|| अन्नपूर्णा माता व्रत कथा ||
एक समय की बात है, काशी निवासी धनंजय की पत्नी सुलक्षणा थी। उसे सभी सुख प्राप्त थे, केवल निर्धनता ही उसके दुःख का एकमात्र कारण थी। यह दुःख उसे हर समय सताता रहता था।
एक दिन सुलक्षणा ने अपने पति से कहा, “स्वामी! आप कुछ उद्यम करो तो काम चले। इस प्रकार कब तक काम चलेगा?” सुलक्षणा की बात धनंजय के मन में बैठ गई और वह उसी दिन विश्वनाथ शंकर जी को प्रसन्न करने के लिए बैठ गया और कहने लगा, “हे देवाधिदेव विश्वेश्वर! मुझे पूजा-पाठ कुछ आता नहीं है, केवल आपके भरोसे बैठा हूँ।”
इतना कहकर वह दो-तीन दिन भूखा-प्यासा बैठा रहा। यह देखकर भगवान शंकर ने उसके कान में “अन्नपूर्णा! अन्नपूर्णा! अन्नपूर्णा!” इस प्रकार तीन बार कहा। धनंजय सोच में पड़ गया कि यह कौन था और क्या कह गया। मंदिर से आते ब्राह्मणों से पूछने पर उन्होंने बताया कि वह अन्नपूर्णा देवी का नाम सुन रहा था।
धनंजय ने अपने घर जाकर सुलक्षणा से सारी बात कही। वह बोली, “नाथ! चिंता मत करो, स्वयं शंकरजी ने यह मंत्र दिया है। वे स्वयं ही खुलासा करेंगे। आप फिर जाकर उनकी आराधना करो।”
धनंजय फिर से पूजा में बैठ गया। रात्रि में शंकर जी ने उसे आज्ञा दी और कहा, “तू पूर्व दिशा में चला जा।” धनंजय अन्नपूर्णा का नाम जपता हुआ और रास्ते में फल खाता, झरनों का पानी पीता हुआ चलता गया। वहां उसे चांदी सी चमकती वन की शोभा देखने को मिली।
सुंदर सरोवर के किनारे कई अप्सराएं एक कथा सुन रही थीं और “मां अन्नपूर्णा” इस प्रकार बार-बार कह रही थीं। धनंजय ने उनसे पूछा, “हे देवियो! आप यह क्या करती हो?” उन्होंने बताया कि वे सब मां अन्नपूर्णा का व्रत करती हैं।
धनंजय ने पूछा, “व्रत, पूजा करने से क्या होता है? यह किसी ने किया भी है? इसे कब किया जाए? कैसा व्रत है और कैसी विधि है? मुझसे विस्तार से बताओ।” उन्होंने बताया कि इस व्रत को सभी कर सकते हैं। इक्कीस दिन तक के लिए 21 गांठ का सूत लेना चाहिए। यदि 21 दिन न बनें तो एक दिन उपवास करें।
यह भी न बनें तो केवल कथा सुनकर प्रसाद लें। निराहार रहकर कथा कहें, कथा सुनने वाला कोई न मिले तो पीपल के पत्तों को रखकर सुपारी या घृत कुमारी (गुवारपाठ) वृक्ष को सामने कर दीपक को साक्षी कर सूर्य, गाय, तुलसी या महादेव को बिना कथा सुनाए मुख में दाना न डालें। यदि भूल से कुछ पड़ जाए तो एक दिवस फिर उपवास करें। व्रत के दिन क्रोध न करें और झूठ न बोलें।
धनंजय ने पूछा, “इस व्रत के करने से क्या होता है?” उन्होंने बताया, “इसके करने से अन्धों को नेत्र मिलते हैं, लूलों को हाथ मिलते हैं, निर्धन के घर धन आता है, बांझी को संतान मिलती है, मूर्ख को विद्या मिलती है, जो जिस कामना से व्रत करे, मां उसकी इच्छा पूरी करती है।”
धनंजय बोला, “बहिनों! मेरे पास धन नहीं है, विद्या नहीं है, कुछ भी तो नहीं है। मैं दुखिया ब्राह्मण हूँ, मुझे इस व्रत का सूत दोगी?” उन्होंने कहा, “हाँ भाई, तेरा कल्याण हो। हम तुम्हें अवश्य देंगी। ले इस व्रत का मंगलसूत ले।”
धनंजय ने व्रत किया और व्रत पूरा होने पर सरोवर में से 21 खण्ड की सुवर्ण सीढ़ी हीरा मोती जड़ी हुई प्रकट हुई। धनंजय ने जय अन्नपूर्णा अन्नपूर्णा कहता हुआ नीचे उतर गया और वहां उसने करोड़ों सूर्य से प्रकाशमान अन्नपूर्णा का मंदिर देखा। सामने सुवर्ण सिंहासन पर माता अन्नपूर्णा विराजमान थीं।
भगवान शंकर भिक्षा हेतु खड़े थे और देवांगनाएं चंवर डुला रही थीं। धनंजय ने देवी के चरणों में गिरकर अपने दुख की बात बताई। माता बोलीं, “मेरा व्रत किया है, जा संसार तेरा सत्कार करेगा।” माता ने धनंजय की जिह्नवा पर बीज मंत्र लिख दिया जिससे उसके रोम-रोम में विद्या प्रकट हो गई। धनंजय ने खुद को काशी विश्वनाथ के मंदिर में खड़ा पाया।
धनंजय ने मां का वरदान लेकर घर आकर सुलक्षणा को सब बताया। माता जी की कृपा से उनके घर में संपत्ति उमड़ने लगी। छोटा सा घर बहुत बड़ा बन गया। जैसे शहद के छत्ते में मक्खियां जमा होती हैं, उसी प्रकार अनेक सगे संबंधी आकर उनकी बड़ाई करने लगे। सबने कहा कि इतना धन और इतना बड़ा घर, सुंदर संतान नहीं तो इस कमाई का कौन भोग करेगा। सुलक्षणा से संतान नहीं है, इसलिए तुम दूसरा विवाह करो।
