|| भगवान श्री विश्वकर्मा की कथा ||
पहला अध्याय
कई ऋषि एक दिन धर्मक्षेत्र में इकट्ठे हुए और उन्होंने सूत जी से पूछा, “हे महात्मा, आप हमें यह बताइए कि विष्णु के कई रूपों में से कौन सा सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण है?”
सूत जी बोले, “हे ऋषियो, आपने बहुत अच्छा सवाल पूछा है, जो दुनिया के भले के लिए है। अब मैं आपको भगवान विष्णु के सबसे अद्भुत रूप के बारे में बताऊंगा। भगवान विष्णु के कई रूप हैं, लेकिन उनमें से जो सबसे बड़ा और खास है, उसे ध्यान से सुनो। उस दिव्य रूप का सिर्फ स्मरण करने से भी बड़े से बड़े पाप खत्म हो जाते हैं। इसमें कोई शक नहीं है।
एक बार लक्ष्मी जी ने भी यही सवाल भगवान विष्णु से पूछा था।
लक्ष्मी जी ने पूछा, “हे प्रभु, आपके कई रूपों को लोग पूजा करते हैं। क्या ये सभी रूप समान हैं या इनमें से कोई खास और कोई गौण है?”
भगवान विष्णु बोले, “जब मैं पूरे ब्रह्मांड को अपनी आत्मा में समाहित करता हूं, तब मैं एक साथ कई रूप धारण करता हूं। मैं अपनी माया के प्रभाव से ये रूप बनाता हूं।
हे देवी, जब मैं दुनिया की रचना करता हूं, तब मैं एक खास रूप धारण करता हूं, जिसे मैं विश्वकर्मा का रूप कहता हूं। इस रूप में मैं सबसे पहले ब्रह्मा को रचता हूं, जो यज्ञ और वेदों का ज्ञान फैलाते हैं। फिर मैं ब्रह्मा को शिल्प विद्या सिखाता हूं, जिससे दुनिया की तमाम रचनाएं होती हैं।
यह विश्वकर्मा का रूप मेरे सभी रूपों में सबसे महत्वपूर्ण है। यही वह रूप है जिससे पूरी दुनिया का निर्माण होता है। जो भी इस दिव्य रूप का ध्यान करता है, उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।”
इस तरह भगवान विष्णु ने अपने विश्वकर्मा रूप का महत्व बताया और यही अध्याय का अंत है।
(पहले अध्याय का समाप्ति)
दूसरा अध्याय
सूत जी बोले, “हे ऋषियों, जब भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को अपने दिव्य रूप के बारे में बताया, तब वो चुप हो गए। तब ऋषियों ने सूत जी से पूछा, ‘हे महाराज, आपने यह दिव्य संवाद कैसे जाना? और भगवान विष्णु का विश्वकर्मा रूप संसार में कैसे प्रसिद्ध हुआ?’
सूत जी ने कहा, ‘हे मुनियो, सुनो, मैं तुम्हें बताता हूँ कि यह बात मुझे कैसे पता चली। एक महान ऋषि थे जिनका नाम अंगिरा था। उन्होंने हिमालय के पास गंगा किनारे कड़ी तपस्या की थी। उन्होंने बारिश में बिना छत के, सर्दी में ठंडे पानी में और गर्मी में तेज धूप में तप किया। लेकिन फिर भी उनका मन बेचैन रहता था, जैसे कोई हिरण इधर-उधर भागता है।
फिर अचानक आकाश से एक आवाज आई, “हे तपस्वी, तू व्यर्थ में मेहनत कर रहा है। जब तीर अपने निशाने से भटक जाता है, तो वो लक्ष्य को कैसे भेदेगा? तेरी भी यही हालत हो रही है। संसार का निर्माण करने वाले महान विश्वकर्मा का ध्यान कर। वह पाँच मुख और दस भुजाओं वाले दिव्य रूप में हैं, जिन्हें सरस्वती और लक्ष्मी पूजते हैं। उनका ध्यान कर और तुझे सुख की प्राप्ति होगी। यह रूप स्वयं भगवान हरि ने क्षीर समुद्र में बताया था। उनके ध्यान से आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
अमावस्या के दिन सभी काम छोड़कर व्रत रख और विधिपूर्वक श्री विश्वकर्मा जी की पूजा कर।”
