हनुमान बाहुक गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित एक अद्भुत स्तोत्र है, जो भगवान हनुमान की कृपा प्राप्त करने का अत्यंत प्रभावशाली साधन माना जाता है। यह पाठ विशेष रूप से शारीरिक पीड़ा, असाध्य रोगों और मानसिक अशांति से मुक्ति पाने के लिए किया जाता है। हनुमान बाहुक भगवान हनुमान को समर्पित एक अत्यंत शक्तिशाली स्तोत्र है। मान्यता है कि इसका नियमित पाठ करने से शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार की पीड़ाओं से मुक्ति मिलती है।
हनुमान बाहुक पाठ अद्भुत और प्रभावशाली स्तोत्र है, जो भक्तों को स्वास्थ्य, शांति और सभी कष्टों से मुक्ति दिलाता है। यदि आप शारीरिक पीड़ा, मानसिक तनाव या किसी भी तरह की बाधाओं से परेशान हैं, तो आज ही श्रद्धा और भक्ति भाव से हनुमान बाहुक का पाठ शुरू करें और भगवान हनुमान की कृपा प्राप्त करें।
हनुमान बाहुक के चमत्कारी प्रभाव
- हनुमान बाहुक का पाठ जोड़ों के दर्द, सिरदर्द, गठिया आदि जैसी शारीरिक पीड़ाओं को दूर करने में अत्यंत प्रभावी माना जाता है।
- यह स्तोत्र मन को शांत करता है और तनाव, चिंता और अवसाद जैसी समस्याओं से राहत दिलाता है।
- नियमित पाठ से आत्मविश्वास बढ़ता है और व्यक्ति सकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है।
- हनुमान बाहुक का पाठ घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है और नकारात्मक शक्तियों का नाश करता है।
- यह स्तोत्र सभी प्रकार के कष्टों और समस्याओं से मुक्ति दिलाने में सक्षम माना जाता है।
- हनुमान जी की कृपा से जीवन में आ रही नकारात्मक शक्तियां और विघ्न दूर होते हैं।
- जीवन में आने वाली किसी भी समस्या, आर्थिक संकट, कार्य में बाधा या दुर्घटना से बचाने में यह पाठ प्रभावी माना जाता है।
- यह पाठ भक्त को भगवान हनुमान का विशेष आशीर्वाद दिलाने का उत्तम साधन है।
विशेष सावधानियां
- यदि आप हनुमान बाहुक का पाठ पहली बार कर रहे हैं तो किसी विद्वान ब्राह्मण से मार्गदर्शन लेना उचित होगा।
- हनुमान बाहुक के पाठ के साथ-साथ अन्य धार्मिक क्रियाएं जैसे हनुमान चालीसा का पाठ, हनुमान जी की पूजा आदि भी कर सकते हैं।
- पाठ करते समय वातावरण को शुद्ध और शांत रखें।
- पाठ के दौरान पूर्ण श्रद्धा और एकाग्रता बनाए रखें।
- सात्विक भोजन करें और नकारात्मक विचारों से बचें।
- पाठ को पूर्ण करने के बाद धन्यवाद ज्ञापन करें।
- यदि संभव हो, तो हनुमान जी के मंदिर में जाकर दर्शन करें।
हनुमान बाहुक पाठ की विधि (Hanuman Bahuk Path Ki Vidhi)
हनुमान बाहुक का पाठ करने से पहले कुछ महत्वपूर्ण नियमों और विधियों का पालन करना चाहिए, जिससे पाठ का अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके।
पाठ करने का उत्तम समय
- मंगलवार या शनिवार को इस पाठ को करने का विशेष महत्व है।
- ब्रह्म मुहूर्त (सुबह 4-6 बजे) या संध्या के समय पाठ करना श्रेष्ठ माना जाता है।
- रोगों से मुक्ति के लिए इसे प्रतिदिन करने की सलाह दी जाती है।
आवश्यक सामग्री
- स्वच्छ स्थान और शांत वातावरण
- हनुमान जी की प्रतिमा या चित्र
- चमेली का तेल और सिंदूर
- गुड़-चना या बूंदी का प्रसाद
- दीपक और अगरबत्ती
पाठ करने की विधि
- हनुमान बाहुक का पाठ करते समय मन को शुद्ध रखें और भगवान हनुमान के प्रति अटूट श्रद्धा रखें।
- स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें और पूजन स्थान को साफ करें।
- भगवान श्रीराम और हनुमान जी का ध्यान करें।
- दीपक जलाकर हनुमान जी को सिंदूर अर्पित करें।
- संकल्प लें कि आप विधिपूर्वक हनुमान बाहुक का पाठ कर रहे हैं।
- पाठ समाप्त होने के बाद हनुमान जी की आरती करें।
- प्रसाद वितरण करें और स्वयं भी ग्रहण करें।
- मंगलवार का दिन हनुमान जी को समर्पित होता है, इसलिए इस दिन पाठ करना अधिक फलदायी माना जाता है।
- पाठ करते समय एक पात्र में जल भरकर उसमें तुलसी का पत्ता डाल दें। पाठ पूरा होने के बाद इस जल को पी लें।
