।। चालीसा ।।
शाश्वत तीर्थराज का, है यह शिखर विशाल।
भक्ति भाव से मैं रचूँ, चालीसा नत भाल।
जिन परमेष्ठी सिद्ध का, मन मैं करके ध्यान।
करुँ शिखर सम्मेद का, श्रद्धा से गुण-गान।
कथा शिखर जी की सदा, सुख संतोष प्रदाय।
नित्य नियम इस पाठ से, कर्म बंध कट जाये।
आये तेरे द्वार पर, लेकर मन में आस।
शरणागत को शरण दो, नत है शकुन-सुभाष।
।। चोपाई ।।
जय सम्मेद शिखर जय गिरिवर,
पावन तेरा कण-कण प्रस्तर।
मुनियो के तप से तुम उज्जवल,
नत मस्तक है देवो के दल।
जिनराजो की पद रज पाकर,
मुक्ति मार्ग की राह दिखाकर।
धन्य हुए तुम सब के हितकर,
इंद्र प्रणत शत शीश झुकाकर।
तुम अनादि हो तुम अनंत हो,
तुम दिवाली तुम बसंत हो।
मोक्ष मार्ग दर्शाने वाले,
जीवन सफल बनाने वाले।
श्वास – श्वास में भजनावलियाँ,
वीतराग भावों की कलियाँ।
खिल जाती है तब बयार से,
मिलता आतम सुख विचार से।
नंगे पैरों शुद्ध भाव से,
वंदन करते सभी चाव से।
पुण्यवान पाते है दर्शन,
छूटे नरक पशुगति के बंधन।
स्वाध्याय से ज्ञान बढ़ाते,
निज पर ही पहचान बनाते।
ध्यान लगाते कर्म नशाते,
वे सब जन ही शिव पद पाते।
अरिहंतो के शुभ वंदन से,
सिद्ध प्रभु के गुण-गायन से।
ऊंचे शिखरों से अनुप्राणित,
क्षेत्रपाल से हो सम्मानित।
हर युग में चौबीस तीर्थंकर,
ध्यान लीन हो इस पर्वत पर।
सबके सब वे मोक्ष पधारे,
अगणित मुनि गण पार उतारे।
काल दोष से वर्तमान में,
आत्मलीन कैवल्य ज्ञान में।
चौबीसी के बीस जिनेश्वर,
मुक्त हुए सम्मेद शिखर पर।
इंद्रदेव के द्वारा चिन्हित,
पद छापों से टोकें शोभित।
तप स्थली है धर्म ध्यान की,
सरिता बहती आत्म ज्ञान की।
तेरा सम्बल जब मिलता है,
हर मुरझाया मन खिलता है।
टोंक टोंक तीर्थंकर गाथा,
श्रद्धा से झुक जाता माथा।
प्रथम टोंक गणधर स्वामी की,
व्याख्या कर दी जिनवाणी की।
धर्म भाव संचार हो गया,
चिंतन से उद्धार हो गया।
ज्ञान कूट जिन ज्ञान अपरिमित,
कुंथुनाथ तीर्थंकर पूजित।
श्रद्धा भक्ति विवेक पवन में,
मिले शान्ति हर बार नमन में।
मित्रकुट नमिनाथ शरण में,
गुंजित वातावरण भजन में।
नाटक कूट जहाँ जन जाते,
अरहनाथ जी पूजे जाते।
संबल कूट सदा अभिनंदित,
मल्लिनाथ जिनवर है वन्दित।
मोक्ष गए श्रेयांश जिनेश्वर,
संकुल कूट सदा से मनहर।
सुप्रभ कूट से शिवपद पाकर,
वन्दित पुष्पदंत जी जिनवर।
मोहन कूट पद्म प्रभु शोभित,
होता जन जन को मन मोहित।
आगे पूज्य कूट है निर्जर,
मुनि सुव्रत जी पुजे जहां पर।
ललित कूट चंदा प्रभु पूजते,
सब जन पूजन वंदन करते।
विद्युतवर है कूट जहाँ पर,
पुजते श्री शीतल जी जिनवर।
कूट स्वयंभू प्रभु अनंत की,
वंदन करते जैन संत भी।
धवल कूट पर चिन्हित है पग,
संभव जी को पूजे सब जग।
कर आनंद कूट पर वंदन,
अभिनन्दन जी का अभिवंदन।
