|| श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति पौराणिक कथा ||
दारूका एक प्रसिद्ध राक्षसी थी, जो देवी पार्वती से वरदान प्राप्त कर अहंकार में डूबी रहती थी। उसका पति दरुका महान बलशाली राक्षस था। उसने अनेक राक्षसों को अपने साथ मिलाकर समाज में आतंक फैला रखा था। वह यज्ञ और शुभ कर्मों को नष्ट करता और संत-महात्माओं का संहार करता था। वह प्रसिद्ध धर्मनाशक राक्षस था। पश्चिम समुद्र के किनारे सोलह योजन के विस्तार में उसका एक वन था, जिसमें वह निवास करता था।
दारूका जहाँ भी जाती, अपने विलास के लिए उस वनभूमि को वृक्षों और विभिन्न उपकरणों से सजाकर साथ ले जाती थी। महादेवी पार्वती ने उस वन की देखभाल का दायित्व दारूका को ही सौंपा था, जो उनके वरदान के प्रभाव से उसके पास रहता था। उससे पीड़ित आम जनता ने महर्षि और्व के पास जाकर अपना कष्ट सुनाया।
महर्षि और्व ने शरणागतों की रक्षा करते हुए राक्षसों को शाप दिया। उन्होंने कहा कि जो राक्षस पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा और यज्ञों का विनाश करेगा, वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा।
महर्षि और्व के शाप की सूचना जब देवताओं को मिली, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर चढ़ाई कर दी। राक्षसों पर संकट आ पड़ा। यदि वे युद्ध में देवताओं को मारते हैं, तो शाप के कारण मर जाएँगे और यदि उन्हें नहीं मारते, तो पराजित होकर भूखों मर जाएँगे।
इस संकट में दारूका ने राक्षसों को सहारा दिया और भवानी के वरदान का प्रयोग करते हुए वह सम्पूर्ण वन को लेकर समुद्र में जा बसी। इस प्रकार राक्षसों ने धरती को छोड़ दिया और निर्भयतापूर्वक समुद्र में निवास करने लगे, वहाँ भी प्राणियों को सताने लगे।
एक बार सुप्रिय नामक एक धर्मात्मा और सदाचारी शिव भक्त वैश्य जब नौका पर सवार होकर समुद्र में जलमार्ग से कहीं जा रहा था, तब दरूक नामक एक भयंकर बलशाली राक्षस ने उस पर आक्रमण कर दिया।
राक्षस दारूक ने सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण कर लिया और अपनी पुरी में ले जाकर उसे बन्दी बना लिया। सुप्रिय शिव जी का अनन्य भक्त था, इसलिए वह हमेशा शिवजी की आराधना में तन्मय रहता था। कारागार में भी उसकी आराधना बन्द नहीं हुई और उसने अपने अन्य साथियों को भी शिवजी की आराधना के प्रति जागरूक कर दिया। वे सभी शिवभक्त बन गये। कारागार में शिवभक्ति का ही बोल-बाला हो गया।
जब इसकी सूचना राक्षस दारूक को मिली, तो वह क्रोध में उबल उठा। उसने देखा कि कारागार में सुप्रिय ध्यान लगाए बैठा है, तो उसे डाँटते हुए बोला- वैश्य! तू आँखें बन्द करके मेरे विरुद्ध कौन सा षड्यन्त्र रच रहा है? वह जोर-जोर से चिल्लाता हुआ धमका रहा था, लेकिन इसका सुप्रिय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
घमंडी राक्षस दारूक ने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि इस शिवभक्त को मार डालो। अपनी हत्या के भय से भी सुप्रिय नहीं डरा और वह भयहारी, संकटमोचक भगवान शिव को पुकारने में ही लगा रहा। उसने कहा, “देव! आप ही हमारे सर्वस्व हैं, आप ही मेरे जीवन और प्राण हैं।”
सुप्रिय वैश्य की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव एक बिल से प्रकट हो गये। उनके साथ ही चार दरवाजों वाला एक सुन्दर मन्दिर प्रकट हुआ। उस मन्दिर के मध्यभाग (गर्भगृह) में एक दिव्य ज्योतिर्लिंग प्रकाशित हो रहा था और शिव परिवार के सभी सदस्य भी वहाँ विद्यमान थे। वैश्य सुप्रिय ने शिव परिवार सहित उस ज्योतिर्लिंग का दर्शन और पूजन किया।
शिव भगवान सुप्रिय की पूजा से प्रसन्न होकर स्वयं पाशुपतास्त्र लेकर प्रमुख राक्षसों और उनके अनुचरों को तथा उनके सभी अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट कर दिया।
भगवान शिव ने अपने भक्त सुप्रिय की रक्षा करने के बाद उस वन को भी वरदान दिया कि, इस वन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारों वर्णों के धर्मों का पालन किया जाएगा। इस वन में शिव धर्म के प्रचारक श्रेष्ठ ऋषि-मुनि निवास करेंगे और यहाँ तामसिक दुष्ट राक्षसों के लिए कोई स्थान नहीं होगा।
राक्षसों पर आए इस भारी संकट को देखकर राक्षसी दारूका ने दीन भाव से देवी पार्वती की स्तुति की। उसकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर माता पार्वती ने पूछा- बताओ, मैं तेरा कौन सा प्रिय कार्य करूँ? दारूका ने कहा- माँ! आप मेरे कुल की रक्षा करें।
पार्वती ने उसके कुल की रक्षा का आश्वासन देते हुए भगवान शिव से कहा: “नाथ! आपकी कही हुई बात इस युग के अन्त में सत्य होगी, तब तक यह तामसिक सृष्टि भी चलती रहे, ऐसा मेरा विचार है।” माता पार्वती शिव से आग्रह करती हुईं बोलीं, “मैं भी आपके आश्रय में रहने वाली हूँ, आपकी ही हूँ, इसलिए मेरे द्वारा दिये गये वचन को भी आप प्रमाणित करें।
यह राक्षसी दारूका राक्षसियों में बलिष्ठ, मेरी ही शक्ति तथा देवी है। इसलिए यह राक्षसों के राज्य का शासन करेगी। ये राक्षसों की पत्नियाँ अपने राक्षसपुत्रों को पैदा करेगी, जो मिल-जुल कर इस वन में निवास करेंगे-ऐसा मेरा विचार है।”
माता पार्वती के आग्रह को सुनकर भगवान शिव ने उनसे कहा: “प्रिय! तुम मेरी भी बात सुनो। मैं भक्तों का पालन और उनकी सुरक्षा के लिए प्रसन्नतापूर्वक इस वन में निवास करूँगा। जो मनुष्य वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए श्रद्धा-भक्ति पूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा बनेगा।”
कलियुग के अन्त में और सतयुग के प्रारम्भ में महासेन का पुत्र वीरसेन राजाओं का महाराज होगा। वह मेरा परम भक्त और बड़ा पराक्रमी होगा। जब वह इस वन में आकर मेरा दर्शन करेगा, उसके बाद वह चक्रवर्ती सम्राट हो जाएगा।
इस प्रकार शिव-दम्पत्ति ने बड़ी-बड़ी लीलाएँ करते हुए आपस में हास्य-विलास की बातें की और वहीं स्थित हो गए। इस प्रकार शिवभक्तों के प्रिय ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान शिव नागेश्वर कहलाए और पार्वती देवी भी नागेश्वरी के नाम से विख्यात हुईं।
शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए हैं, जो तीनों लोकों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के बाद जो मनुष्य उसकी उत्पत्ति और माहात्म्य सम्बन्धी कथा को सुनता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और सम्पूर्ण भौतिक और आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करता है।
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