|| बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग प्रादुर्भाव पौराणिक कथा ||
एक समय राक्षसराज रावण कैलास पर्वत पर भक्तिभावपूर्वक भगवान शिव की आराधना कर रहा था। बहुत दिनों तक आराधना करने के बाद भी जब भगवान शिव उस पर प्रसन्न नहीं हुए, तब वह दूसरी विधि से तप-साधना करने लगा।
उसने हिमालय पर्वत से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में पृथ्वी को खोदकर एक गड्ढा बनाया। राक्षस कुल भूषण रावण ने गड्ढे में अग्नि की स्थापना कर हवन प्रारम्भ कर दिया। उसने भगवान शिव को भी अपने पास ही स्थापित किया और कठोर संयम-नियमों का पालन किया।
रावण गर्मी के दिनों में पाँच अग्नियों के बीच बैठकर पंचाग्नि सेवन करता था, वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था, और शीतकाल में गले तक जल में खड़े होकर साधना करता था। इन तीन विधियों से रावण की तपस्या चल रही थी। इतने कठोर तप करने पर भी भगवान महेश्वर उस पर प्रसन्न नहीं हुए।
कहा जाता है कि दुष्ट आत्माओं द्वारा भगवान को रिझाना बड़ा कठिन होता है। जब कठिन तपस्या से भी रावण को सिद्धि नहीं मिली, तब उसने अपना एक-एक सिर काटकर शिव जी की पूजा करने लगा। वह शास्त्र विधि से भगवान की पूजा करता और पूजन के बाद अपना एक मस्तक काटकर भगवान को समर्पित कर देता था।
इस प्रकार उसने अपने नौ मस्तक काट डाले। जब वह अपना अन्तिम दसवाँ मस्तक काटना ही चाहता था, तब भक्तवत्सल भगवान महेश्वर उस पर प्रसन्न हो गए और साक्षात प्रकट होकर रावण के सभी मस्तकों को पुनः स्वस्थ कर दिया।
भगवान शिव ने राक्षसराज रावण को उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम बल और पराक्रम प्रदान किया। भगवान शिव का कृपा-प्रसाद ग्रहण कर रावण ने हाथ जोड़कर विनम्रभाव से कहा, “देवेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपको लंका में ले चलना चाहता हूँ।
आप मेरा मनोरथ सिद्ध कीजिए।” रावण के इस निवेदन को सुनकर भगवान शंकर असमंजस में पड़ गए। उन्होंने कहा, “राक्षसराज! तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभावपूर्वक अपनी राजधानी में ले जाओ, किन्तु यह ध्यान रखना, रास्ते में यदि तुम इसे पृथ्वी पर रखोगे, तो यह वहीं अचल हो जाएगा।”
भगवान शिव द्वारा ऐसा कहने पर, राक्षसराज रावण शिवलिंग को लेकर अपनी राजधानी लंका की ओर चल दिया। भगवान शंकर की मायाशक्ति के प्रभाव से उसे रास्ते में जाते हुए मूत्रोत्सर्ग की प्रबल इच्छा हुई।
रावण मूत्र के वेग को रोकने में असमर्थ रहा और शिवलिंग को एक ग्वाल के हाथ में पकड़ा कर स्वयं पेशाब करने के लिए बैठ गया। एक मुहूर्त बीतने के बाद ग्वाला शिवलिंग के भार से पीड़ित हो उठा और उसने लिंग को पृथ्वी पर रख दिया। पृथ्वी पर रखते ही वह मणिमय शिवलिंग वहीं स्थिर हो गया।
शिवलिंग के स्थिर हो जाने पर निराश रावण अपनी राजधानी लौट गया। उसने अपनी पत्नी मंदोदरी को सारी घटना बताई। देवपुर के इन्द्र आदि देवताओं और ऋषियों ने इस समाचार को सुनकर आपस में परामर्श किया और वहाँ पहुँच गये।
भगवान शिव में अटूट भक्ति होने के कारण उन्होंने शास्त्र विधि से उस लिंग की पूजा की और प्रत्यक्ष दर्शन किया। इस प्रकार रावण की तपस्या के फलस्वरूप श्री वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे देवताओं ने प्रतिष्ठित कर पूजा किया।
जो मनुष्य श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान श्री वैद्यनाथ का अभिषेक करता है, उसके शारीरिक और मानसिक रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। इसलिए वैद्यनाथधाम में रोगियों और दर्शनार्थियों की विशेष भीड़ दिखाई पड़ती है।
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