यह सुनकर अंगिरा मुनि बहुत हैरान हुए और उन्होंने श्री विश्वकर्मा का ध्यान करना शुरू कर दिया। ध्यान के दौरान उनके मन में शिल्पकला का ज्ञान और अथर्ववेद की विद्या आ गई। उन्होंने विमान और अन्य शिल्पकला की कई रचनाएँ कीं, जो संसार को श्री विश्वकर्मा जी की कृपा से मिली हैं।
तभी से श्री विश्वकर्मा जी का रूप संसार में प्रसिद्ध हो गया। इस कथा को सुनने वाले हर व्यक्ति को ज्ञान की प्राप्ति होती है। यह रूप संसार के लिए बहुत लाभकारी है, और जो इस रूप का ध्यान नहीं करता, वह वास्तव में पापी है।’
(दूसरे अध्याय का समाप्ति)
तीसरा अध्याय
हे महाराज, जब आपसे श्री विश्वकर्मा जी की कथा सुनते हैं, तो मन की तृप्ति नहीं होती, जैसे देवताओं को अमृत पीने से तृप्ति नहीं मिलती। श्री विश्वकर्मा जी की कहानी सुनने की इच्छा बार-बार बढ़ती जा रही है, जैसे हवा से आग और तेज हो जाती है। सूत जी कहने लगे – हे मुनियों, एकाग्र होकर श्री विश्वकर्मा जी की दिव्य कथा सुनो, जो सबके पूजनीय और सच्चिदानंद हैं।
प्राचीन समय में एक राजा था, जिसका नाम प्रमंगद था। वह राजा अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखता था, जैसे माता-पिता अपने बच्चों का करते हैं। वह धर्म के कामों में कभी लापरवाही नहीं करता था और अपनी प्रजा को प्रेम से शासन करता था। वह कभी भी अपनी प्रजा पर अत्याचार नहीं करता था। राजा का राज्य भी सुखी था, क्योंकि उसमें कोई बुरा या दुष्ट व्यक्ति नहीं था। राजा की पत्नी कमला भी सती, विदुषी और धर्म-कर्म में निपुण थी।
एक बार राजा को अचानक कुष्ठ रोग हो गया। उसने बहुत इलाज कराया, लेकिन उसका रोग ठीक नहीं हो रहा था। रोग से राजा बहुत परेशान हो गया था।
ऋषियों ने पूछा – हे सूत, यह बताओ कि धर्म से राज्य करने वाले राजा को यह रोग कैसे हुआ? अगर धर्म करने वालों को भी रोग हो सकता है, तो लोग धर्म-कर्म में विश्वास कैसे करेंगे? सूत जी बोले – हे ऋषियों, उस राजा ने पिछले जन्म में नास्तिकता का प्रचार किया था। वह लोगों से कहता था कि यह संसार अनादि है और इसका कोई निर्माता नहीं है। वह श्री विश्वकर्मा के अस्तित्व को नकारता था और इसी कारण उसे इस जन्म में यह रोग हुआ। कई बार पिछले जन्मों के पाप और पुण्य का फल एक ही जन्म में नहीं मिलता, बल्कि कई जन्मों के बाद मिलता है। इसलिए इस राजा को अब यह फल मिला है।
राजा की पत्नी, जो एक पतिव्रता थी, अपने पति को इस तरह दुखी देखकर बोली – हे राजन, हमारे कुल पुरोहित भी एक बार अंधे हो गए थे। तब उन्होंने अमावस्या का व्रत किया और श्री विश्वकर्मा जी का पूजन किया। इसके बाद उनकी आंखों की रोशनी लौट आई। मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप भी श्री विश्वकर्मा जी की शरण में जाएं और अमावस्या का व्रत करें। इससे आपको भी इस रोग से छुटकारा मिलेगा।
राजा ने कहा – हे प्रिये, तुमने सही कहा। तुम्हारी बात सुनकर मेरा मन बहुत खुश हो गया है और मुझे पूरा विश्वास हो रहा है कि श्री विश्वकर्मा जी के व्रत से मेरा रोग ठीक हो जाएगा। क्योंकि किसी भी काम की शुरुआत में जो उत्साह आता है, वह सफलता का पहला संकेत होता है।
सूत जी ने कहा कि उस दिन से राजा ने रोज़ाना श्री विश्वकर्मा जी का पूजन और व्रत करना शुरू कर दिया। अमावस्या के दिन राजा ने व्रत रखकर पूरी श्रद्धा से श्री विश्वकर्मा जी की पूजा की।
