|| अहोई अष्टमी और राधाकुण्ड से जुड़ी कथा ||
बहुत समय पहले झाँसी के निकट एक नगर में चन्द्रभान नामक एक साहूकार रहता था। उसकी पत्नी चन्द्रिका अत्यंत सुंदर, सर्वगुण सम्पन्न, सती-साध्वी, शीलवान और बुद्धिमान थी।
उनके कई पुत्र-पुत्रियाँ थीं, लेकिन वे सभी वयस्क होने से पहले ही परलोक सिधार गए थे। संतान की मृत्यु से दोनों पति-पत्नी बहुत व्यथित रहते थे और हमेशा इस चिंता में डूबे रहते थे कि उनके मर जाने के बाद उनकी अपार धन-संपत्ति का क्या होगा।
एक दिन, उन्होंने निर्णय किया कि वे वनवास लेकर शेष जीवन प्रभु-भक्ति में व्यतीत करेंगे। इस प्रकार, उन्होंने अपना घर-बार त्यागकर वन की ओर प्रस्थान किया। यात्रा के दौरान, जब भी वे थक जाते, थोड़ी देर विश्राम करते और फिर चल पड़ते।
इस प्रकार, वे धीरे-धीरे बद्रिका आश्रम के निकट शीतल कुण्ड तक पहुँच गए। वहाँ पहुँचकर, दोनों ने निराहार रहकर प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया।
निराहार और निर्जल रहते हुए सात दिन बीत गए, तभी आकाशवाणी हुई: “तुम दोनों अपने प्राण मत त्यागो। यह सब दुःख तुम्हें तुम्हारे पूर्वजन्म के पापों के कारण भोगना पड़ा है।
यदि तुम्हारी पत्नी कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली अहोई अष्टमी को अहोई माता का व्रत और पूजन करे, तो अहोई देवी प्रसन्न होकर तुम्हें साक्षात दर्शन देंगी। व्रत के दिन राधाकुण्ड में स्नान करना।”
चन्द्रिका ने आकाशवाणी के अनुसार विधि-विधान से अहोई अष्टमी को अहोई माता का व्रत और पूजा-अर्चना की और फिर राधाकुण्ड में स्नान किया।
स्नान के बाद जब वे घर पहुँचे, तो अहोई माता ने उन्हें साक्षात दर्शन देकर वरदान मांगने को कहा। साहूकार दम्पत्ति ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की: “हमारे बच्चे कम आयु में ही परलोक सिधार जाते हैं। कृपया हमें दीर्घायु पुत्रों का वरदान दें।”
अहोई माता ने कहा, “तथास्तु!” और फिर अंतर्ध्यान हो गईं। कुछ समय बाद, साहूकार दम्पत्ति को दीर्घायु पुत्रों की प्राप्ति हुई और वे सुखपूर्वक अपना गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगे।
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