धर्मनाथ की कूट सुदत्ता,
पूजती है जिसकी गुणवत्ता।
अविचल कूट प्रणत जन सारे,
सुमतनाथ पद चिन्ह पखारे।
शांति कूट की शांति सनातन,
करते शांतिनाथ का वंदन।
कूट प्रभाश वाद्य बजते है,
जहाँ सुपारस जी पूजते है।
कूट सुवीर विमल पद वंदन,
जय जय कारा करते सब जन।
अजितनाथ की सिद्ध कूट है,
जिनके प्रति श्रद्धा अटूट है।
स्वर्ण कूट प्रभु पारस पूजते,
झांझर घंटे अनहद बजते।
पक्षी तन्मय भजन गान में,
तारे गाते आसमान में।
तुम पृथ्वी के भव्यभाल हो,
तीनलोक में बेमिसाल हो।
कट जाये कर्मो के बंधन,
श्री जिनवर का करके पूजन।
है ! सम्मेद शिखर बलिहारी,
मैं गाऊं जयमाल तिहारी।
अपने आठों कर्म नशाकर,
शिव पद पाऊं संयम धरकर।
तुमरे गुण जहां गाता है,
आसमान भी झुक जाता है।
है यह धरा तुम्ही से शोभित,
तेरा कण कण है मन मोहित।
भजन यहां जाती है टोली,
जिनवाणी की बोली, बोली।
तुम कल्याण करत सब जग का,
आवागमन मिटे भव भव का।
नमन शिखर जी की गरिमा को,
जिन वैभव को, जिन महिमा को।
संत मुनि अरिहंत जिनेश्वर,
गए यही से मोक्ष मार्ग पर।
भक्तो को सुख देने वाले,
सब की नैया खेने वाले।
मुझको भी तो राह दिखाओ,
भवसागर से पार लगाओ।
हारे को हिम्मत देते हो,
आहत को राहत देते हो।
भूले को तुम राह दिखाते,
सब कष्टों को दूर भगाते।
काम क्रोध मद जैसे अवगुण,
लोभ मोह जैसे दुःख दारुण।
कितना त्रस्त रहा में कातर,
पार करा दो यह भव सागर।
तुम हो सबके तारण हारे,
ज्ञान हीन सब पापी तारे।
स्वयं तपस्या लीन अखंडित,
सिद्धो की गरिमा से मंडित।
त्याग तपस्या के उद्बोधक,
कर्म जनित पीड़ा के शोधक।
ज्ञान बिना में दृष्टि हीन सा,
धर्म बिना में त्रस्त दीन सा।
तुम हो स्वर्ग मुक्ति के दाता,
दीन दुखी जीवो के त्राता।
मुझे रत्नत्रय ,मार्ग दिखाओ,
जन्म मरण से मुक्ति दिलाओ।
पावन पवन तुम्हारी गिरिवर,
गुंजित है जिनवाणी के स्वर।
अरिहंतो के शब्द मधुर है,
सुनने को सब जन आतुर है।
तुम कुंदन में क्षुद्र धूलिकण,
तुम गुण सागर में रीतापन।
पुण्य धाम तुम मैं हूँ पापी,
कर्म नशा दो धर्म प्रतापी।
तेरी धूल लगाकर माथे,
सुरगण तेरी गाथा गाते।
वातावरण बदल जाता है,
हर आचरण संभल जाता है।
तुम में है जिन टोंको का बल,
तुम में है धर्म भावना निर्मल।
दिव्य वायुमंडल जन हित का,
करदे जो उद्धार पतित का।
मैं अज्ञान तिमिर में भटका,
इच्छुक हूँ भव सागर तट का।
मुझको सम्यक ज्ञान करा दो,
मन के सब संत्रास मिटा दो।
तुम में है जिनवर का तप बल,
मन पर संयम होता हर पल।
नित्य शिखर जी के गुण गाऊं,
मोक्ष मार्ग पर बढ़ता जाऊं। 40
।। दोहा ।।
श्रद्धा से मन लाये,
जो यह चालीसा पढ़े।
भव सागर तीर जाये,
कर्म बंध से मुक्त हो।
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