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शनिवार व्रत कथा और व्रत विधि

Shanivaar Vrat Katha Puja Vidhi Hindi

Shani DevVrat Katha (व्रत कथा संग्रह)हिन्दी
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|| शनिवार व्रत विधि ||

शनिवार व्रत हिंदू धर्म में शनिदेव को समर्पित एक महत्वपूर्ण व्रत है। यह व्रत शनिदेव के प्रकोप से बचने और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।

  • शनिवार के दिन प्रातः स्नान आदि करने के बाद काला तिल और लौंग मिश्रित जल पश्चिम दिशा की ओर मुख करके पीपल वृक्ष पर चढ़ाएं।
  • तत्पश्चात शिवोपासना या हनुमत आराधना और साथ ही शनि की लौह प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए। फिर शनिवार व्रत कथा का पाठ करना चाहिए।
  • उड़द के बने पदार्थ बूढ़े ब्राह्मण को देना चाहिए और स्वयं सूर्यास्त के पश्चात भोजन ग्रहण करना चाहिए।
  • भोजन के पूर्व शनि की शांति हेतु ‘शंशनैश्चराय नमः’ मंत्र का और राहु की शांति हेतु ‘रां राहवे नमः’ मंत्र का तीन-तीन माला जप करना चाहिए।
  • शनि के व्रत की पूर्णाहुति हेतु शमी काष्ठ (शमी वृक्ष की लकड़ी) से हवन करें। राहु के व्रत की पूर्णाहुति हेतु हवन में दूर्वा का उपयोग करना चाहिए।
  • शनिदेव की पूजा शनिवार के दिन होती है। इनकी पूजा काला तिल, काला वस्त्र, तेल, उड़द के द्वारा की जाती है। यह वस्तुएं शनिदेव को बहुत प्रिय है।
  • शनि की दशा को दूर करने के लिए यह व्रत किया जाता है। इनके प्रकोप में से बचने के लिए शनिसत्रोत का पाठ विशेष लाभदायक सिद्ध होता है।

|| शनिवार व्रत कथा ||

एक बार स्वर्गलोक में यह विवाद उठा कि नौ ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है? सभी ग्रहों में वाद-विवाद इतना बढ़ गया कि युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। अंततः निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुँचे।

देवराज इंद्र ने कहा— “मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। हम सब पृथ्वीलोक में उज्जयिनी नगरी के राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं।”

सभी ग्रह राजा विक्रमादित्य के पास पहुँचे और अपना प्रश्न रखा। राजा विक्रमादित्य कुछ समय तक विचार करते रहे, क्योंकि प्रत्येक ग्रह अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान था। अचानक राजा को एक उपाय सूझा। उन्होंने विभिन्न धातुओं से बने नौ सिंहासन तैयार कराए और प्रत्येक ग्रह को एक-एक सिंहासन पर बैठने के लिए कहा। धातुओं की श्रेष्ठता के आधार पर सिंहासनों को क्रमबद्ध रखा गया था।

जब सभी ग्रह अपने-अपने सिंहासन पर बैठ गए, तब राजा विक्रमादित्य बोले— “जो सबसे आगे बैठा है, वही सबसे बड़ा है।”

राजा के इस निर्णय से शनिदेव क्रोधित हो गए, क्योंकि उन्हें सबसे पीछे स्थान मिला था। शनिदेव ने क्रोध में कहा—
“राजा विक्रमादित्य! तुमने मेरा अपमान किया है। मैं तुम्हें इसका दंड अवश्य दूँगा। मैं जब किसी पर अपनी साढ़े साती की दृष्टि डालता हूँ, तो वह महान से महान शक्तिशाली भी मेरा प्रकोप सहन नहीं कर सकता।”

उन्होंने आगे कहा – “राम को वनवास भोगना पड़ा और रावण का अंत हुआ, यह सब मेरे साढ़े साती के कारण ही हुआ। अब तुम्हें भी मेरे प्रकोप का सामना करना होगा।”

कुछ दिनों बाद शनिदेव ने एक घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और सुंदर घोड़ों के साथ उज्जयिनी नगरी पहुँचे। जब राजा को इस व्यापारी की खबर मिली, तो उन्होंने स्वयं एक सुंदर घोड़ा खरीदने का निश्चय किया। जैसे ही राजा विक्रमादित्य घोड़े पर सवार हुए, वह बिजली की गति से दौड़ पड़ा और राजा को घने जंगल में ले जाकर अचानक गायब हो गया।

भूख-प्यास से परेशान राजा को एक चरवाहा मिला। उसने राजा को पानी पिलाया, बदले में राजा ने अपनी अंगूठी उसे दे दी। फिर वे एक नगर में पहुँचे और एक सेठ की दुकान पर विश्राम करने लगे। वहाँ बैठते ही सेठ की दुकान में अचानक खूब बिक्री होने लगी। सेठ ने राजा को भाग्यशाली मानते हुए उन्हें अपने घर भोजन के लिए बुलाया।

राजा जिस कक्ष में बैठे थे, वहाँ एक सोने का हार खूँटी पर टंगा था। अचानक राजा के सामने ही खूँटी ने वह हार निगल लिया। जब सेठ लौटा तो हार गायब देख राजा पर चोरी का आरोप लगा दिया। नगर के राजा ने विक्रमादित्य को चोर मानकर उनके हाथ-पैर कटवाने का आदेश दे दिया।

अब राजा विक्रमादित्य असहाय अवस्था में नगर की गलियों में पड़े रहे। कुछ दिनों बाद एक तेली उन्हें अपने घर ले गया और अपने कोल्हू पर बैलों को हांकने का काम सौंप दिया। इस प्रकार राजा शनिदेव के प्रकोप का कष्ट भोगते रहे।

साढ़े साती पूरी होने के बाद एक दिन राजा मेघ मल्हार राग गा रहे थे। उसी समय नगर की राजकुमारी मोहिनी वहाँ से गुजरी और उनकी मधुर आवाज सुनकर मोहित हो गई। उसने विकलांग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया।

राजा-रानी को विवाह के बाद एक दिन स्वप्न में शनिदेव के दर्शन हुए। शनिदेव ने कहा – “राजा! तुमने मेरे प्रकोप का प्रभाव देख लिया। अब मैं तुम पर कृपा करता हूँ। जो भी श्रद्धा से मेरी पूजा करेगा और शनिवार व्रत कथा सुनेगा, उस पर मेरी कृपा बनी रहेगी।”

सुबह जब राजा की नींद खुली, तो वे अपने कटे हुए हाथ-पैर को सही-सलामत देखकर चकित रह गए। उन्होंने शनिदेव को प्रणाम किया और इस चमत्कार का बखान किया। सेठ ने जब यह सुना, तो राजा से क्षमा मांगी और अपनी बेटी का विवाह भी उनसे कर दिया।

राजा विक्रमादित्य अपनी पत्नियों के साथ उज्जयिनी लौटे, जहाँ नगरवासियों ने हर्षोल्लास के साथ उनका स्वागत किया। उन्होंने पूरे राज्य में घोषणा करवाई कि शनिदेव ही सभी ग्रहों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक व्यक्ति को शनिवार के दिन उनका व्रत एवं पूजन करना चाहिए और उनकी कथा अवश्य सुननी चाहिए।

शनिदेव की कृपा से, जो भी श्रद्धा एवं भक्ति से इस व्रत को करता है, उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।

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