|| भगवान परशुराम पूजा विधि ||
- इस दिन प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान आदि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। गंगाजल से मंदिर को शुद्ध करें और पूजा की तैयारी करें।
- इसके पश्चात पूजा स्थल पर स्वच्छ वस्त्र बिछाकर भगवान परशुराम एवं भगवान विष्णु की प्रतिमा अथवा चित्र स्थापित करें।
- इसके बाद श्रद्धा एवं विधि-विधान से भगवान परशुराम की पूजा करें। उन्हें पुष्प, मिष्ठान्न एवं अन्य पूजन सामग्री अर्पित करें।
- भगवान परशुराम को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। अतः इस दिन उनकी पूजा करने से भगवान श्री हरि विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त होती है। साथ ही माता लक्ष्मी की भी कृपा प्राप्त होती है।
|| भगवान परशुराम की कथा ||
भगवान परशुराम रामायण काल के प्रसिद्ध मुनि थे। प्राचीन काल में कन्नौज नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी कन्या सत्यवती अत्यंत रूपवती थीं। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनंदन ऋषीक के साथ कर दिया।
विवाह के उपरांत भृगु ऋषि ने अपनी पुत्रवधू सत्यवती को आशीर्वाद देते हुए वर मांगने के लिए कहा। सत्यवती ने अपनी माता के लिए एक पुत्र की याचना की। इस पर भृगु ऋषि ने दो चरु पात्र प्रदान किए और निर्देश दिया कि सत्यवती की माता पुत्र की इच्छा से पीपल का आलिंगन करें और सत्यवती गूलर का। तत्पश्चात दोनों को अलग-अलग चरु का सेवन करना था।
किन्तु सत्यवती की माता ने छलपूर्वक पात्रों की अदला-बदली कर दी। इस कारण सत्यवती ने अपनी माता के लिए निर्धारित पात्र का सेवन कर लिया। भृगु ऋषि को अपनी योग शक्ति से इसका ज्ञान हुआ और उन्होंने कहा कि सत्यवती की संतान ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी, जबकि उसकी माता की संतान क्षत्रिय होते हुए भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। सत्यवती के अनुरोध पर भृगु ऋषि ने यह आशीर्वाद दिया कि सत्यवती का पुत्र ब्राह्मण आचरण करेगा, भले ही उसका पौत्र क्षत्रिय स्वभाव का हो।
समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि ऋषि का जन्म हुआ। वे अत्यंत तेजस्वी थे। उनका विवाह राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका से हुआ। रेणुका से पांच पुत्र उत्पन्न हुए— रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वावसु और परशुराम।
एक दिन रेणुका सरोवर में स्नान करने गईं। वहां उन्होंने चित्ररथ नामक गंधर्व को जलक्रीड़ा करते देखा, जिससे उनका चित्त विचलित हो गया। इस घटना का ज्ञान दिव्य दृष्टि से जमदग्नि ऋषि को हुआ और उन्होंने अपने पुत्रों को माता का वध करने का आदेश दिया। पहले चार पुत्रों ने यह आदेश अस्वीकार कर दिया, किन्तु परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए अपनी माता का शीश काट दिया।
इससे प्रसन्न होकर जमदग्नि ऋषि ने परशुराम को वरदान मांगने के लिए कहा। परशुराम ने अपनी माता को पुनः जीवित करने, चारों भाइयों को चेतना देने एवं स्वयं को अजेय बनाने का वरदान मांगा। जमदग्नि ऋषि ने यह वरदान प्रदान कर दिए।
कुछ समय पश्चात, कार्त्तवीर्य अर्जुन नामक राजा जमदग्नि ऋषि के आश्रम में आया। ऋषि ने उसकी अतिथि सेवा कामधेनु गाय के माध्यम से की। कार्त्तवीर्य अर्जुन कामधेनु गाय की विशेषताओं से प्रभावित हुआ और उसे बलपूर्वक ले जाना चाहा। जब ऋषि ने मना किया, तो क्रोध में आकर उसने जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया।
जब परशुराम वापस लौटे, तो उन्होंने अपनी माता को विलाप करते देखा। अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने संकल्प लिया कि वे पृथ्वी को क्षत्रियों से मुक्त कर देंगे। उन्होंने कार्त्तवीर्य अर्जुन का वध कर दिया और 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियविहीन कर दिया।
अंततः महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को इस विनाश को रोकने के लिए कहा। इसके बाद भगवान परशुराम ने संपूर्ण पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी और स्वयं महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने चले गए।
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