|| श्री गणाधिप स्तोत्र ||
सरागिलोकदुर्लभं विरागिलोकपूजितं,
सुरासुरैर्नमस्कृतं जरादिमृत्युनाशकम्॥
गिरा गुरु श्रिया हरिं जयन्ति यत्पदार्थका,
नमामि तं गणाधिपं कृपापयः पयोनिधिम्॥
गिरीन्द्रजामुखाम्बुजप्रमोददानभास्करं,
करीन्द्रवक्त्रमानताघसंघवारणोद्यतम्।
सरीसृपेशबद्धकुक्षिमाश्रयामि संततं,
शरीरकान्तिनिर्जिताब्जबन्धुबालसंततिम्॥
शुकादिमौनिवन्दितं गकारवाच्यमक्षरं,
प्रकाममिष्टदायिनं सकामनम्रपङ्क्तये।
चकासनं चतुर्भुजैर्विकासिपद्मपूजितं,
प्रकाशितात्मतत्त्वकं नमाम्यहं गणाधिपम्॥
नराधिपत्वदायकं स्वरादिलोकदायकं,
जरादिरोगवारकं निराकृतासुरव्रजम्।
कराम्बुजैर्धरन्सृणीन् विकारशून्यमानसैर्हृदा,
सदा विभावितं मुदा नमामि विघ्नपम्॥
श्रमापनोदनक्षमं समाहितान्तरात्मना,
समाधिभिः सदार्चितं क्षमानिधिं गणाधिपम्।
रमाधवादिपूजितं यमान्तकात्मसम्भवं,
शमादिषड्गुणप्रदं नमामि तं विभूतये॥
गणाधिपस्य पञ्चकं नृणामभीष्टदायकं,
प्रणामपूर्वकं जनाः पठन्ति ये मुदायुताः।
भवन्ति ते विदाम्पुरः प्रगीतवैभवाः,
जनाश्चिरायुषोऽधिकश्रियः सुसूनवो न संशयः॥
॥ इति श्रीमच्छंकराचार्यकृतं गणाधिपस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥
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