|| श्री सत्य नारायण पूजन विधि ||
जो व्यक्ति भगवान् श्री सत्य नारायण की पूजा का संकल्प लेते हैं, उन्हें दिन भर व्रत रखना चाहिए। पूजन स्थल को गाय के गोबर से पवित्र करके वहाँ एक अल्पना बनाएँ और उस पर पूजा की चौकी रखना चाहिये। इस चौकी के चारों पायों के पास केले के पत्तों को लगाकर और पत्तों के वन्दनवारो से एक सुन्दर मंडप तैयार करना चाहिये। इस चौकी पर ठाकुर जी और भगवान् श्री सत्य नारायण की प्रतिमा स्थापित करें। पूजा करते समय सबसे पहले गणपति की पूजा करें। नवग्रह की स्थापना करके, इनकी पूजा के पश्चात ठाकुर जी व भगवान् श्री सत्य नारायण की पूजा करें।
पूजा के बाद सभी देवों की आरती करें और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण करें। पुरोहित जी को समुचित दक्षिणा एवं वस्त्र दे व भोजन कराएँ।पुराहित जी के भोजन के पश्चात उनसे आशीर्वाद लेकर आप स्वयं भोजन करें।
|| पूजा की सामग्री ||
इनकी पूजा में केले के पत्ते व फल के अलावा पंचामृत, पंच गव्य, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा की आवश्यक्ता होती है। भगवान् श्री सत्य नारायण की पूजा के लिए दूध, मधु, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है जो भगवान् को प्रिय है। इसके अलावा फल, मिष्टान के अलावा आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर एक प्रसाद बनता वह भी भोग लगता है। जब गृहस्थ को भगवान् श्री सत्य नारायण की कथा करवानी हो तो इन सामग्रियों की व्यवस्था कर लेनी चाहिये।
|| सत्यनारायण व्रत कथा ||
एक बार नैमिषारण्य में तपस्या करते हुए शौनकादिक ऋषियों ने सूत जी से पूछा कि ऐसा कौन सा व्रत या तप है, जिसके करने से मनुष्य मनोवांछित फल प्राप्त कर सकता है ?
सूत जी ने कहा कि एक बार नारद जी ने भी भगवान् श्री हरी विष्णु से ऐसा ही प्रश्न किया था। तब भगवान् श्री हरी विष्णु ने उनके सामने जिस व्रत का वर्णन किया वही मैं आपसे कहता हूँ।
|| प्रथम अध्याय ||
प्राचीन काल में काशीपुर में एक अति निर्धन ब्राह्मण था। ब्राह्मण भिक्षा के लिए दिन भर भटकता रहता था। भगवान् विष्णु को उस ब्राह्मण की दीनता पर दया आई और एक दिन भगवान् स्वयं बूढ़े ब्राह्मण का वेष धारण कर उस विप्र के पास पहुँचे। विप्र से उन्होंने उनकी परेशानी सुनी और उन्हें भगवान् सत्य नारायण पूजा की विधि बताकर अंतर्धान हो गए।
ब्राह्मण अपने मन में भगवान् श्री सत्य नारायण व्रत करने का निश्चय करके लौट आया। इसी चिंता में उसे सारी रात नीद नहीं आई। सवेरा होते ही ब्राह्मण भगवान् श्री सत्य नारायण का व्रत का संकल्प करके भिक्षा के लिए निकला। उसे दिन और दिनों से अधिक धन धान्य मिला। ब्राह्मण ने श्रद्धा पूर्वक सत्यनिष्ठ होकर भगवान् श्री सत्य नारायण की पूजा एवं कथा की। इसके प्रभाव से उसकी दरिद्रता समाप्त हो गयी और वह धन धान्य से सम्पन्न हो गया। जब तक जीवित रहा तब तक हर महीने व्रत को करता रहा और अंत में भगवान् श्री हरी विष्णु लोक को गया।
|| द्वितीय अध्याय ||
एक दिन वह ब्राह्मण अपने बंधुओ के साथ भगवान् श्री सत्यदेव जी की कथा सुन रहे थे। तभी वहाँ भूख प्यास से व्याकुल एक लकड़हारा आ गया और भूख प्यास भूलकर कथा सुनने लगा। कथा की समाप्ति पर उसने प्रसाद और जल पिया। विप्र से भगवान् श्री सत्य नारायण की कथा की पूजन विधि जानकर वह लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ और मन ही मन भगवान् श्री सत्य नारायण व्रत का संकल्प लेकर लकड़ी लेकर बाजार में बेचने चला गया। उस दिन उसे लकडियों का दुगना दाम मिला। उन्ही पैसो से उसने केले, दूध, दही आदि से भगवान् की पूजा की और कुछ ही दिनों में वह धनवान हो गया।
|| तृतीय अध्याय ||
सूतजी ने कहा :– हे श्रेष्ठ मुनियो! अब आगे की एक कथा कहता हूँ। पूर्वकाल में उल्कामुख नाम का एक महान बुद्धिमान राजा था। वह सत्य वक्ता और जितेंद्रिय था। प्रतिदिन देवस्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली और सती साध्वी थी।भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों ने भगवान् श्री सत्य नारायण का व्रत किया। उस समय वहाँ साधु नामक एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिए बहुत-सा धन था। वह वैश्य नाव को किनारे पर ठहराकर राजा के पास आया।