अनिच्छा होते हुए भी धनंजय को दूसरा विवाह करना पड़ा और सती सुलक्षणा को सौत का दुःख उठाना पड़ा। दिन बीतते गए और फिर अगहन मास आया। नये बंधन से बंधे पति से सुलक्षणा ने कहलाया कि हम व्रत के प्रभाव से सुखी हुए हैं।
इस कारण यह व्रत छोड़ना नहीं चाहिए। यह माता जी का प्रताप है कि हम इतने सम्पन्न और सुखी हैं। सुलक्षणा की बात सुनकर धनंजय उसके यहाँ आया और व्रत में बैठ गया। नई बहू को इस व्रत की खबर नहीं थी। वह धनंजय के आने की राह देख रही थी।
दिन बीतते गये और व्रत पूर्ण होने में तीन दिवस बाकी थे कि नयी बहू को खबर पड़ी। उसके मन में ईर्ष्या की ज्वाला दहकने लगी थी। वह सुलक्षणा के घर आ पहुँची और उसने वहां भगदड़ मचा दी। वह धनंजय को अपने साथ ले गई। धनंजय को थोड़ी देर के लिए निद्रा ने आ दबाया।
इसी समय नई बहू ने उसका व्रत का सूत तोड़कर आग में फेंक दिया। अब तो माता जी का कोप जाग गया। घर में अचानक आग लग गई, सब कुछ जलकर खाक हो गया। सुलक्षणा ने यह देखकर धनंजय को फिर अपने घर ले आई। नई बहू रूठकर अपने पिता के घर जा बैठी।
पति को परमेश्वर मानने वाली सुलक्षणा बोली, “नाथ! घबड़ाना नहीं। माता जी की कृपा अलौकिक है। पुत्र कुपुत्र हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती। अब आप श्रद्धा और भक्ति से आराधना शुरू करो। वे जरूर हमारा कल्याण करेंगी।”
धनंजय फिर माता के पीछे पड़ गया। फिर वही सरोवर सीढ़ी प्रकट हुई, उसमें मां अन्नपूर्णा कहकर वह उतर गया। वहां जाकर मां अन्नपूर्णा के चरणों में रुदन करने लगा। माता प्रसन्न हो बोलीं, “यह मेरी स्वर्ण की मूर्ति ले, उसकी पूजा करना, तू फिर सुखी हो जायेगा। जा तुझे मेरा आशीर्वाद है।
तेरी स्त्री सुलक्षणा ने श्रद्धा से मेरा व्रत किया है, उसे मैंने पुत्र दिया है।” धनंजय ने आँखें खोलीं तो खुद को काशी विश्वनाथ के मन्दिर में खड़ा पाया। वहां से फिर उसी प्रकार घर को आया। इधर सुलक्षणा के दिन चढ़े और महीने पूरे होते ही पुत्र का जन्म हुआ। गांव में आश्चर्य की लहर दौड़ गई।
इस प्रकार उसी गांव के निःसंतान सेठ के पुत्र होने पर उसने माता अन्नपूर्णा का मन्दिर बनवा दिया। उसमें माता जी धूमधाम से पधारीं, यज्ञ किया और धनंजय को मन्दिर के आचार्य का पद दे दिया। जीविका के लिए मन्दिर की दक्षिणा और रहने के लिए बड़ा सुन्दर सा भवन दिया।
धनंजय स्त्री-पुत्र सहित वहां रहने लगा। माता जी की चढ़ावे में भरपूर आमदनी होने लगी। उधर नई बहू के पिता के घर डाका पड़ा, सब लुट गया, वे भीख मांगकर पेट भरने लगे। सुलक्षणा ने यह सुना तो उन्हें बुला भेजा, अलग घर में रख लिया और उनके अन्न-वस्त्र का प्रबंध कर दिया।
धनंजय, सुलक्षणा और उसका पुत्र माता जी की कृपा से आनन्द से रहने लगे। माता जी ने जैसे इनके भण्डार भरे वैसे सबके भण्डार भरें।
व्रत की विधि, समय, महत्व
- प्रातः काल स्नान कर साफ वस्त्र धारण करें और व्रत का संकल्प लें।
- घर के पूजा स्थल को साफ करें और वहां मां अन्नपूर्णा की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें।
- मां अन्नपूर्णा का ध्यान करते हुए पूजा प्रारंभ करें।
- मां की प्रतिमा पर कुमकुम, हल्दी, चावल चढ़ाएं।
- धूप-दीप जलाएं और माता की आरती करें।
- नैवेद्य अर्पित करें और परिवार के सदस्यों में बांटें।
- अन्नपूर्णा माता का महाव्रत आमतौर पर कार्तिक मास की पूर्णिमा को किया जाता है।
- कुछ स्थानों पर यह व्रत चैत्र नवरात्रि या शारदीय नवरात्रि के दौरान भी किया जाता है।
- इस व्रत को करने से देवी अन्नपूर्णा की विशेष कृपा प्राप्त होती है और जीवन में कभी अन्न की कमी नहीं होती।
- इस व्रत के करने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है और परिवार के सभी सदस्यों का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है।
- यह व्रत धन-धान्य की वृद्धि के लिए भी अत्यंत लाभकारी माना जाता है।
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