॥ शिव तांडव स्तोत्र की विधि ॥
- प्रात: काल सबसे पहले स्नान आदि कर शिवलिंग का दूध और जल से अभिषेक करें।
- संभव हो तो गंगाजल का इस्तेमाल करें।
- भगवान शिव की विधिपूर्वक पूजा करें और फिर अंत में शिव तांडव स्तोत्र का जाप करें।
॥ शिव तांडव स्तोत्र से लाभ ॥
- शिव तांडव स्तोत्र का पूरे विधि-विधान के साथ जाप करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं।
- इस स्तोत्र के जाप से शनि, राहु और केतु दोष से मुक्ति मिलती है।
- प्रतिदिन इसके पाठ से कुंडली में कालसर्प दोष या पितृ दोष से भी मुक्ति मिलती है।
- शिव तांडव स्तोत्र सुनने मात्र से व्यक्ति संपत्ति और समृद्धि को प्राप्त करता है।
॥ शिव तांडव स्तोत्र – मूल पाठ अर्थ सहित ॥
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले,
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं,
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥
अर्थ: जिन शिव जी की सघन, वन रूपी जटा से गंगा जी की धाराएं प्रवाहित हो और उनके कंठ को प्रक्षालित करती हैं, जिनके गले में बडे़ एवं लम्बे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी,
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥
अर्थ: जिनकी जटाओं में देवी गंगा की लहरें अपने पूरे वेग से भ्रमण कर रही हैं और जिनके शीश पर लहरा रहीं हैं वे भगवान शिव, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें धधक-धधक कर प्रज्वलित हो रहीं हैं और जो किशोर चंद्रमा से विभूषित हैं ऐसे शिवजी में मेरा अनुराग हर पल बढ़ता रहे।
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुर,
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि,
क्वचिद्दिगम्बरे(क्वचिच्चिदम्बरे) मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥
अर्थ: जो पर्वतराज की पुत्री अर्थात माता पार्वती जी के विलासमय रमणिय कटाक्षों में परम आनन्दित चित्त रहते हैं, जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणी गण वास करते हैं, तथा जिनकी कृपा दृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं, ऐसे दिगम्बर अर्थात जिन्होंने आकाश को वस्त्र सामान धारण किया है ऐसे शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आनन्दित होता रहे।
जटा भुजङ्ग पिङ्गल स्फुरत्फणा मणिप्रभा,
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे,
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥
अर्थ: मैं उन शिवजी की भक्ति में आनन्दित रहूं, जो सभी प्राणियों के आधार एवं रक्षक हैं, जिनकी जटाओं में लिपटे सर्पों के फण की मणियों का प्रकाश पीले वर्ण प्रभा-समूह रूप केसर के कान्ति से दिशाओं को प्रकाशित करते हैं और जो गज चर्म से विभूषित हैं।
सहस्र लोचनप्रभृत्य शेष लेखशेखर,
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।
भुजङ्ग राजमालया निबद्ध जाटजूटक,
श्रियै चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥
अर्थ: जिन शिव जी के चरण इन्द्र-विष्णु आदि देवताओं के मस्तक के पुष्पों की धूल से रंजित हैं ( अर्थात जिन्हें देवतागण अपने सिर के पुष्प अर्पण करते हैं), जिनकी जटाओं में लाल सर्प विराजमान है, ऐसे वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।
ललाट चत्वरज्वलद् धनञ्जयस्फुलिङ्गभा,
निपीत पञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम्।
सुधा मयूखले खया विराजमानशेखरं,
महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः ॥
अर्थ: जिन शिव जी ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन करते हुए, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया, जो सभी देवों द्वारा पूज्य हैं, जो चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं ऐसे भगवान शिव मुझे सिद्धि प्रदान करें।
कराल भाल पट्टिका धगद्धगद्धग ज्ज्वला,
द्धनञ्जयाहुती कृतप्रचण्ड पञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक,
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥
अर्थ: जिनके मस्तक से धक-धक करती प्रचण्ड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया, जो संपूर्ण प्रकृति का सृजन करने में सक्षम हैं, उन तीन नेत्र वाले भगवान शिव जी में मेरी आस्था अटल हो।
नवीन मेघ मण्डली निरुद् धदुर् धरस्फुरत्,
कुहू निशीथि नीतमः प्रबन्ध बद्ध कन्धरः।
निलिम्प निर्झरी धरस् तनोतु कृत्तिसिन्धुरः,
कला निधान बन्धुरः श्रियं जगद् धुरंधर: ॥
अर्थ: जिसका कंठ नवीन मेघों की घटाओं से ढका हुआ अमावस्या की रात्रि के सामान काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो जगत का बोझ धारण करने वाले हैं, वे शिवजी हमें सभी प्रकार की सम्पन्नता प्रदान करें।
प्रफुल्ल नीलपङ्कज प्रपञ्च कालिम प्रभा,
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं,
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥
अर्थ: जिनका कंठ और कन्धा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुन्दर श्याम प्रभा से विभूषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को काटने वाले,स दक्ष यज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अंधकासुर के संहारक हैं तथा जो मृत्यु को वश में करने वाले हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूं।
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी,
रसप्रवाह माधुरी विजृम्भण मधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं,
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥
अर्थ: जो कल्याणमय, अविनाशी, समस्त कलाओं के रस का आस्वादन करने वाले हैं, जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अंधकासुर के संहारक, दक्षयज्ञ बिध्भंसक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूं।
जयत् वदभ्र विभ्रम भ्रमद् भुजङ्ग मश्वस,
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल,
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥
अर्थ: अत्यंत वेग से भ्रमण कर रहे सांपों के फुफकार से क्रमश: ललाट में बढ़ी हुई प्रचण्ड अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी उच्च धिम-धिम की ध्वनि के साथ ताण्डव नृत्य में लीन शिव जी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं।
स्पृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्-
गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृष्णारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः,
समप्रवृत्तिकः ( समं प्रवर्तयन्मनः) कदा सदाशिवं भजे ॥
अर्थ: कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टुकड़ों, शत्रु एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर समान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूं।
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्,
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः,
शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥
अर्थ: मैं कब प्रसन्न हो सकता हूं? जब मैं सुन्दर ललाट वाले भगवान चन्द्रशेखर में मन को एकाग्र करके अपने कुविचारों को त्यागकर गंगा जी के तटवर्ती वन के भीतर रहता हुआ सिर पर हाथ जोड़ डबडबाई हुई आंखों से पूर्ण होकर शिव मंत्र का उच्चारण प्राप्त करूंगा।
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं,
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं,
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ॥
अर्थ: इस उत्तमोत्तम शिव ताण्डव स्तोत्र का नित्य पढ़ने या श्रवण करने मात्र से प्राणी पवित्र हो, परमगुरु शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है।
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं,
यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां,
लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः॥
अर्थ: प्रात: शिवपूजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र को पढ़ने से घर-परिवार में लक्ष्मी की स्थिरता रहती है तथा भक्त रथ, गज, घोड़े आदि संपदा से संपन्न हो जाता है।
॥ इति रावणकृतं शिव ताण्डव स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
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