श्री हनुमान बाहुक पाठ
॥ छप्पय ॥
सिंधु-तरन, सिय-सोच हरन, रबि-बालबरन-तनु ।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु ॥
गहन-दहन-निरदहन-लंक निःसंक, बंक-भुव ।
जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव ॥
कह तुलसिदास सेवत सुलभ, सेवक हित सन्तत निकट।
गुनगनत, नमत, सुमिरत, जपत, समन सकल-संकट-बिकट ॥१॥
स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रबि-तरुन तेज घन।
उर बिसाल, भुज दण्ड चण्ड नख बज्र बज्रतन ॥
पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन।
कपिस केस, करकस लँगूर, खल-दल-बल-भानन॥
कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति बिकट।
संताप पाप तेहि पुरुष पहिं सपनेहुँ नहिं आवत निकट॥२॥
॥ झूलना ॥
पञ्चमुख-छमुख-भृगुमुख्य भट-असुर-सुर, सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो।
बाँकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासुबल, बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो।
दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है पवन को पूत रजपूत रुरो॥३॥
॥ घनाक्षरी ॥
भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन-अनुमानि सिसुकेलि कियो फेरफार सो ।
पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन, क्रमको न भ्रम, कपि बालक-बिहार सो॥
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।
बल कैधौं बीररस, धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनिको सार सो॥४॥
भारत में पारथ के रथ केतु कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हलबल भो।
कह्यो द्रोन भीषम समीरसुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो॥
बानर सुभाय बालकेलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँगहूँतें घाटि नभतल भो।
नाइ-नाइ माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ॥५॥
गोपद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निसंक परपुर गलबल भो।
द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपिखेल बेल कैसो फल भो॥
संकटसमाज असमंजस भो रामराज, काज जुग-पूगनिको करतल पल भो।
साहसी समत्थ तुलसीको नाह जाकी बाँह, लोक पाल पालन को फिर थिर थल भो॥६॥
कमठकी पीठि जाके गोड़निकी गाड़ैं मानो, नापके भाजन भरि जलनिधि-जल भो।
जातुधान-दावन परावन को दुर्ग भयो, महामीनबास तिमि तोमनिको थल भो॥
कुम्भकर्न-रावन-पयोदनाद-ईंधनको, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान-सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो॥७॥
दूत रामरायको, सपूत पूत पौनको, तू, अंजनीको नन्दन प्रताप भूरि भानु सो।
सीय-सोच-समन, दुरित-दोष-दमन, सरन आये अवन, लखनप्रिय प्रान सो॥
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबेको भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो।
ज्ञान-गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो॥८॥
दवन-दुवन-दल भुवन-बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदीछोर को।
पाप-ताप-तिमिर तुहिन-विघटन-पटु, सेवक-सरोरुह सुखद भानु भोर को॥
लोक-परलोकतें बिसोक सपने न सोक, तुलसीके हिये है भरोसो एक ओरको।
रामको दुलारो दास बामदेवको निवास, नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोरको॥९॥
महाबल-सीम, महाभीम, महाबानइत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को।
कुलिस-कठोरतनु जोरपरै रोर रन, करुना-कलित मन धारमिक धीरको॥
दुर्जनको कालसो कराल पाल सज्जनको, सुमिरे हरनहार तुलसीकी पीरको।
सीय-सुखदायक दुलारो रघुनायकको, सेवक सहायक है साहसी समीर को॥१०॥
रचिबेको बिधि जैसे, पालिबेको हरि, हर, मीच मारिबेको, ज्याइबेको सुधापान भो।
धरिबेको धरनि, तरनि तम दलिबेको, सोखिबे कृसानु, पोषिबेको हिम-भानु भो॥
खल-दुःख-दोषिबेको, जन-परितोषिबेको, माँगिबो मलीनताको मोदक सुदान भो।
