Durga Ji

देवी अपराध क्षमापन स्तोत्र हिन्दी अर्थ सहित

Devi Aparadha Kshamapana Stotram Hindi Lyrics

Durga JiStotram (स्तोत्र संग्रह)संस्कृत
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|| देवी अपराध क्षमापन स्तोत्र PDF ||

न मत्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ॥१॥

माँ! मैं न तो कोई मंत्र जानता हूँ, न यंत्र और न ही मुझे स्तुति का ज्ञान है. मुझे न आवाहन का पता है और न ही ध्यान का. मुझे स्तोत्र और कथाओं की भी कोई जानकारी नहीं है. मैं न तो तुम्हारी मुद्राएँ जानता हूँ और न ही मुझे व्याकुल होकर विलाप करना आता है; पर मैं एक बात जानता हूँ: केवल तुम्हारा अनुसरण करना – तुम्हारे पीछे चलना, जो समस्त क्लेशों और सभी दुःख-विपत्तियों को हर लेता है.

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् ।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥२॥

माँ, मैं पूजा की विधि नहीं जानता. मेरे पास धन का भी अभाव है. मैं स्वभाव से भी आलसी हूँ, और मुझसे ठीक से पूजा भी नहीं हो पाती. इन सब कारणों से तुम्हारे चरणों की सेवा में जो भी त्रुटि हो गई है, उसे क्षमा करना; क्योंकि कुपुत्र हो सकता है, लेकिन कुमाता कहीं नहीं होती.

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः ।
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥३॥

“माँ! इस धरती पर तुम्हारे कितने ही सरल और सीधे-साधे पुत्र होंगे, लेकिन उन सभी में मैं ही सबसे अधिक चपल और चंचल बालक हूँ। मेरे जैसा चंचल शायद ही कोई और हो। शिवे! यदि तुमने मेरा त्याग कर दिया है, तो यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है, क्योंकि इस संसार में कुपुत्र तो हो सकता है, परन्तु कुमाता कभी नहीं होती।”

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया ।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥४॥

“जगदम्बे! हे माता! मैंने कभी तुम्हारे चरणों की सेवा नहीं की, न ही तुम्हें कोई बड़ा धन अर्पित किया। फिर भी, मेरे जैसे पतित और तुच्छ पर तुम जो अपार स्नेह लुटाती हो, उसका एक ही कारण है — इस संसार में कुपुत्र तो जन्म ले सकता है, पर कुमाता कहीं नहीं होती।”

परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि ।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ॥५॥

“गणेशजी को जन्म देने वाली माँ पार्वती! जब मैं अन्य देवताओं की आराधना करता था, तब मुझे अनेक प्रकार की सेवाओं में व्यस्त रहना पड़ता था। अब जब मेरी आयु पचासी वर्ष से भी अधिक हो गई है, तो उन देवताओं की विधिवत सेवा-पूजा मुझसे नहीं हो पाती, और इस कारण अब उनसे कोई अपेक्षा भी नहीं रखता। ऐसी अवस्था में यदि तुम अपनी कृपा नहीं करोगी, तो मैं निराश्रय होकर किसकी शरण लूंगा?”

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः ।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥६॥

“हे माता अपर्णा! तुम्हारे मंत्र का केवल एक अक्षर यदि किसी के कानों में पड़ जाए, तो उसका प्रभाव इतना महान होता है कि अज्ञानी और अधम चांडाल भी मधुपर्क-सी मधुर वाणी बोलने वाला श्रेष्ठ वक्ता बन जाता है। दरिद्र और दीन व्यक्ति भी करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से समृद्ध होकर दीर्घकाल तक निडर जीवन व्यतीत करता है। जब केवल श्रवण मात्र से ऐसा चमत्कारी फल प्राप्त होता है, तो जो लोग विधिपूर्वक तुम्हारे मंत्र का नियमित जप करते हैं, उनके जप का फल कितना महान होगा — इसे भला कौन जान सकता है?”

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः ।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ॥७॥

“हे भवानी! जो अपने शरीर पर चिता की भस्म रमाते हैं, विष जिनका भोजन है, जो वस्त्रहीन होकर दिगंबर रूप में विचरण करते हैं, जिनके सिर पर जटाएँ सुशोभित हैं और गले में वासुकि नाग की माला शोभा पाती है, जिनके हाथ में कपाल भिक्षा पात्र के रूप में है — ऐसे भूतनाथ, पशुपति, शिव ही जब ‘जगदीश’ की सर्वोच्च पदवी पर प्रतिष्ठित हैं, तो इसका रहस्य क्या है? यह गौरव और महिमा उन्हें इसलिए प्राप्त हुई है क्योंकि उन्होंने तुम्हारा, हे पार्वती, तुम्हारा पाणिग्रहण किया है। तुम्हारे साथ विवाह होने से ही उनका महत्व और यश चतुर्दिक फैला है।”

न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः ।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥८॥

“हे माँ! जिनके मुख की शोभा चंद्रमा के समान प्रकाशमान है — मुझे न तो मोक्ष की कामना है, न ही इस संसार के वैभव की लालसा। मुझे न तो ज्ञान-विज्ञान की कोई अपेक्षा है, और न ही भोग-विलास या सुख की आकांक्षा। मेरी तो बस एक ही विनम्र प्रार्थना है — मेरा संपूर्ण जीवन ‘मृडाणी, रुद्राणी, शिव, शिव, भवानी’ जैसे तुम्हारे पावन नामों के जप में ही व्यतीत हो।”

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः ।
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ॥९॥

“हे माँ श्यामा! मुझसे कभी भी विधिपूर्वक नाना प्रकार की पूजन सामग्रियों द्वारा तुम्हारी आराधना नहीं हो सकी। मेरी वाणी, जो सदा कठोर विचारों में लिप्त रही, उसने कौन-सा अपराध नहीं किया होगा! फिर भी, तुम स्वयं ही कृपा करके मुझ अनाथ पर जो करुणा बरसाती हो, वह केवल तुम्हारे जैसी करुणामयी माँ के ही योग्य है। मेरी तरह के दोषयुक्त, कुपात्र पुत्र को भी यदि कोई आश्रय दे सकता है, तो वह केवल तुम ही हो, माँ!”

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि ।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ॥१०॥

“हे माता दुर्गे! करुणा की सागर, हे महेश्वरी! आज जब मैं विपत्तियों से घिरा हुआ हूँ, तब तुम्हारा स्मरण करता हूँ — कृपया इसे मेरी धूर्तता या स्वार्थ न समझना। जैसे कोई भूख-प्यास से पीड़ित बालक अपनी माँ को ही पुकारता है, वैसे ही संकट की इस घड़ी में मैं भी तुम्हें ही पुकार रहा हूँ, माँ!”

जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि ।
अपराधपरम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम् ॥११॥

“जगदम्बे! यदि मुझ पर तुम्हारी पूर्ण कृपा बनी हुई है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि पुत्र चाहे बार-बार अपराध करता रहे, फिर भी माँ कभी उसकी उपेक्षा नहीं करती। यही तो तुम्हारी मातृत्व-सुलभ करुणा और ममत्व की पराकाष्ठा है।”

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि ।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ॥१२॥

“हे महादेवी! इस संसार में मेरे जैसा पापी कोई नहीं, और तुम्हारे समान पापों का हरण करने वाली भी कोई नहीं है। जब यह सत्य है, तो अब जो तुम्हें उचित प्रतीत हो, वही करो — मैं पूरी तरह तुम्हारी शरण में हूँ।”

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