ललिता सप्तमी का पर्व भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन राधा रानी की प्रिय सखी देवी ललिता की पूजा की जाती है। यह व्रत मुख्य रूप से संतान प्राप्ति और संतान की लंबी उम्र व अच्छे स्वास्थ्य के लिए रखा जाता है। इसे संतान सप्तमी के नाम से भी जाना जाता है।
|| ललिता सप्तमी व्रत कथा (Lalita Saptami Vrat Katha PDF) ||
पौराणिक ग्रंथों में ऋषि लोमेश के मुख से ललिता सप्तमी, जिसे संतान सप्तमी भी कहा जाता है, के महत्व का वर्णन मिलता है।
प्राचीन काल में अयोध्या के राजा नहुष की पत्नी चंद्रमुखी और उनकी एक सहेली रूपमती थीं, जो नगर के एक ब्राह्मण की पत्नी थीं। दोनों में गहरा प्रेम था। एक बार वे दोनों सरयू नदी के तट पर स्नान करने गईं। वहां उन्होंने देखा कि बहुत सी स्त्रियां संतान सप्तमी का व्रत कर रही थीं। उन्होंने उनकी कथा सुनी और पुत्र प्राप्ति की कामना से इस व्रत को करने का निश्चय किया।
हालांकि, घर आकर वे दोनों इस व्रत को करना भूल गईं। कुछ समय बाद दोनों की मृत्यु हो गई और उन्होंने पशु योनि में जन्म लिया। कई जन्मों के बाद, दोनों ने फिर मनुष्य योनि में जन्म लिया। इस जन्म में चंद्रमुखी का नाम ईश्वरी और रूपमती का नाम भूषणा था। ईश्वरी एक राजा की पत्नी थीं और भूषणा एक ब्राह्मण की पत्नी थीं। इस जन्म में भी दोनों में अत्यंत प्रेम था।
इस जन्म में भूषणा को अपने पूर्व जन्म की बातें याद थीं। इसलिए उसने संतान सप्तमी का व्रत विधि-विधान से किया, जिसके प्रताप से उसे आठ पुत्रों की प्राप्ति हुई। वहीं, ईश्वरी ने इस व्रत का पालन नहीं किया, इसलिए उसे कोई संतान नहीं थी। इस कारण उसे भूषणा से ईर्ष्या होने लगी। उसने कई प्रकार से भूषणा के पुत्रों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, लेकिन व्रत के प्रभाव से उसके पुत्रों को कोई क्षति नहीं पहुंची।
अंत में, थक-हारकर ईश्वरी ने अपनी ईर्ष्या और अपने कृत्यों के बारे में भूषणा को बताया और क्षमा याचना की। तब भूषणा ने उसे अपने पूर्व जन्म की बात याद दिलाई और ललिता सप्तमी/संतान सप्तमी का व्रत करने की सलाह दी। ईश्वरी ने भी पूरे विधि-विधान के साथ इस व्रत को किया और उसे एक सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई।
कौन हैं देवी ललिता?
देवी ललिता राधा रानी की सबसे प्रिय और विशेष सहेलियों में से एक हैं। वह ब्रजमंडल की प्रमुख गोपियों में गिनी जाती हैं। ललिता देवी राधा का पूरा ध्यान रखती थीं और उन्हें हर प्रकार से सहयोग करती थीं। प्रेम की गहरी समझ रखने के कारण वे राधा-कृष्ण के अत्यंत करीब थीं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, ललिता देवी सभी कलाओं में निपुण थीं और राधा जी के साथ खेल-कूद व नौका विहार आदि में भी शामिल रहती थीं।
|| ललिता सप्तमी व्रत विधि ||
- सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें। फिर हाथ में जल लेकर व्रत का संकल्प लें।
- एक छोटी चौकी पर लाल या पीले रंग का कपड़ा बिछाकर भगवान गणेश, देवी ललिता, माता पार्वती, भगवान शिव, कार्तिकेय और शालिग्राम की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें।
- ईशान, पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह करके पूजा करें। मां ललिता को लाल फूल और लाल वस्त्र अर्पित करें। गणेश जी और अन्य सभी देवी-देवताओं को नारियल, चावल, हल्दी, चंदन, गुलाल, फूल और दूध अर्पित करें।
- ललिता सहस्त्रनाम का पाठ करें और माता के मंत्रों का जाप करें। इसके बाद ललिता सप्तमी व्रत कथा सुनें या पढ़ें।
- खीर-पूरी का प्रसाद और आटे व गुड़ से बने मीठे पुए का भोग लगाया जाता है। कुछ स्थानों पर केले के पत्ते पर बंधी हुई सात पुए पूजा स्थल पर चढ़ाकर रखे जाते हैं।
- सभी देवी-देवताओं को भोग लगाने के बाद आरती करें।
- यह व्रत सूर्योदय से लेकर अगले दिन सूर्योदय तक रखा जाता है। अगले दिन सुबह प्रार्थना करने के बाद व्रत का पारण करें और देवताओं को चढ़ाए गए फल प्रसाद के रूप में वितरित करें।
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