राजा को व्रत करते हुए देखकर उसने विनय के साथ पूजा :- हे राजन! भक्ति युक्त चित्त से यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है। कृप्या आप यह मुझे भी बताइए। महाराज उल्कामुख ने कहा :- हे साधु वैश्य! मैं अपने बंधु-बांधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए भगवान् सत्य नारायण का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुनकर साधु नामक वैश्य ने आदर से कहा :- हे राजन! मुझे भी इसका सब विधान बताएँ, मैं भी आपके कथनानुसार इस व्रत को करूँगा। मेरे भी कोई संतान नहीं है। मुझे विश्वास है कि इससे निश्चय ही मेरे भी संतान होगी।
राजा से सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह वैश्य आनंद के साथ अपने घर आया। वैश्य ने अपनी पत्नी लीलावती से व्रत का सब वृतांत कहा और संकल्प किया कि मै भी संतान होने पर यह व्रत करूँगा।
एक दिन उसकी पत्नी लीलावती आनंदित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत्त होकर श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। दिनों दिन वह कन्या इस तरह बढ़्ने लगी, जैसे शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है। कन्या का नाम कलावती रखा गया। तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को स्मरण दिलाया कि आपने जो भगवान् का व्रत करने का संकल्प किया था, अब आप उसे पूरा करिये।
साधु वैश्य ने कहा :- हे प्रिय! मैं कन्या के विवाह पर इस व्रत को करूँगा। इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह व्यापार करने चला गया।
कलावती पितृगृह में वृद्धि को प्राप्त हो गई। लौटने पर साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी पुत्री को खेलते देखा तो दूत को बुलाकर कहा कि उसकी पुत्री के लिए कोई सुयोग्य वर देखकर लाओ। साधु नामक वैश्य की आज्ञा पाकर दूत कंचन नगर पहुँचा और खोज करवाई और वैश्य की लड़की के लिए एक सुयोग्य वणिक पुत्र ले आया। उस सुयोग्य लड़के को देखकर साधु नामक वैश्य ने अपने बंधु-बांधवों सहित प्रसन्न चित्त होकर अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया। फिर विवाह के समय भी सत्य नारायण भगवान् का व्रत नहीं किया। इस पर श्री भगवान् क्रोधित हो गए।
अपने कार्य में कुशल साधु नामक वैश्य अपने जामाता सहित नावों को लेकर व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसार पुर नगर में गया। दोनों ससुर-जमाई चंद्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान् श्री सत्य नारायण की माया से प्रेरित एक चोर राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था। राजा के सिपाहियों को अपने पीछे वेग से आते देखकर चोर ने घबराकर राजा के धन को वहीं, साधु वैश्य और उसके जामाता की नाव में चुपचाप रख दिया और भाग गया। वहीं वे ससुर-जमाई ठहरे हुए थे। जब सिपाहियों ने उस साधु वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो ससुर-जामाता दोनों को बाँधकर ले गए और राजा के समीप जाकर बोले :- हम ये दो चोर पकड़कर लाए हैं।
तब राजा ने बिना उनकी बात सुने बिना ही उन्हे कारागार में डालने की आज्ञा दी। इस प्रकार राजा की आज्ञा से उनको कठिन कारावास में डाल दिया गया तथा उनका धन भी छीन लिया गया। भगवान् सत्य नारायण के क्रोध के कारण साधु वैश्य की पत्नी लीलावती व पुत्री कलावती भी घर पर बहुत दुखी हुईं। उनके घर में रखा धन चोर चुराकर ले गए। शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख-प्यास अति दुखित हो भोजन की चिंता मे कलावती की कन्या एक ब्राह्मण के घर गई। वहाँ उसने ब्राह्मण को भगवान् श्री सत्य नारायण का व्रत करते देखा। उसने कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई। माता ने कलावती से पूछा :- हे पुत्री! तू अब तक कहाँ रही व तेरे मन में क्या है?
