम जल के रूप में ग्रहण करते हैं।

इसी उहापोह में राजा का बहुत समय बीत गया। उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिए कई दान, यज्ञ आदि किए, फिर भी उन्हें संतान नहीं हुई। जवानी ढल गई और बुढ़ापा आ गया, किन्तु वंश वृद्धि नहीं हुई। तदनंतर, राजा ने विद्वान ब्राह्मणों और प्रजाजनों से परामर्श किया।

राजा ने कहा, “हे ब्राह्मणों तथा प्रजाजनों! हम तो संतानहीन हो गए हैं, अब मेरी क्या गति होगी? मैंने जीवन में कभी भी पाप कर्म नहीं किया। मैंने कभी अत्याचार से धन संग्रह नहीं किया। मैंने सदा प्रजा का पुत्रवत पालन किया और धर्माचरण द्वारा ही पृथ्वी का शासन किया। मैंने चोर-डाकुओं को दंडित किया।

इष्ट मित्रों के भोजन की व्यवस्था की, गौ, ब्राह्मणों का हित चिंतन करते हुए शिष्ट पुरुषों का आदर सत्कार किया। फिर भी मुझे अब तक पुत्र नहीं हुआ, इसका क्या कारण है?”

विद्वान ब्राह्मणों ने कहा, “हे महाराज! हम लोग ऐसा प्रयत्न करेंगे जिससे आपके वंश की वृद्धि हो।” इस प्रकार कहकर सभी लोग युक्ति सोचने लगे। सारी प्रजा राजा के मनोरथ की सिद्धि के लिए ब्राह्मणों के साथ वन में चली गई।

वन में उन्हें एक श्रेष्ठ मुनि के दर्शन हुए। वे मुनि निराहार रहकर तपस्या में लीन थे। वे ब्रह्माजी के समान आत्मजित, क्रोधजित और सनातन पुरुष थे। सम्पूर्ण वेद-विशारद और अनेक ब्रह्मज्ञान संपन्न वे महात्मा थे।

उनका निर्मल नाम लोमश ऋषि था। प्रत्येक कल्पांत में उनके एक-एक रोम पतित होते थे, इसलिए उनका नाम लोमश ऋषि पड़ा। ऐसे त्रिकालदर्शी महर्षि लोमश के दर्शन उन्होंने किए।

सब लोग उन तेजस्वी मुनि के पास गए। उचित अभ्यर्थना और प्रणाम के बाद सभी लोग उनके समक्ष खड़े हो गए। मुनि के दर्शन से सभी प्रसन्न होकर परस्पर कहने लगे, “हम लोगों का सौभाग्य है कि हमें ऐसे मुनि के दर्शन हुए।

इनके उपदेश से हम सभी का मंगल होगा।” ऐसा निश्चय कर उन्होंने मुनिराज से कहा, “हे ब्रह्मऋषि! हम लोगों के दुःख का कारण सुनिए। अपने संदेह के निवारण के लिए हम लोग आपके पास आए हैं। हे भगवन! आप कोई उपाय बतलाइए।”

महर्षि लोमश ने पूछा, “सज्जनों! आप लोग यहाँ किस अभिप्राय से आए हैं? मुझसे आपका क्या प्रयोजन है? स्पष्ट रूप से कहिए। मैं आपके सभी संदेहों का निवारण करूंगा।”

प्रजाजनों ने उत्तर दिया, “हे मुनिवर! हम महिष्मति नगरी के निवासी हैं। हमारे राजा का नाम महीजित है। वह ब्राह्मणों का रक्षक, धर्मात्मा, दानवीर, शूरवीर और मधुरभाषी हैं। उस राजा ने हम लोगों का पालन पोषण किया है, परन्तु उन्हें आज तक संतान की प्राप्ति नहीं हुई।

हे भगवान! माता-पिता तो केवल जन्मदाता ही होते हैं, किन्तु राजा ही वास्तव में पोषक और संवर्धक होता है। उसी राजा के निमित्त हम लोग इस गहन वन में आए हैं। हे महर्षि! आप कोई ऐसी युक्ति बताइए जिससे राजा को संतान की प्राप्ति हो, क्योंकि ऐसे गुणवान राजा को पुत्र न होना बहुत दुर्भाग्य की बात है।

हम लोग परस्पर विचार विमर्श करके इस गंभीर वन में आए हैं। उनके सौभाग्य से ही हमें आपका दर्शन हुआ है। हे मुनिवर! किस व्रत, दान, पूजन आदि अनुष्ठान कराने से राजा को संतान होगी, आप कृपा करके हमें बताइए।”

प्रजाजनों की बात सुनकर महर्षि लोमश ने कहा, “हे सज्जनों! आप लोग ध्यानपूर्वक सुनिए। मैं आपको संकट नाशन व्रत बताने जा रहा हूँ। यह व्रत निसंतान को संतान और निर्धनों को धन देता है।

आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी को एकदन्त गजानन नामक गणेश जी की पूजा करें। राजा व्रत करके श्रद्धायुक्त हो ब्राह्मण भोजन कराएं और उन्हें वस्त्र दान करें। गणेश जी की कृपा से उन्हें अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होगी।”

महर्षि लोमश की यह बात सुनकर सभी लोग करबद्ध होकर उठ खड़े हुए। नतमस्तक होकर दंडवत प्रणाम करके सभी लोग नगर में लौट आए। वन में घटित सभी घटनाओं को प्रजाजनों ने राजा से बताया। प्रजाजनों की बात सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रद्धापूर्वक विधिवत गणेश चतुर्थी का व्रत करके ब्राह्मणों को भोजन और वस्त्रादि का दान दिया।

रानी सुदक्षिणा को श्री गणेश जी की कृपा से सुंदर और सुलक्षण पुत्र प्राप्त हुआ। जो व्यक्ति इस व्रत को श्रद्धापूर्वक करेंगे, वे समस्त सांसारिक सुखों के अधिकारी होंगे।

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