(इस तरह श्री विश्वकर्मा महात्मा का तीसरा अध्याय समाप्त हुआ।)
चौथा अध्याय
सूतजी बोले – हे मुनियों, मैंने आपको श्री विश्वकर्मा जी की अद्भुत कथा सुनाई है। अब मैं आगे एक और चमत्कारी कथा बताने जा रहा हूँ। एक समय की बात है, वाराणसी में एक मेहनती कारीगर और उसकी पत्नी रहते थे। वो कारीगर अपने काम में बहुत माहिर था, पर फिर भी उसे अपने परिवार का ठीक से पालन-पोषण करने में मुश्किलें आ रही थीं। वह दिन-रात काम की तलाश में इधर-उधर भटकता रहता था, फिर भी खाने-पीने और पहनने के लिए बहुत कम ही जुटा पाता था।
उसकी पत्नी भी बहुत परेशान रहती थी क्योंकि उनके कोई बच्चे नहीं थे। उसे चिंता थी कि बुढ़ापे में उनका क्या होगा। वह इस चिंता में मंदिरों और संतों के पास जा-जाकर पूजा-पाठ और तंत्र-मंत्र करवाने लगी ताकि उन्हें संतान की प्राप्ति हो सके। लेकिन उसे हर जगह धोखा ही मिला। कुछ लोग उसे गलत बातों में उलझाते, कोई नकली ताबीज या मंत्र देकर भेज देता। उसकी हालत ऐसी हो गई थी जैसे मृग जल की तलाश में दौड़ता है, पर पानी नहीं मिलता।
उस महिला के आस-पास के लोग भी उसे गलत सलाह देते थे। कोई कहता कि देवता उसकी समस्या हल करेंगे, तो कोई उसे सफेद भस्म देकर घर भेज देता। इस तरह वह पति-पत्नी दोनों बहुत दुःखी थे। एक दिन एक पड़ोसी ब्राह्मण ने उनसे कहा, “तुम दोनों मूर्ख हो। यह सब फालतू के उपाय करने से न तो तुम्हें संतान मिलेगी और न ही सुख। ये सब मिथ्या है। अगर तुम सच में संतान चाहते हो, तो किसी और उपाय की बजाय श्री विश्वकर्मा की शरण में जाओ।”
ब्राह्मण ने समझाया कि श्री विश्वकर्मा ही ऐसे भगवान हैं जो कर्मों के अनुसार फल देते हैं। उन्होंने कहा कि अगर तुम्हारी हालत तुम्हारे बुरे कर्मों की वजह से है, तो श्री विश्वकर्मा ही तुम्हारी मदद कर सकते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि अमावस्या के दिन व्रत रखो, संयम से रहो और श्री विश्वकर्मा की भक्ति करो। जितना हो सके, दान करो और अच्छे काम करो।
ब्राह्मण की बातें सुनकर कारीगर को सच्चाई समझ में आ गई। उसने ब्राह्मण के पैर छुए और घर चला गया। इसके बाद वह और उसकी पत्नी श्री विश्वकर्मा की भक्ति में लग गए। अमावस्या के दिन व्रत रखने से और श्री विश्वकर्मा की कृपा से उन्हें धन और संतान की प्राप्ति हुई। उनका बेटा गुणवान, सुशील और माता-पिता की सेवा करने वाला निकला। धीरे-धीरे उनके जीवन में सुख-शांति आने लगी।
इस तरह, जो लोग सच्चे मन से श्री विश्वकर्मा की भक्ति करते हैं, वे इस जीवन में सुखी रहते हैं और संतान-सुख प्राप्त करते हैं।
(श्री विश्वकर्मा महात्मा का चौथा अध्याय समाप्त।)
पांचवां अध्याय
ऋषियों ने सूत जी से कहा, “हे सूत जी, भगवान विश्वकर्मा के चरणों की पूजा देवता भी करते हैं। उनके आनंदमय चरित्र को सुनकर हमारी इच्छा और भी बढ़ गई है। जैसे अग्नि में हवि डालने से वह और प्रचंड हो जाती है, वैसे ही हम जितना भगवान विश्वकर्मा का चरित्र सुनते हैं, उतनी ही उसे और सुनने की इच्छा बढ़ती जाती है।”