आरतकी आरति निवारिबेको तिहुँ पुर, तुलसीको साहेब हठीलो हनुमान भो॥११॥
सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँकको।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ, बापुरे बराक कहा और राजा राँकको॥
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, ताकै जो अनर्थ सो समर्थ एक आँकको।
सब दिन रूरो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँकको॥१२॥
सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि, लोकपाल सकल लखन राम जानकी।
लोक परलोकको बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी॥
केसरीकिसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करुनानिधानकी।
बालक-ज्यों पालिहैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको, जाके हिये हुलसति हाँक हनुमानकी॥१३॥
करुना निधान, बलबुद्धिके निधान, मोद-महिमानिधान, गुन-ज्ञानके निधान हौ।
बामदेव-रूप, भूप राम के सनेही, नाम, लेत-देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ॥
आपने प्रभाव, सीतानाथके सुभाव सील, लोक-बेद-बिधिके बिदुष हनुमान हौ।
मनकी, बचनकी, करमकी तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ॥१४॥
मनको अगम, तन सुगम किये कपीस, काज महाराजके समाज साज साजे हैं।
देव-बंदीछोर रनरोर केसरीकिसोर, जुग-जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं॥
बीर बरजोर, घटि जोर तुलसीकी ओर, सुनि सकुचाने साधु, खलगन गाजे हैं।
बिगरी सँवार अंजनीकुमार कीजे मोहिं, जैसे होत आये हनुमानके निवाजे हैं॥१५॥
॥ सवैया ॥
जानसिरोमनि हौ हनुमान सदा जनके मन बास तिहारो।
ढारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो॥
साहेब सेवक नाते ते हातो कियो सो तहाँ तुलसीको न चारो।
दोष सुनाये तें आगेहुँको होशियार ह्वै हों मन तौ हिय हारो॥१६॥
तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे उर घाले।
तेरे निवाजे गरीबनिवाज बिराजत बैरिनके उर साले॥
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरीके-से जाले।
बूढ़ भये, बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले॥१७॥
सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवा से।
तैं रन-केहरि केहरिके बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से॥
तोसों समत्थ सुसाहेब सेइ सहै तुलसी दुख दोष दवासे।
बानर बाज बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से॥१८॥
अच्छ-बिमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन्न से कुंजर केहरि-बारो॥
राम-प्रताप-हुतासन, कच्छ, बिपच्छ, समीर समीरदुलारो।
पापतें, सापतें, ताप तिहूँतें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो॥१९॥
॥ घनाक्षरी ॥
जानत जहान हनुमानको निवाज्यौ जन, मन अनुमानि, बलि, बोल न बिसारिये।
सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति, मोदक मरै जो, ताहि माहुर न मारिये।
साहसी समीरके दुलारे रघुबीरजूके, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये॥२०॥
बालक बिलोकि, बलि, बारेतें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये।
रावरो भरोसो तुलसीके, रावरोई बल, आस रावरीयै, दास रावरो बिचारिये॥
बड़ो बिकराल कलि, काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलिको, निहारि सो निवारिये।
केसरीकिसोर, रनरोर, बरजोर बीर, बाँहुपीर राहुमातु ज्यौं पछारि मारिये॥२१॥
उथपे थपनथिर थपे उथपनहार, केसरीकुमार बल आपनो सँभारिये।
राम के गुलामनिको कामतरु रामदूत, मोसे दीन दूबरेको तकिया तिहारिये॥
साहेब समर्थ तोसों तुलसीके माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि बारिचर पीर, मकरी ज्यौं पकरिकै बदन बिदारिये॥२२॥
रामको सनेह, राम साहस लखन सिय, रामकी भगति, सोच संकट निवारिये।
मुद-मरकट रोग-बारिनिधि हेरि हारे, जीव-जामवंतको भरोसो तेरो भारिये॥
कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम-पब्बयतें, सुथल सुबेल भालू बैठिकै बिचारिये।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँहपीर क्यों न, लंकिनी ज्यों लातघात ही मरोरि मारिये॥२३॥
लोक-परलोकहुँ तिलोक न बिलोकियत, तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये।
कर्म, काल, लोकपाल, अग-जग जीवजाल, नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये॥
खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो, देव दुखी देखियत भारिये।
बात तरुमूल बाँहुसूल कपिकच्छु-बेलि, उपजी सकेलि कपिकेलि ही उखारिये॥२४॥
करम-कराल-कंस भूमिपालके भरोसे, बकी बकभगिनी काहूतें कहा डरैगी।
बड़ी बिकराल बालघातिनी न जात कहि, बाँहुबल बालक छबीले छोटे छरैगी॥
आई है बनाइ बेष आप ही बिचारि देख, पाप जाय सबको गुनीके पाले परैगी।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपिकान्ह तुलसीकी, बाँहपीर महाबीर, तेरे मारे मरैगी॥२५॥
भालकी कि कालकी कि रोषकी त्रिदोषकी है, बेदन बिषम पाप-ताप छलछाँहकी।
करमन कूटकी कि जन्त्र मन्त्र बूटकी, पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँहकी॥
पैहहि सजाय नत कहत बजाय तोहि, बावरी न होहि बानि जानि कपिनाँहकी।
आन हनुमानकी दोहाई बलवानकी, सपथ महाबीरकी जो रहै पीर बाँहकी॥२६॥
सिंहिका सँहारि बल, सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है।
लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार, जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है॥
तोरि जमकातरि मदोदरी कढ़ोरि आनी, रावनकी रानी मेघनाद महँतारी है।
भीर बाँहपीरकी निपट राखी महाबीर, कौनके सकोच तुलसीके सोच भारी है॥२७॥
तेरो बालकेलि बीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीरसुधि सक्र-रबि-राहुकी।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब, तेरो नाम लेत रहै आरति न काहुकी॥
साम दाम भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि, हाथ कपिनाथहीके चोटी चोर साहुकी।
आलस अनख परिहासकै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसीके बाहुकी॥२८॥
टूकनिको घर-घर डोलत कँगाल बोलि, बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है।
कीन्ही है सँभार सार अंजनीकुमार बीर, आपनो बिसारिहैं न मेरेहू भरोसो है॥
इतनो परेखो सब भाँति समरथ आजु, कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरीको मरन खेल बालकनिको सो है॥२९॥
आपने ही पापतें त्रितापतें कि सापतें, बढ़ी है बाँहबेदन कही न सहि जाति है।
औषध अनेक जन्त्र-मन्त्र-टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधिकाति है॥
करतार, भरतार, हरतार, कर्म, काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो रामदूत, ढील तेरी बीर मोहि पीरतें पिराति है॥३०॥
दूत रामरायको, सपूत पूत बायको, समत्थ हाथ पायको सहाय असहायको।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत, रावन सो भट भयो मुठिकाके घायको॥
एते बडे़ साहेब समर्थको निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन कायको।
थोरी बाँहपीरकी बड़ी गलानि तुलसीको, कौन पाप कोप, लोप प्रगट प्रभाय को॥३१॥
देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाम, रामदूतकी रजाइ माथे मानि लेत हैं॥
घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग, हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं।
क्रोध कीजे कर्मको प्रबोध कीजे तुलसीको, सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं॥३२॥
तेरे बल बानर जिताये रन रावनसों, तेरे घाले जातुधान भये घर-घरके।
तेरे बल रामराज किये सब सुरकाज, सकल समाज साज साजे रघुबरके॥
तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत, सजल बिलोचन बिरंचि हरि हरके।
तुलसी के माथेपर हाथ फेरो कीसनाथ, देखिये न दास दुखी तोसे कनिगरके॥३३॥
