|| भाद्रपद संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत कथा ||
पूर्वकाल में राजाओं में श्रेष्ठ राजा नल थे, और उनकी रूपवती रानी का नाम दमयन्ती था। शापवश राजा नल को राज्य खोना पड़ा और रानी के वियोग से कष्ट सहना पड़ा। तब दमयन्ती ने इस व्रत के प्रभाव से अपने पति को पुनः प्राप्त किया।
राजा नल के ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा था। डाकुओं ने उनके महल से धन, गजशाला से हाथी, और घुड़शाला से घोड़े हरण कर लिए, तथा महल को आग से जला दिया। राजा नल भी जुआ खेलकर सब कुछ हार गए।
नल असहाय होकर रानी के साथ वन को चले गए। शापवश स्त्री से भी वियोग हो गया। कहीं राजा और कहीं रानी दुखी होकर देशाटन करने लगे।
एक समय वन में दमयन्ती को महर्षि शरभंग के दर्शन हुए। दमयन्ती ने मुनि को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और प्रार्थना की, “प्रभु! मैं अपने पति से किस प्रकार मिलूंगी?”
शरभंग मुनि बोले, “दमयन्ती! भादों की चौथ को एकदन्त गजानन की पूजा करनी चाहिए। तुम भक्ति और श्रद्धापूर्वक गणेश चौथ का व्रत करो, तुम्हारे स्वामी तुम्हें मिल जाएंगे।”
शरभंग मुनि के कहने पर दमयन्ती ने भादों की गणेश चौथ का व्रत आरम्भ किया और सात मास में ही अपने पुत्र और पति को प्राप्त किया। इस व्रत के प्रभाव से नल ने सभी सुख प्राप्त किए। विघ्न का नाश करने वाला तथा सुख देने वाला यह सर्वोत्तम व्रत है।
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