|| ज्येष्ठ संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत कथा ||
सतयुग में एक पृथु नामक राजा हुए जिन्होंने सौ यज्ञ किए। उनके राज्य में दयादेव नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे, जिनके चार पुत्र थे। पिता ने वैदिक विधि से अपने पुत्रों का विवाह कर दिया।
उन चार बहुओं में सबसे बड़ी बहू अपनी सास से कहने लगी, “हे सासुजी, मैं बचपन से संकटनाशक गणेश चतुर्थी का व्रत करती आई हूँ। मैंने पितृगृह में भी इस व्रत को किया है। अतः आप मुझे यहाँ भी व्रत करने की अनुमति प्रदान करें।”
पुत्रवधू की बात सुनकर ससुर ने कहा, “हे बहू, तुम सभी बहुओं में श्रेष्ठ और बड़ी हो। तुम्हें कोई कष्ट नहीं है और न तुम भिक्षुणी हो। ऐसी स्थिति में तुम व्रत क्यों करना चाहती हो? यह समय तुम्हारा उपभोग करने का है। ये गणेश जी कौन हैं और तुम्हें करना ही क्या है?”
कुछ समय बाद बड़ी बहू गर्भवती हो गई। दस महीने बाद उसने सुंदर बालक को जन्म दिया। उसकी सास लगातार उसे व्रत करने से मना करती रही और व्रत छोड़ने के लिए बाध्य करने लगी।
व्रत भंग होने के फलस्वरूप गणेश जी नाराज हो गए और पुत्र के विवाह के समय वर-वधू के सुमंगली के समय उसका अपहरण कर लिया। इस अनहोनी घटना से मंडप में खलबली मच गई। सब लोग व्याकुल हो गए और पूछने लगे, “लड़का कहाँ गया? किसने अपहरण कर लिया?”
इस समाचार को सुनकर उसकी माँ रोते हुए अपने ससुर दयादेव से कहने लगी, “हे ससुरजी, आपने मेरे गणेश चतुर्थी व्रत को छुड़वा दिया है, जिसके परिणामस्वरूप मेरा पुत्र गायब हो गया है।” पुत्रवधू की यह बात सुनकर दयादेव बहुत दुखी हुए और पुत्रवधू भी दुखित हुई। पति के लिए दुखित पुत्रवधू प्रति मास संकटनाशक गणेश चतुर्थी का व्रत करने लगी।
एक दिन गणेश जी वेदज्ञ और दुर्बल ब्राह्मण का रूप धारण करके भिक्षाटन के लिए उस धर्मपरायण कन्या के घर आए। ब्राह्मण ने कहा, “हे बेटी, मुझे भिक्षा स्वरुप इतना भोजन दो कि मेरी क्षुधा शांत हो जाए।”
ब्राह्मण की बात सुनकर उस धर्मपरायण कन्या ने विधिपूर्वक ब्राह्मण का पूजन किया और भोजन कराकर वस्त्रादि दिए। कन्या की सेवा से संतुष्ट होकर ब्राह्मण कहने लगा, “हे कल्याणी, मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम अपनी इच्छा के अनुरूप मुझसे वरदान प्राप्त कर लो।
मैं ब्राह्मण वेशधारी गणेश हूँ और तुम्हारी प्रीति के कारण आया हूँ।” ब्राह्मण की बात सुनकर कन्या हाथ जोड़कर निवेदन करने लगी, “हे विघ्नेश्वर, यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे मेरे पति के दर्शन करा दीजिए।” गणेश जी ने कहा, “हे सुन्दर विचार वाली, जो तुम चाहती हो वही होगा। तुम्हारा पति शीघ्र ही आएगा।” इस प्रकार का वरदान देकर गणेश जी अंतर्ध्यान हो गए।
कुछ समय बाद उसका पति घर वापस आ गया। सभी बहुत प्रसन्न हुए और विवाह कार्य विधि अनुसार संपन्न हुआ। इस प्रकार ज्येष्ठ मास की चौथ सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली है।
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