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Shankaracharya Jayanti 2025 – शंकराचार्य जयंती, जानें चार पीठों की स्थापना का रहस्य

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भारत की आध्यात्मिक परंपरा में आदि शंकराचार्य का स्थान सर्वोपरि है। वे न केवल एक महान दार्शनिक थे, बल्कि एक समाज-सुधारक और धर्म-संरक्षक भी थे। हर वर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को उनकी जयंती बड़े श्रद्धा और भक्ति भाव से मनाई जाती है। शंकराचार्य जयंती 2025 इस वर्ष विशेष है, क्योंकि यह उनके द्वारा स्थापित चार पीठों (मठों) की प्रासंगिकता और रहस्य को उजागर करने का अवसर भी है।

शंकराचार्य जयंती 2025 कब है?

शंकराचार्य जयंती 2025 को 3 मई 2025, शनिवार को मनाया जाएगा। यह तिथि वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को आती है। वर्ष 2025 में, हम आदि शंकराचार्य की जयंती मनाएंगे, एक ऐसे युगपुरुष जिन्होंने भारतीय दर्शन और संस्कृति को एक नई दिशा दी। उनका जीवन, उनकी शिक्षाएं और उनके द्वारा स्थापित चार पीठ आज भी हमें ज्ञान और प्रेरणा प्रदान करते हैं।

लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि आदि शंकराचार्य ने इन चार विशिष्ट स्थानों पर ही अपने मठों की स्थापना क्यों की? आइए, इस शंकराचार्य जयंती पर इस रहस्य की गहराई में उतरें और जानें इन चार पीठों के स्थापना के पीछे का गहरा आध्यात्मिक और दार्शनिक महत्व।

आदि शंकराचार्य का जीवन परिचय

आदि शंकराचार्य, जिनका जन्म आठवीं शताब्दी में केरल के कालड़ी नामक गांव में हुआ था, एक असाधारण दार्शनिक और धर्मगुरु थे। उन्होंने अद्वैत वेदांत के सिद्धांत को प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार आत्मा और ब्रह्म (परम वास्तविकता) एक ही हैं। उन्होंने पूरे भारत की यात्रा की, विद्वानों से शास्त्रार्थ किया और वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने सनातन धर्म को संगठित करने और ज्ञान की ज्योति को चारों दिशाओं में फैलाने के लिए चार मठों (पीठों) की स्थापना की।

चार पीठों की स्थापना – उद्देश्य

आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठ न केवल धार्मिक केंद्र हैं, बल्कि वे भारत की चारों दिशाओं में ज्ञान और संस्कृति के प्रहरी के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं। प्रत्येक पीठ का अपना विशिष्ट महत्व और परंपरा है:

  • शृंगेरी शारदा पीठ (दक्षिण): कर्नाटक के चिकमगलूर जिले में स्थित यह पीठ दक्षिण दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। यह ऋग्वेद से जुड़ा हुआ है और यहाँ ‘तत् त्वम् असि’ महावाक्य का चिंतन किया जाता है। यहाँ के शंकराचार्य ‘भारती तीर्थ’ उपाधि धारण करते हैं। मान्यता है कि यहाँ देवी शारदा ने स्वयं आदि शंकराचार्य को दर्शन दिए थे, इसलिए यह ज्ञान और विद्या का प्रमुख केंद्र है।
  • गोवर्धन पीठ (पूर्व): ओडिशा के पुरी में स्थित यह पीठ पूर्व दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। यह ऋग्वेद से जुड़ा हुआ है और यहाँ ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ महावाक्य का चिंतन किया जाता है। यहाँ के शंकराचार्य ‘वन’ या ‘अरण्य’ उपाधि धारण करते हैं। यह पीठ भगवान जगन्नाथ की भूमि पर स्थित है और पूर्वी भारत में वैष्णव और वैदिक परंपराओं के समन्वय का केंद्र रहा है।
  • ज्योतिर्मठ पीठ (उत्तर): उत्तराखंड के जोशीमठ में स्थित यह पीठ उत्तर दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। यह अथर्ववेद से जुड़ा हुआ है और यहाँ ‘अयमात्मा ब्रह्म’ महावाक्य का चिंतन किया जाता है। यहाँ के शंकराचार्य ‘गिरि’, ‘पर्वत’ या ‘सागर’ उपाधि धारण करते हैं। हिमालय की गोद में स्थित यह पीठ ज्ञान और तपस्या का प्रतीक है।
  • द्वारका शारदा पीठ (पश्चिम): गुजरात के द्वारका में स्थित यह पीठ पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। यह सामवेद से जुड़ा हुआ है और यहाँ ‘अहं ब्रह्मास्मि’ महावाक्य का चिंतन किया जाता है। यहाँ के शंकराचार्य ‘तीर्थ’ या ‘आश्रम’ उपाधि धारण करते हैं। भगवान कृष्ण की नगरी द्वारका में स्थित यह पीठ पश्चिमी भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का महत्वपूर्ण केंद्र है।

चार पीठों की स्थापना का रहस्य

आदि शंकराचार्य ने इन चार विशिष्ट स्थानों को क्यों चुना? इसके पीछे कई गहरे कारण माने जाते हैं:

  • भौगोलिक एकता: इन पीठों की स्थापना भारत की चारों दिशाओं में की गई, जो भौगोलिक रूप से देश को एकता के सूत्र में बांधने का प्रतीक है। यह सांस्कृतिक और धार्मिक एकता स्थापित करने की उनकी दूरदृष्टि को दर्शाता है।
  • वैदिक ज्ञान का संरक्षण: प्रत्येक पीठ को एक विशिष्ट वेद और महावाक्य से जोड़ा गया, जिससे चारों वेदों के ज्ञान का संरक्षण और प्रचार सुनिश्चित किया जा सके। यह वैदिक ज्ञान की समग्रता को बनाए रखने का एक रणनीतिक कदम था।
  • आध्यात्मिक ऊर्जा केंद्र: ये स्थान प्राचीन काल से ही आध्यात्मिक ऊर्जा के केंद्र रहे होंगे। आदि शंकराचार्य ने अपनी दिव्य दृष्टि से इन स्थानों की महत्ता को पहचाना और उन्हें ज्ञान के शक्तिपीठों के रूप में स्थापित किया।
  • विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का समन्वय: अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित दार्शनिक विचारधाराओं के बीच समन्वय स्थापित करना भी पीठों की स्थापना का एक उद्देश्य रहा होगा। इन पीठों के माध्यम से अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को सभी तक पहुंचाया गया।
  • गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वाह: प्रत्येक पीठ पर शंकराचार्य की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए योग्य शिष्यों की नियुक्ति की गई, जिससे ज्ञान की यह धारा पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होती रहे।

शंकराचार्य जयंती हमें आदि शंकराचार्य के जीवन और उनकी शिक्षाओं को स्मरण करने का अवसर प्रदान करती है। यह हमें उनके द्वारा स्थापित चार पीठों के महत्व को समझने और उनके दार्शनिक विचारों को अपने जीवन में अपनाने की प्रेरणा देती है। इस वर्ष, आइए हम संकल्प लें कि हम उनके ज्ञान के प्रकाश को अपने जीवन में फैलाएंगे और भारतीय संस्कृति की इस अमूल्य धरोहर को संजोए रखेंगे।

जय शंकराचार्य! जय गुरुदेव!

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