!! श्री ज्ञान चालीसा !!
पानी पीवे छान कर,
जीव जन्तु बच जाय !
जीव दया अति पुण्य हैं,
रोग निकट नहि आय !!
झूठे पुरुषो से कभी,
कोई न करता प्रीत!
सच्चे आदर पाते है,
जग जस लेते जीत !!
चोर नित्य चोरी करे,
रहे न कुछ भी पास !
वनों पहाड़ो भागते,
दुःख पावे दिन रात !!
सेय पराई नार को,
तन मन धन को खोत !
फिर भी सुख मिला नहीं,
मौत भयानक लेत !!
जोड़ जोड़ संचय करे,
परिग्रह अपरम्पार !
कितने दिन है जीवना,
क्यों नित ढोते भार!!
कुटुम्ब मोह का जाल है,
कोई न जावे साथ!
भला बुरा जो कर गया,
बनी रहेगी गाथ !!
बीड़ी मदिरा पीवना,
नहीं भलो का काम !
भंग आदि की लत बुरी,
क्यों होते बदनाम !!
रोगी तन को ठीक कर,
ब्रह्मचर्य को पाल !
बिन पैसों की यह दवा,
दूर भगावे काल !!
मरा कौन सब पूछते,
पूछ भुलाते बात !
चाल चूक शतरंज की,
हो जाती है मात !!
सुख दुःख नित ही देखते,
क्यों न लगावे ध्यान !
चिन्ता को अब छोड़कर,
धारो सम्यक ज्ञान !!
कितने दिन का जीवना,
कितने दिन की चाह !
ज्ञानी लेखा सोच ले,
मौलिक जीवन जांह !!
ऊपर से धर्मी बने,
भीतर शुद्ध न एक !
रात दिवस इत उत फिरे,
किस विधि रहती टेक !!
कारज को करते चलो,
तन मन वश में राख !
होगी निश्चय ही विजय,
विपदा आवे लाख !!
पाप अनेको ही किये,
मुक्ति किस विधि होय !
छुटेंगे जंजाल सब,
पाप मैल सब धोय !!
झूठे स्वार्थ को छोडकर,
सत को उर में धार !
इस भव में शोभा बढे,
आगे बेडा पार !!
पहले निज हो शुद्ध कर,
पीछे पर उपदेश !
जो कहते करते नहीं,
वे पाते हैं क्लेश !!
भीतर देह घिनावनी,
रोगों का हैं धाम !
जब तक परदा ठीक है,
करले अपना काम !!
देख बुढ़ापे की दशा,
थर थर कांपे गात !
बुरे बुरे दिन बीतते,
कोई न सुनता बात !!
पता किसी को न पड़े,
कब आयेगा काल !
क्यों माया में उलझता,
हैं मकड़ी का जाल !!
क्यों आया क्या कर गया,
ज्ञानी पूछे बात !
लेखा कैसे देयगा,
क्या ले जाता हाथ !!
पापी तू तिर जाएगा,
निश्चय ही यह मान !
पीछे की मत याद कर,
आगे को पहचान !!
आये वो सब जायेंगे
जग की यह हैं रीत !
थोड़े स्वार्थ के लिए,
क्यों गाता है गीत !!
चाहे जितना हो भला,
सुख दुःख का नहीं मेल !
कब दुःख कब सुख आ पड़े,
देख जगत का खेल !!
रोग नहीं हैं छोड़ता,
पापी हो या सन्त !
इससे बचने के लिए,
पकड़ो आत्म कंत !!
घूम रहा संसार में,
कर कर उल्टी बात !
अब भी चेतन सोच ले,
तज पुदगल का तात !!
वृषशाला दिन तीन की,
नए मुसाफिर आत !
तू कब तक रह पायेगा,
सोच ज्ञान की बात !!
नाम जगत में करन को,
रूपये खर्चे लाख !
सच्ची सेवा के बिना,
जम न सकेगी साख !!
मुर्ख ! जवानी जोर में,
किये पाप बहुघोर !
अब भी चेतन चेतजा,
विषय धर्म के चोर !!
बीती ताहि विसार दे,
आगे की सुध लेय !
प्याला विष का छोड़कर,
आत्म अमृत सैय !!
जीना मरना एकसा,
मनुष्य जन्म को पाय !
आकर कुछ भी न किया,
झूठा रुदन मचाय !!
गन्धक में पारा मिला,
तपे पृथक हो जाय !
इसी तरह यह आत्मा,
तन जड़ से हट जाय!!
क्रोध, कषाय हैं बुरा,
समझो इसको आप !
मिनटों में झट मारता,
गिने न माँ या बाप !!
शास्त्र अनेको ही सुने,
दिया न असली ध्यान !
पोथी पढ़ पढ़ रह गये,
उर में हुआ न ज्ञान !!
न्यारे न्यारे पन्थ यह,
हट की करते बात !
सत कोई ना खोजता,
मारग कैसे पात !!
अहंकार के कारने,
लड़ते दिन व रात !
घर को नरक बना दिया,
तदपि छुटी न बात !!
लक्ष्मी चंचल है अति,
सदा न रहती साथ !
दान न कोडी कर सका,
जाता खाली हाथ !!
सेवा जननी जनक की,
तीरथ है घर माही !
क्यों जग में खोजत फिरे,
कल्प तरु की छांह !!
पुण्य चीज़ कुछ ओर हैं,
धर्म मोक्ष कुछ ओर !
पुण्य जगत का खेल हैं,
धर्म मोक्ष की ठोर !!
होनी है सो होयेगी,
मन में धीरज धार !
झूठा शकुन विचारता,
क्या पावेगा पार !!
दुःख से बचने के लिए,
छोड़ो पर की आस !
आत्म बल सबसे बड़ा,
सदा तुम्हारे पास !!
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