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भीष्म अष्टमी व्रत कथा

Bhishma Ashtami Katha Hindi

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|| भीष्म अष्टमी व्रत कथा ||

भीष्म पितामह का वास्तविक नाम देवव्रत था। वे हस्तिनापुर के राजा शांतनु और उनकी पटरानी गंगा के पुत्र थे। एक बार राजा शांतनु शिकार करते हुए गंगा तट के पार चले गए। लौटते समय उनकी भेंट हरिदास केवट की पुत्री मत्स्यगंधा (सत्यवती) से हुई। सत्यवती असाधारण रूपवती थी, और उसके सौंदर्य पर मोहित होकर राजा शांतनु ने उससे विवाह करने का विचार किया।

राजा शांतनु ने हरिदास से सत्यवती का हाथ मांगा, परंतु हरिदास ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। उन्होंने कहा, “महाराज! आपका ज्येष्ठ पुत्र देवव्रत आपके राज्य का उत्तराधिकारी है। यदि आप मेरी पुत्री के पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी बनाने का वचन दें, तो ही मैं सत्यवती का विवाह आपसे करूंगा।”

राजा शांतनु इस शर्त को मानने में असमर्थ रहे। राजा शांतनु सत्यवती के प्रति आकर्षण को भूल नहीं पाए और लगातार व्याकुल रहने लगे। यह देखकर देवव्रत ने अपने पिता से उनके दु:ख का कारण पूछा।

जब देवव्रत को सत्यवती के साथ विवाह की समस्या का पता चला, तो वे स्वयं हरिदास के पास गए और गंगा जल हाथ में लेकर शपथ ली कि वे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे। उनकी इस कठिन प्रतिज्ञा के कारण उन्हें “भीष्म” की उपाधि मिली। इसके बाद राजा शांतनु ने प्रसन्न होकर उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान दिया।

महाभारत के युद्ध के दौरान, भीष्म पितामह ने शरशय्या पर लेटने के बाद भी प्राण नहीं त्यागे। वे सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार करते रहे। सूर्य के उत्तरायण होने और माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। शास्त्रों के अनुसार, यह समय आत्मा की सद्गति के लिए सर्वोत्तम माना गया है।

भीष्म पितामह 58 दिनों तक शरशय्या पर रहे और अपने अंतिम समय में युधिष्ठिर, पांडवों, सगे-संबंधियों और पुरोहितों को विदा दी। उनके निर्वाण के बाद उनका चंदन की चिता पर दाह संस्कार किया गया। भीष्म पितामह की आयु लगभग 186 वर्ष बताई जाती है।

उनकी पुण्य स्मृति में माघ मास की शुक्ल पक्ष अष्टमी तिथि को उनका निर्वाण दिवस मनाया जाता है। इस दिन पितरों के निमित्त जल, कुश और तिल के साथ श्रद्धा से तर्पण करने से संतान सुख और मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह दिन भीष्म पितामह के श्राद्ध के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है।

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