लोकोत्सव केवल उल्लास और आनन्द की अभिव्यक्ति नहीं हैं, वरन् लोकसंस्कृति के संस्थान भी हैं । उनमें जहाँ रहन-सहन, वेश-भूषा, खान-पान, रीति-रिवाज और चाल-ढाल की झाँकी मिलती है, वहाँ लोकादर्श, लोकधर्म, लोकदर्शन और लोकसंबंधों की सीख भी अनायास प्राप्त हो जाती है । इस दृष्टि से लोकोत्सव आज के मशीनी युग में आस्था और वि·ाास के प्रतीक हैं । यदि वर्तमान लोकजीवन में लोकसंस्कृति की तस्वीर देखनी हो, तो वह लोकोत्सवों के समय घरों के भीतर आँगन या पूजागृह में नारियों के अनुष्ठान, त और त्योहार से संबंधित क्रियाकलापों, आलेखनों एवं कथाओं तथा घरों के बाहर पुरुषों के क्षणिक उल्लासमय परम्परा-पालन में ही मिलेगी ।
यहाँ लोकोत्सवों के अंतर्गत त, पर्व और त्यौहार लिये गए हैं । त में सम्यक संकल्प से किया गया अनुष्ठान होता है, जो उपवास आदि के रूप में निवृत्तिपरक और विशिष्ट भोजन, पूजन आदि के रूप में प्रवृत्तिप रक कहा जा सकता है । कुछ त सामान्यतः हमेशा रखे जाते हैं क्योंकि उनसे मोक्ष मिलता है, जबकि दूसरे किसी -न-किसी कारण से किये जाते हैं ।