सूत जी ने कहा, “हे मुनियों, आपने जो भगवान विश्वकर्मा का चरित्र सुना है, उसे सुनकर देवता भी संतुष्ट नहीं होते। एक बार नैमिषारण्य में मुनि और संन्यासी लोग एकत्रित हुए थे और अपने अमीष्ट (इच्छा) की प्राप्ति के लिए सभा की थी। विश्वामित्र मुनि ने कहा कि कई लोग यज्ञ करते समय राक्षसों के कारण कष्ट पा रहे हैं। राक्षस यज्ञ में विघ्न डालते हैं और नरमांस खाने लगते हैं। मातंग मुनि ने कहा कि हमारे पुरोहित उपमन्यु, जो ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, यज्ञों के रक्षक बन सकते हैं।”
सूत जी बोले, “हे ऋषियों, मुनियों की बात सुनकर वरिष्ठ मुनि ने कहा कि पहले भी इस तरह की परेशानी आई थी। उस समय ऋषि-मुनि स्वर्ग में ब्रह्मा जी के पास गए थे। ब्रह्मा जी ने ध्यान लगाकर मुनियों की समस्या सुनी और उन्हें भगवान विश्वकर्मा की कथा सुनने का उपदेश दिया।”
सूत जी बोले, “ब्रह्मा जी के कहने पर विश्वामित्र मुनि ने ध्यान से सुना और खुश होकर कहा कि ब्रह्मा जी ने सही कहा। भगवान विश्वकर्मा ही सभी कष्टों का निवारण कर सकते हैं। फिर सभी मुनि स्वर्ग गए और अपनी समस्या ब्रह्मा जी को बताई। ब्रह्मा जी ने ध्यान लगाकर राक्षसों द्वारा किए गए कष्टों को समझा और कहा कि केवल भगवान विश्वकर्मा ही इस समस्या का हल कर सकते हैं। उनकी पूजा से राक्षसों का नाश हो सकता है।”
सूत जी बोले, “ब्रह्मा जी के कहने पर ऋषियों ने यज्ञ शुरू किया और भगवान विश्वकर्मा की पूजा की। अंगिरा ऋषि ने उन्हें बताया कि भगवान विश्वकर्मा के पूजन से सारे राक्षस नष्ट हो जाएंगे। मुनियों ने अंगिरा ऋषि की बात मानी और यज्ञ किया, जिससे सारे राक्षस भस्म हो गए और यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हुआ।”
(इस तरह पांचवां अध्याय समाप्त हुआ।)
छठवां अध्याय
सूत जी ने कहा, “हे मुनियों, अब मैं आपको उज्जैन के एक सेठ धनंजय की कहानी सुनाता हूं। धनंजय सेठ बहुत धनवान थे, लेकिन धीरे-धीरे उनका सारा धन खत्म हो गया। जब उनके मित्रों ने उनकी मदद नहीं की, तो उन्हें संसार से घृणा हो गई और वे वन में चले गए। वन में घूमते-घूमते उन्होंने लोमश मुनि को देखा। मुनि ने उन्हें भगवान विश्वकर्मा की पूजा करने की सलाह दी।”
धनंजय सेठ ने भगवान विश्वकर्मा की पूजा की और उनके सारे कष्ट खत्म हो गए। अंत में वह देवता बनकर स्वर्ग में सुख भोगने लगे। जो भी मनुष्य भगवान विश्वकर्मा की भक्ति करता है, वह जीवन में सभी सुखों को प्राप्त करता है।
(इस प्रकार छठवां अध्याय समाप्त हुआ।)
सातवां अध्याय
ऋषियों ने कहा, “भगवान विश्वकर्मा की कथा सुनकर हमें बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हुई है। कृपया हमें यह बताएं कि चित्त की शांति कैसे पाई जा सकती है और दरिद्रता कैसे दूर हो सकती है।”
सूत जी बोले, “प्राचीन काल में दंतवाहन नाम का एक राजा था। उसके पुत्र पैदा होते ही मर जाते थे, जिससे उसकी रानी बहुत दुखी हो गई। तब राजा ने गुरु की सलाह मानी और भगवान विश्वकर्मा की पूजा की। पूजा के फलस्वरूप उनकी रानी ने एक चिरंजीवी पुत्र को जन्म दिया।”
सूत जी ने कहा, “मृतवत्सा स्त्रियों (जिनके बच्चे मर जाते हैं) के लिए भगवान विश्वकर्मा का पूजन सबसे प्रभावी उपाय है। उनके पूजन से दरिद्रता, बालकों की पीड़ा, और दुःस्वप्न का भय समाप्त हो जाता है।”
(इस प्रकार सातवां अध्याय समाप्त हुआ।)
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