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मार्गशीर्ष पूर्णिमा व्रत कथा

Margashirsha Purnima Vrat Katha Hindi

MiscVrat Katha (व्रत कथा संग्रह)हिन्दी
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|| मार्गशीर्ष पूर्णिमा व्रत कथा ||

पूर्णिमा व्रत कथा के अनुसार, द्वापर युग में माता यशोदा ने अपने पुत्र श्रीकृष्ण से कहा, “हे कृष्ण! तुम सृष्टि के रचयिता और पालनहार हो। कृपया मुझे ऐसा उपाय बताओ, जिससे स्त्रियों को सौभाग्य प्राप्त हो और उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाएं।” तब श्रीकृष्ण ने कहा, “हे माता! स्त्रियों को सौभाग्य की प्राप्ति के लिए बत्तीस पूर्णिमा का व्रत करना चाहिए। मैं आपको इसके बारे में विस्तार से बताता हूं।”

द्वापर युग में ‘कातिका’ नामक नगरी पर चन्द्रहास नाम के राजा का शासन था। वहां एक धनेश्वर नाम का ब्राह्मण अपनी सुशील और सुंदर पत्नी के साथ रहता था। उनके घर में धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी, लेकिन संतान न होने के कारण वे दुखी रहते थे। एक दिन, एक तपस्वी उस नगरी में आया और उसने सभी घरों से भिक्षा ली, सिवाय धनेश्वर के घर के। यह देखकर धनेश्वर ने तपस्वी से इसका कारण पूछा। तपस्वी ने उत्तर दिया, “निःसंतान के घर की भिक्षा पतित मानी जाती है। इसलिए मैं तुम्हारे घर से भिक्षा नहीं लेता।”

तपस्वी की बात सुनकर धनेश्वर ने उनसे पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा। तपस्वी ने उन्हें देवी चंडी की उपासना करने का सुझाव दिया। धनेश्वर ने वन में जाकर चंडी देवी की आराधना की। सोलहवें दिन देवी ने स्वप्न में प्रकट होकर कहा, “हे धनेश्वर! तुम्हें पुत्र होगा, लेकिन वह सोलह वर्ष की आयु तक ही जीवित रहेगा। यदि तुम बत्तीस पूर्णिमा का व्रत करोगे, तो वह दीर्घायु होगा। प्रातःकाल एक आम का पेड़ दिखेगा, उससे फल तोड़कर अपनी पत्नी को खिलाओ।”

धनेश्वर ने ऐसा ही किया, और उनकी पत्नी गर्भवती हो गई। देवी की कृपा से एक सुंदर पुत्र हुआ, जिसका नाम देवीदास रखा गया। उसकी माता ने बत्तीस पूर्णिमा का व्रत करना शुरू कर दिया। जब देवीदास सोलह वर्ष का हुआ, तो उसके माता-पिता चिंतित हो गए। उन्होंने उसे काशी विद्याध्ययन के लिए भेज दिया।

एक बार देवीदास और उसके मामा ने रात एक नगर में बिताई, जहां एक कन्या का विवाह हो रहा था। संयोगवश, वर बीमार हो गया, और कन्या के पिता ने देवीदास को अस्थायी रूप से वर बनाने का प्रस्ताव दिया। इस तरह देवीदास का विवाह हो गया, लेकिन उसने अपनी पत्नी को अपनी कम आयु के बारे में बता दिया। उसकी पत्नी ने कहा, “आपके साथ जो होगा, वही मेरी भी गति होगी।”

बत्तीस पूर्णिमा के व्रत के प्रभाव से देवीदास मृत्यु से बच गया। शिव और पार्वती ने देवीदास को जीवनदान दिया। सोलहवां वर्ष पूरा होने के बाद देवीदास काशी से वापस लौट आया और अपनी पत्नी के साथ सुखी जीवन व्यतीत करने लगा।

श्रीकृष्ण ने कहा, “जो स्त्रियां बत्तीस पूर्णिमा का व्रत करती हैं, वे जीवनभर सौभाग्यवती रहती हैं। यह व्रत सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करता है और वैधव्य के दुख से रक्षा करता है।”

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