हिंदू धर्म में माता शीतला को रोग नाशिनी और आरोग्य प्रदायिनी देवी के रूप में पूजा जाता है। उनका स्वरूप अद्भुत और रहस्यमय है – वे गधे पर सवार होती हैं, एक हाथ में झाड़ू और दूसरे में शीतल जल से भरा कलश लिए रहती हैं। इन प्रतीकों का गहरा आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व है।
झाड़ू और गधे का प्रतीक क्या दर्शाता है?
- गधे की सवारी – यह इस बात का प्रतीक है कि माता शीतला हर स्थान तक पहुंचती हैं, चाहे वह कितना भी उपेक्षित क्यों न हो। गधा सहनशीलता और सेवा का प्रतीक है।
- झाड़ू का महत्व – झाड़ू सफाई का प्रतीक है, जो संक्रमण और बीमारियों को दूर करने का संकेत देता है। माता शीतला के हाथ में झाड़ू का होना यह दर्शाता है कि स्वच्छता से ही रोगों का नाश संभव है।
- शीतल जल का कलश – यह आरोग्य और शांति का प्रतीक है। माता शीतला अपने भक्तों को रोगों से मुक्त कर शीतलता प्रदान करती हैं।
शिवजी का वरदान और शीतला माता का जन्म
स्कंद पुराण के अनुसार, माता शीतला ब्रह्माजी के तेज से उत्पन्न हुईं और उन्हें भगवान शिव ने आरोग्य प्रदान करने का वरदान दिया। जब शिवजी के पसीने से ज्वरासुर नामक दानव उत्पन्न हुआ, जो लोगों को बुखार और रोगों से पीड़ित करने लगा, तब माता शीतला धरती पर अवतरित हुईं। उन्होंने ज्वरासुर को वश में किया और मानव जाति को चेचक, ज्वर और अन्य रोगों से बचाने का संकल्प लिया।
बासौड़ा पर्व और शीतला माता की पूजा
हर साल चैत्र कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को शीतला माता की पूजा की जाती है। इस दिन बासी और ठंडे भोजन का भोग लगाया जाता है, जिसे बासौड़ा पर्व कहा जाता है। मान्यता है कि माता शीतला की पूजा करने से चेचक, चिकनपॉक्स और अन्य संक्रामक रोगों से रक्षा होती है।
माता शीतला की कृपा से आरोग्य प्राप्त करें
माता शीतला केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और स्वच्छता का संदेश भी देती हैं। उनकी उपासना से व्यक्ति शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रहता है।
“शीतलाष्टक स्तोत्र” का पाठ करने से समस्त रोगों का नाश होता है और भक्तों को माता की कृपा प्राप्त होती है। भगवान शिव द्वारा रचित यह स्तोत्र देवी शीतला की महिमा का गुणगान करता है और आरोग्य का वरदान प्रदान करता है।
शीतला माता की पूजा भारतीय संस्कृति में स्वास्थ्य और शुद्धि से जुड़ी एक विशेष परंपरा है। बासौड़ा पर्व न केवल आस्था और भक्ति का प्रतीक है, बल्कि यह स्वच्छता और आरोग्य को बढ़ावा देने वाला पर्व भी है। माता शीतला की कृपा से जीवन में रोगों का नाश होता है और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
क्रोध की ज्वाला और माता शीतला की कृपा
स्कंद पुराण के अनुसार, शीतला माता का जन्म स्वयं ब्रह्माजी से हुआ था। देवी को भगवान शिव की अर्धांगिनी शक्ति का स्वरूप माना जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार, जब भगवान शिव के पसीने से उत्पन्न ज्वरासुर नामक दैत्य धरती पर आया, तब माता शीतला भी अपने साथ दाल के दाने लेकर उसके साथ पृथ्वी पर उतरीं। वे राजा विराट के राज्य में निवास करना चाहती थीं, किंतु राजा ने उन्हें अपने राज्य में स्थान देने से इनकार कर दिया।
राजा के इस अपमान से माता शीतला कुपित हो उठीं और उनके क्रोध की ज्वाला से समस्त प्रजा जलने लगी। लोगों के शरीर पर लाल दाने उभर आए, जिससे समूचा राज्य पीड़ा से त्रस्त हो गया। राजा विराट ने अपनी भूल का प्रायश्चित करते हुए माता शीतला से क्षमा याचना की और उन्हें कच्चे दूध व ठंडी लस्सी का भोग अर्पित किया। तब माता प्रसन्न हुईं और उनका कोप शांत हुआ। तभी से माता शीतला को ठंडे पकवानों का भोग लगाने की परंपरा प्रचलित हो गई।
माता शीतला का दिव्य स्वरूप
माता शीतला का स्वरूप अत्यंत विशिष्ट है। उनके एक हाथ में झाड़ू और नीम के पत्ते होते हैं, जो शुद्धि और आरोग्य का प्रतीक माने जाते हैं। दूसरे हाथ में शीतल पेय का कलश, दाल के दाने और रोग नाशक जल होता है। माता के साथ चौंसठ रोगों के देवता, घेंटूकर्ण त्वचा रोग के देवता, हैजे की देवी और ज्वरासुर भी विराजमान होते हैं।
स्कंद पुराण में वर्णित शीतला माता के स्तोत्र शीतलाष्टक की रचना स्वयं भगवान शिव ने की थी। मान्यता है कि इस स्तोत्र का पाठ करने से समस्त रोगों का नाश होता है और व्यक्ति दीर्घायु व निरोगी रहता है। माता शीतला की आराधना से केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि भी प्राप्त होती है।
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