|| केदार गौरी व्रत कथा (Kedar Gauri Vrat Katha Hindi PDF) ||
पौराणिक कथा के अनुसार, प्राचीन काल में भृंगी ऋषि भगवान शिव के एक महान और अनन्य भक्त थे। ऋषि का विश्वास केवल भगवान शिव में था और वह उनकी भक्ति में इतने लीन रहते थे कि उन्होंने देवी शक्ति (देवी पार्वती) की उपेक्षा करना शुरू कर दिया।
ऋषि भृंगी की इस एकांगी भक्ति और व्यवहार से देवी आदिशक्ति (गौरी) अत्यंत क्रोधित हो गईं। उन्होंने सोचा कि ऋषि केवल शिव को ही महत्व देते हैं और उन्हें (शक्ति को) नकार रहे हैं। क्रोधित होकर, देवी ने ऋषि भृंगी के शरीर से समस्त ऊर्जा (शक्ति) हर ली, जो वास्तव में स्वयं देवी गौरी ही थीं।
ऊर्जा (शक्ति) के छिन जाने से भृंगी ऋषि का शरीर दुर्बल हो गया और वे निस्तेज हो गए। उनके शरीर से निकली हुई वह ऊर्जा भगवान शिव में विलीन होना चाहती थी।
देवी गौरी ने यह अनुभव किया कि भगवान शिव का अभिन्न अंग बनने के लिए उन्हें तपस्या करनी होगी। उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न करने के उद्देश्य से एक कठोर केदार व्रत का पालन किया।
देवी की इस घोर तपस्या से भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने देवी गौरी को दर्शन दिए और उनसे प्रसन्न होकर उन्हें अपने शरीर का बायाँ भाग निवास के लिए प्रदान किया।
तब से, भगवान शिव और देवी शक्ति के इस संयुक्त स्वरूप को अर्धनारीश्वर के नाम से जाना जाने लगा, जो पुरुष (शिव) और प्रकृति (शक्ति) के पूर्ण मिलन और संतुलन का प्रतीक है।
मान्यता है कि देवी पार्वती ने स्वयं अपने वैवाहिक सुख और भगवान शिव के साथ अटूट संबंध के लिए इस व्रत का पालन किया था। इसलिए, यह व्रत सुखी दांपत्य जीवन, सौभाग्य, और मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
व्रत की विधि और महत्व के प्रमुख बिंदु:
- यह व्रत मुख्य रूप से दक्षिण भारत में मनाया जाता है।
- यह धार्मिक अनुष्ठान 21 दिनों तक चलता है, जो तमिल महीने पुरतासी (आश्विन) में शुक्ल पक्ष की अष्टमी से शुरू होकर दीपावली (अमावस्या) के दिन समाप्त होता है।
- व्रत के दिन भगवान शिव के अर्धनारीश्वर रूप की पूजा की जाती है।
- भक्त विशेष रूप से व्रत के अंतिम दिन यानी अमावस्या को उपवास रखते हैं।
- इस व्रत को करने से भक्तों की सभी इच्छाएँ और मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, तथा उन्हें वैवाहिक सुख, सौभाग्य, धन-धान्य, स्वास्थ्य और समृद्धि का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
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