|| जगन्नाथ पूजा विधि ||
- पीले वस्त्र धारण करके भगवान जगन्नाथ का पूजन करें।
- भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र के चित्र या मूर्ति की स्थापना करें।
- उनको चन्दन लगायें , विभिन्न भोग प्रसाद और तुलसीदल अर्पित करें।
- उनको फूलों से सजाएँ और उनके समक्ष घी का दीपक जलाएं।
- इसके बाद गजेंद्र मोक्ष का पाठ करें, या गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ करें।
- इसके बाद सभी लोग मिलकर “हरि बोल – हरि बोल” का कीर्तन करें।
- फिर साथ में मिलकर प्रसाद ग्रहण करें।
|| जगन्नाथ स्वामी की कथा ||
चैत्र मास में आने वाले चारों सोमवार को तिसुआ सोमवार कहा जाता है। इन सोमवार को भगवान श्री जगन्नाथ की उपासना की जाती है। पहले सोमवार को गुड़ से, दूसरे सोमवार को गुड़ और धनिया से, तीसरे सोमवार को पंचामृत से तथा चौथे सोमवार को कच्चा पक्का, हर तरह का पकवान बनाकर भगवान को भोग लगाया जाता है।
इसके पश्चात पूजा की जाती है। माना जाता है कि इन चारों सोमवार पर श्रद्धा के साथ व्रत रखने से सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है। मान्यता है कि सुदामा ने सबसे पहले भगवान श्री जगन्नाथ का पूजन किया था। पूजन के लिए सुदामाजी जगन्नाथ धाम गए। रास्ते में कई पीड़ितों को आश्वासन दिया कि भगवान श्री जगन्नाथ के दरबार में उनके सुख के लिए मन्नत मांगेंगे।
बताया जाता है सुदामा की श्रद्धा देखकर भगवान जगन्नाथपुरी के बाहर एक ब्राह्मण के भेष में खड़े हो गए। सुदामा ने ब्राह्मण से जगन्नाथ धाम का पता पूछा तो भगवान ने बताया कि उनके पीछे जो आग का गोला है उसमें प्रवेश करने के बाद ही भगवान के दर्शन होंगे।
सुदामा आग के गोले में प्रविष्ट होने के लिए बढ़े तो भगवान ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए। सुदामा ने रास्ते में मिले सभी पीड़ितों के दुख दूर करने की प्रार्थना की तो भगवान जगन्नाथ ने उन्हें एक बेंत देकर कहा कि जिसे यह बेंत मारोगे उसके सभी कष्ट दूर हो जाएंगे।
मान्यता है कि तब से चैत्र मास शुक्ल पक्ष शुरू होने पर श्रद्धालु भक्तिपूर्वक सोमवार को भगवान जगन्नाथ का पूजन-अर्चन करते हैं और उनके बेंत खाकर अपने कष्ट दूर करने की प्रार्थना करते हैं।
|| जगन्नाथ मंदिर की उत्पत्ति की कथा ||
मध्य भारत में मालवा नामक राज्य पर राजा इन्द्रद्युम्न का शासन हुआ करता था। राजा इन्द्रद्युम्न भगवान विष्णु के बहुत बड़े उपासक और भक्त थे। भगवान के प्रति अपनी अपार आस्था के चलते राजा के मन में हमेशा भगवान नारायण के दर्शन करने की इच्छा रहती थी।
एक दिन उनके राज्य में एक बड़े ज्ञानी ऋषि आए और उनसे कहने लगे कि- हे राजन! क्या आपको सबर कबीले द्वारा पूजे जाने वाले भगवान विष्णु के दिव्य रूप नीलमाधव के विषय में कोई जानकारी है?
इस बात को सुनकर राजा बोले- हे ब्राह्मण देव, मैं तो अज्ञानी हूं, मुझे कृपा करके बताइए कि मेरे आराध्य के इस दिव्य रूप की पूजा कहां की जाती है और मैं किस प्रकार से उनके दर्शन कर सकता हूं?