कलावती बोली :- हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर भगवान् श्री सत्य नारायण का व्रत होते देखा है। कन्या के वचन सुनकर लीलावती को अपने पति की गलती याद आ गई। उसने भगवान् श्री सत्य नारायण के व्रत-पूजन का निश्चय किया और तैयारी की। उसने परिवार और बंधुओं सहित भगवान् श्री सत्य नारायण का पूजन व व्रत किया और और विनय से कहने लगी :– मेरे पति संकल्प करके भी जो आपका व्रत नहीं किया उसी से आप अप्रसन्न हुए थे।अब कृपा करके उनके अपराध को क्षमा कर दीजिये और मेरे पति और दामाद को शीघ्र ही घर लौटा दीजिये। भगवान् श्री सत्य नारायण इस व्रत से संतुष्ट हो गए।
उन्होंने राजा चंद्रकेतु को स्वपन में दर्शन देकर कहा :– हे राजन! जिन दोनों वैश्यों को तुमने बंदी बना रखा है, वे निर्दोष हैं, उन्हें प्रातः ही छोड़ दो। उनका सब धन जो तुमने ग्रहण किया है :- लौटा दो, अन्यथा मैं तुम्हारा धन, राज्य, पुत्रादि सब नष्ट कर दूँगा।
प्रातः काल राजा चंद्रकेतु ने सभा में सबको अपना स्वप्न सुनाया और सैनिकों को आज्ञा दी कि दोनों वणिकों को कैद से मुक्त कर सभा में लाया जाए। दोनों ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा ने कोमल वचनों में कहा- हे महानुभावो! तुम्हें भावीवश ऐसा कठिन दुख प्राप्त हुआ है। अब तुम्हें कोई भय नहीं है, तुम मुक्त हो। इसके बाद राजा ने उनको नए-नए वस्त्राभूषण प्रदान किये तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दूना लौटाकर आदर सहित विदा किया।
ससुर और दामाद कारागार से मुक्त हुए और दोनों नौका लेकर अपने घर को चल दिए तभी भगवान् सत्यदेव जी एक संन्यासी के वेश में उनके समीप आये और बोले कि तुम्हारी नौका में क्या है? तो साधु वाणिक ने दण्डी स्वामी से झूठ बोल दिया कि उसकी नौका में रत्नादि नहीं, मात्र लता-पत्र हैं।
दंडीस्वामी ने कहा :– ऐसा ही हो। स्वामी के चले जाने पर वणिक ने देखा कि नौका हल्की होकर ऊपर को उठ गई है। उसे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि नौका में सचमुच लता पता भर गए थे। वह बेहोश होकर गिर पड़ा किन्तु दामाद ने दंडी स्वामी के पास जाकर क्षमा माँगी तो भगवान् प्रसन्न हो गए और नौका वापस रत्नों से भर गई।
उन दोनों ने वहीं भगवान् श्री सत्य नारायण का व्रत किया। अपने नगर के समीप पहुँचकर साधु वाणिक ने लीलावती के पास अपने आने का समाचार भेजा। लीलावती उस समय कलावती के साथ भगवान् श्री सत्य नारायण की कथा सुन रही थी। समाचार सुनते ही लीलावती ने कहा :– कि मै तुम्हारे पिता और पति का स्वागत करने के लिए जा रही हूँ तुम भी प्रसाद लेकर शीघ्र आ जाना। कलावती अपने पिता और पति से मिलने के लिए दौडी। इस हडबडी में वह भगवान् का प्रसाद ग्रहण करना भूल गई। प्रसाद न ग्रहण करने के कारण उसके पिता और दामाद नाव सहित समुद्र में डूब गए। तभी आकाशवाणी हुई जिससे कलावती को अपनी भूल की याद आई। वह दौडी-दौडी घर आई और भगवान् का प्रसाद लिया तो नौका ऊपर आ गई यह देखकर सभी प्रसन्न हुए और घर पहुँचकर सत्यनारायण का व्रत और पूजन किया।
