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क्यों श्री कृष्ण कहलाते हैं ‘संपूर्ण पुरुष’? श्री कृष्ण: धर्म, कर्म और प्रेम का संपूर्ण स्वरूप

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श्री कृष्ण भारतीय धर्म और संस्कृति में एक अद्वितीय स्थान रखते हैं। उन्हें ‘संपूर्ण पुरुष’ कहा जाता है, जो इस बात का प्रतीक है कि वे मानव जीवन के सभी पहलुओं को पूर्णता के साथ प्रस्तुत करते हैं। उनका व्यक्तित्व धर्म, कर्म, प्रेम, ज्ञान और नेतृत्व जैसे सभी गुणों का समावेश है। आइए समझते हैं कि क्यों श्री कृष्ण को ‘संपूर्ण पुरुष’ कहा जाता है।

क्यों श्री कृष्ण कहलाते हैं ‘संपूर्ण पुरुष’?

श्रीहरि विष्णु के 24 अवतारों में श्रीकृष्ण को 22वां और दस अवतारों में 8वां स्थान दिया गया है। आध्यात्मिक कलाओं के आधार पर उन्हें पूर्णावतार कहा जाता है। पत्थर-पेड़ 1-2 कलाओं के, पशु-पक्षी 2-4 कलाओं के, और साधारण मनुष्य 5 कलाओं तक सीमित होते हैं।

विशिष्ट पुरुषों में 7, ऋषियों में 8 और देवताओं में 9 कलाएं होती हैं। लेकिन भगवान के अवतारों में 10 से अधिक कलाओं की अभिव्यक्ति होती है। इनमें श्रीराम 12 कलाओं से युक्त हैं, जबकि श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के साथ पूर्णता को प्राप्त करते हैं। यही वजह है कि उन्हें पूर्णावतार और जगदगुरु कहा जाता है।

श्रीकृष्ण: हर भूमिका में श्रेष्ठ -श्रीकृष्ण एकमात्र ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने हर भूमिका में श्रेष्ठता का परिचय दिया। वे एक आदर्श पुत्र, भाई, पति, मित्र और गुरु थे। उनके व्यक्तित्व में भगवान शिव, राम, परशुराम और बुद्ध का समन्वय दिखता है। वे भक्त भी हैं और भगवान भी।

  • बाल्यावस्था से प्रेरणा – श्रीकृष्ण का बचपन हर बालक के लिए प्रेरणा है। उनके बचपन की लीलाएं और माखनचोरी जैसी घटनाएं मासूमियत और चतुराई का अद्भुत मेल हैं।
  • युवावस्था की बहुरंगी छवि – उनकी युवावस्था में प्रेम, कर्तव्य और योग का संतुलन देखा जा सकता है। वे प्रेमी भी थे और योगी भी। उनके हजारों मित्र और सखियां थीं, जिनमें राधा और सुदामा का स्थान विशेष है।
  • संपूर्ण कलाकार और विद्वान – श्रीकृष्ण ने सांदीपनि ऋषि के आश्रम में 64 कलाओं में महारत हासिल की। वे नृत्य, संगीत, चित्रकला और युद्धकला में निपुण थे।
  • श्रेष्ठ पति और प्रेमी – श्रीकृष्ण ने अपनी 8 पत्नियों के साथ पति धर्म निभाया और उनकी भावनाओं का सम्मान किया। उनकी गोपियां और पत्नियां आपसी सद्भावना का उदाहरण हैं।
  • नीतिज्ञ और महान योद्धा – महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण की रणनीतियां और कूटनीति अद्वितीय थीं। वे महान योद्धा और राजनीतिज्ञ थे।
  • गीता का उपदेश और योगेश्वर का स्वरूप – श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देकर संसार को धर्म, कर्म, योग और भक्ति का मार्ग दिखाया। यही वजह है कि उन्हें योगेश्वर और जगदगुरु का सम्मान प्राप्त है।

श्री कृष्ण: धर्म, कर्म और प्रेम का संपूर्ण स्वरूप

  1. धर्म का प्रतीक – श्री कृष्ण ने जीवन भर धर्म का पालन और प्रचार किया। महाभारत के युद्ध के समय उन्होंने अर्जुन को गीता उपदेश दिया, जिसमें उन्होंने धर्म के मर्म को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा:
    • धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।”
      इससे यह स्पष्ट होता है कि श्री कृष्ण ने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया। उन्होंने समाज में धर्म की स्थापना के लिए अधर्म का नाश किया और सत्य को स्थापित किया।
  1. कर्मयोगी – गीता में श्री कृष्ण ने कर्मयोग का महत्व बताया। उनका मानना था कि बिना फल की चिंता किए अपने कर्म करना ही सच्चा जीवन है।
    • कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
      वे खुद इस सिद्धांत का पालन करते थे। चाहे गोवर्धन पर्वत उठाना हो, राधा और गोपियों के साथ रास रचाना हो, या कुरुक्षेत्र में सारथी बनना हो, हर स्थिति में उन्होंने अपने कर्म को श्रेष्ठता के साथ निभाया।
  1. प्रेम का आदर्श स्वरूप – श्री कृष्ण का प्रेम, चाहे वह राधा के प्रति हो, सखा सुदामा के प्रति हो, या गोपियों के प्रति, निश्छल और शुद्ध था। उनका प्रेम केवल रोमांटिक नहीं, बल्कि आत्मा का प्रेम था, जो भौतिक सीमाओं से परे था। राधा-कृष्ण का प्रेम आज भी भक्ति और समर्पण का प्रतीक माना जाता है।
  2. ज्ञान और नेतृत्व का आदर्श – कृष्ण ने अपने नेतृत्व कौशल से कौरव और पांडवों के बीच न्याय और धर्म की स्थापना की। उनके द्वारा दिया गया गीता का ज्ञान न केवल अर्जुन के लिए, बल्कि समस्त मानव जाति के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
  3. मानवीय और दिव्य गुणों का समन्वय – श्री कृष्ण का जीवन मानवीय और दिव्य गुणों का अद्भुत संगम है। वे एक दोस्त, एक प्रेमी, एक राजा, और एक गुरु सभी रूपों में श्रेष्ठ थे। उनके जीवन की सरलता और गहराई यह दिखाती है कि वे हर स्थिति में पूर्णता को प्राप्त कर सकते हैं।

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