पालो तेरे टूकको परेहू चूक मूकिये न, कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये।
भोरानाथ भोरेही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनो न अवडेरिये॥
अंबु तू हौं अंबुचर, अंबु तू हौं डिंभ, सो न, बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये।
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसीकी बाँह पर लामीलूम फेरिये॥३४॥
घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष, धूम-मूल मलिनाई है॥
करुनानिधान हनुमान महाबलवान, हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजैं तैं उड़ाई है।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरीकिसोर राखे बीर बरिआई है॥३५॥
॥ सवैया ॥
रामगुलाम तुही हनुमान गोसाँइ सुसाँइ सदा अनुकूलो।
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो॥
बाँहकी बेदन बाँहपगार पुकारत आरत आनँद भूलो।
श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो॥३६॥
॥ घनाक्षरी ॥
कालकी करालता करम कठिनाई कीधौं, पापके प्रभावकी सुभाय बाय बावरे।
बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डावरे॥
लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहूँ तावरे।
भूतनिकी आपनी परायेकी कृपानिधान, जानियत सबहीकी रीति राम रावरे॥३७॥
पाँयपीर पेटपीर बाँहपीर मुँहपीर, जरजर सकल सरीर पीरमई है।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहिपर दवरि दमानक सी दई है॥
हौं तो बिन मोलके बिकानो बलि बारेही तें, ओट रामनामकी ललाट लिखि लई है।
कुंभज के किंकर बिकल बूड़े गोखुरनि, हाय रामराय ऐसी हाल कहूँ भई है॥३८॥
बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि, मुँहपीर-केतुजा कुरोग जातुधान है।
राम नाम जगजाप कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान है॥
सुमिरे सहाय रामलखन आखर दोऊ, जिनके समूह साके जागत जहान है।
तुलसी सँभारि ताड़का-सँहारि भारि भट, बेधे बरगदसे बनाइ बानवान हैं॥३९॥
बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो, रामनाम लेत माँगि खात टूकटाक हौं।
पर्यो लोकरीतिमें पुनीत प्रीति रामराय, मोहबस बैठो तोरि तरकितराक हौं॥
खोटे-खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनीकुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं।
तुलसी गोसाइँ भयो भोंड़े दिन भूलि गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं॥४०॥
असन-बसन-हीन बिषम-बिषाद-लीन, देखि दीन दूबरो करै न हाय-हाय को।
तुलसी अनाथसो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सीलसिंधु आपने सुभायको॥
नीच यहि बीच पति पाइ भरुहाइगो, बिहाइ प्रभु-भजन बचन मन काय को।
तातें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि-फूटि निकसत लोन रामरायको॥४१॥
जिओं जग जानकीजीवनको कहाइ जन, मरिबेको बारानसी बारि सुरसरि को।
तुलसीके दुहूँ हाथ मोदक है ऐसे ठाउँ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरिको॥
मोको झूठो साँचो लोग रामको कहत सब, मेरे मन मान है न हरको न हरिको।
भारी पीर दुसह सरीरतें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करिको॥४२॥
सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेसको महेस मानो गुरु कै।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुरकै॥
ब्याधि भूतजनित उपाधि काहू खलकी, समाधि कीजे तुलसीको जानि जन फुरकै।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोगसिंधु क्यों न डारियत गाय खुरकै॥४३॥
कहों हनुमानसों सुजान रामरायसों, कृपानिधान संकरसों सावधान सुनिये।
हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरंचि सब देखियत दुनिये॥
माया जीव कालके करमके सुभायके, करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये।
तुम्हतें कहा न होय हाहा सो बुझैये मोहि, हौं हूँ रहों मौन ही बयो सो जानि लुनिये॥४४॥
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