|| चतुर्थ अध्याय ||
इसके पश्चात सूत जी बोले :– एक समय राजा तुंगध्वज शिकार खेलने के लिए गया। वहाँ उसने देखा कि एक स्थान पर गोपबन्धु भगवान् श्री सत्य नारायण की पूजा कर रहे थे। राजसत्ता मद में तुंगध्वजन ना तो पूजास्थल पर गए और न ही गोपबंधुओं द्वारा प्रदत्त भगवान् का प्रसाद ग्रहण किया। इसीलिए उन्हें कष्ट भोगना पडा। जैसे ही राजा राजद्वार तक पहुँचे उन्हें मालूम हुआ कि उसके पुत्र-पौत्र और धन संपत्ति नष्ट हो गए हैं। उसे वन कि घटना याद आ गई वह तुरंत वन की ओर दौड़ा और भगवान् श्री सत्यदेव जी का पूजन कर प्रसाद ग्रहण किया इसके बाद लौटा तो उसके मृत पुत्र-पौत्र जीवित हो गए और सारी संपत्ति भी जो की त्यों हो गई। उन्होंने भगवान् श्री सत्य नारायण की पूजा की और सत्याचरण का व्रत लिया।
सूत जी कहते हैं :– ये लोग भगवान् श्री सत्य नारायण की पूजा से मृत्यु पश्चात उत्तम लोक गये और कालान्तर में भगवान् श्री हरी विष्णु की सेवा में रहकर मोक्ष के भागी बने।
|| कथा सार ||
भगवान् श्री सत्य नारायण की व्रत कथा के उपर्युक्त पांचों पात्र, मात्र कथा पात्र ही नहीं, वे मानव मन की दो प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं। ये प्रवृत्तियाँ हैं :- सत्याग्रह एवं मिथ्याग्रह। जगत में सर्वदा इन दोनों प्रवृत्तियों के धारक रहते हैं। यह संदेश देता है कि :– निर्धन एवं सत्ताहीन व्यक्ति भी सत्याग्रही, सत्यव्रती,सत्यनिष्ठ हो सकता है और धन तथा सत्ता संपन्न व्यक्ति मिथ्याग्रही हो सकता है। शतानन्द ब्राह्मण और लकड़ी विक्रेता निर्धन और सत्ताहीन थे, फिर भी इनमें तीव्र सत्याग्रह वृत्ति थी।
इसके विपरीत साधु वाणिक एवं राजा तुंगध्वज धन सम्पन्न एवं सत्ता सम्पन्न थे. पर उनकी वृत्ति मिथ्याग्रही थी। सत्ता एवं धनसम्पन्न व्यक्ति में सत्याग्रह हो, ऐसी घटना विरल होती है। भगवान् श्री सत्य नारायण व्रत कथा के पात्र राजा उल्कामुख ऐसी ही विरल कोटि के व्यक्ति थे। पूरी भगवान् श्री सत्य नारायण व्रत कथा का निहितार्थ यह है कि लौकिक एवं परलौकिक हितों की साधना के लिए मनुष्य को सत्याचरण का व्रत लेना चाहिए। सत्य ही भगवान् है. सत्य ही भगवान् विष्णु है। लोक में सारी बुराइयों, सारे क्लेशों, सारे संघर्षो का मूल कारण है, सत्याचरण का अभाव!
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