राजा की बात का उत्तर देते हुए ऋषि बोले कि मुझे भी उस स्थान का ज्ञान नहीं है, इसलिए मैं आपकी सहायता मांगने आया था। लेकिन लगता है भगवान नीलमाधव के दर्शन करने की मेरी खोज अभी जारी रहेगी। अगर आप इसे ढूंढ़ने में मेरी सहायता कर पाएं तो अवश्य करें, मैं आपसे अब विदा लेता हूं।
ऐसा कहकर ब्राह्मण देवता वहां से चले गए। वहीं दूसरी ओर राजा के मन में भी भगवान विष्णु के इस दिव्य अवतार के दर्शन की जिज्ञासा और भी प्रबल हो गई और उन्होंने अपने मुख्य पुजारी विद्यापति को बुलाकर यह आदेश दिया कि वह उस स्थान का पता लगाएं जहां भगवान विष्णु के दिव्य रूप नीलमाधव रूप की पूजा होती है।
विद्यापति उस मंदिर की खोज में निकल पड़े, कुछ दिनों की यात्रा के बाद जब वह उस स्थान पर पहुंचे तो उन्हें गुप्तचरों से पता चला कि सबर कबीले के मुखिया, विश्ववासु ही नीलमाधव की पूजा करते हैं, ये सुनकर विद्यापति मुखिया के पास पहुंचे और उनसे विनती की कि वे उन्हें भगवान नीलमाधव के दर्शन करवाएं।
लेकिन विश्ववासु ने उनको वहां ले जाने से मना कर दिया। यह सुनकर विद्यापति ने यह दृढ़ संकल्प लिया कि वह नीलमाधव के दर्शन किए बिना वहां से नहीं जाएंगे। कुछ समय पश्चात उन्हें यह ज्ञान हो गया कि विश्ववासु ही भगवान नील माधव का उपासक है और उसने भगवान जी की मूर्ति को किसी गुफा में छिपा रखा है। लेकिन कई बार प्रयत्न करने के बाद भी विद्यापति उस स्थान का पता नहीं लगा पाए।
उस स्थान पर रहते-रहते, विद्यापति को कबीले के मुखिया विश्ववासु की बेटी से प्रेम हो गया और कबीले के मुखिया ने अपनी बेटी का विवाह विद्यापति के साथ कर दिया। इस प्रकार विद्यापति ने वहां कुछ और समय व्यतीत किया। एक दिन विद्यापति ने अपनी पत्नी से कहा कि वे अपने पिता से उन्हें भगवान नीलमाधव के दर्शन करवाने का आग्रह करें। अपने पति की इच्छा को पूर्ण करने के लिए विश्वावसु की बेटी ने उनसे प्रार्थना करते हुए विद्यापति को भगवान नीलमाधव के दर्शन करवाने के लिए कहा।
आखिरकार विश्ववासु को अपनी बेटी के अनुरोध के आगे झुकना पड़ा और वे विद्यापति को भगवान विष्णु के दिव्य दर्शन करवाने के लिए मान गए । परंतु उन्होंने यह शर्त रखी की विद्यापति को अपनी आंखों पर पट्टी बांधनी होगी तभी वो उन्हें उस मंदिर के दर्शन करवाने के लिए ले जाएंगे।
विद्यापति ने उनकी शर्त मान ली और अगले दिन विश्ववासु, विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांधकर, उसे उस स्थान पर ले गए जहां भगवान नीलमाधव की पूजा अर्चना की जाती है।
विद्यापति ने भी चतुराई दिखाते हुए सरसों के दानों को अपनी जेब में रख लिया। रास्ते को याद रखने के लिए वह उन दानों को रास्ते पर गिराता रहा। आखिरकार गुफा में पहुंचकर विद्यापति को भगवान नीलमाधव के दिव्य दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
विद्यापति द्वारा गिराए गए दानों में से कुछ दिनों बाद सरसों के पौधे उग गए और वह राजा को लेकर उन पौधों का पीछा करते-करते दोबारा उस गुफा तक पहुंच गया। लेकिन जब वह दोनों वहां पहुंचे तो गुफा से भगवान नीलमाधव की मूर्ति गायब हो चुकी थी।
राजा को बिना दर्शन के वापिस लौटना पड़ा, परंतु भगवान ने उन्हें उस दिन स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि मैं तुम्हारे पास लौटकर आऊँगा, समुद्र में लकड़ी का एक टुकड़ा तैर रहा है, तुम उसे उठा लाओ और उससे मेरी मूर्ति बनाकर एक मंदिर में स्थापित कर दो।
राजा ने एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया और अपने सेवकों को समुद्र से इस लकड़ी के टुकड़े को लाने का आदेश दिया। परंतु जब उनके कई सेवक मिलकर भी उस लकड़ी को नहीं निकाल पाए तब राजा ने कबीले के मुखिया विश्ववासु को बुलाया। विश्ववासु ने अकेले ही उस टुकड़े को समुद्र से निकाल दिया। ये नजारा देख वहां मौजूद सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। इसके बाद जब लकड़ी से मूर्ति बनाने का कार्य शुरू हुआ तो राजा का कोई भी कुशल कारीगर उस लकड़ी को काट ही नहीं पाया।
इस समस्या का समाधान करने के लिए स्वयं भगवान विश्वकर्मा वहां एक बूढ़े कारीगर का रूप धारण कर प्रकट हुए। और उन्होंने कहा कि- मैं भगवान नीलमाधव की मूर्ति का निर्माण 21 दिनों में करूंगा, परंतु मेरी यह शर्त है कि उस दौरान कोई भी मेरे कमरे के अंदर नहीं आएगा।
राजा ने उनकी शर्त मान ली और भगवान विश्वकर्मा ने मूर्ति का निर्माण कार्य आरंभ कर दिया। कुछ दिनों तक तो कमरे के अंदर से आवाजें आती रहीं। लेकिन फिर कुछ समय पश्चात कमरे से आवाज़ आना बंद हो गई। यह देखकर राजा की पत्नी गुंडिचा खुद को नहीं रोक पाई। वो ये सोचने लगी कि कहीं उस वृद्ध व्यक्ति को कुछ हो तो नहीं गया। अपनी इस सोच पर उसने दरवाज़ा खोल दिया।
शर्त के विरुद्ध दरवाजा खोलने से भगवान विश्वकर्मा वहां से अंतर्ध्यान हो गए। लेकिन वहां पर भगवान जगन्नाथ के साथ सुभद्रा और बलभद्र जी की अधूरी मूर्ति विराजमान थी। राजा को यह देखकर पश्चाताप हुआ। लेकिन उन्होंने इसे ही भगवान की इच्छा समझ कर उन प्रतिमाओं को मंदिर में स्थापित करवा दिया।
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