।। गणपति अथर्वशीर्ष पाठ विधि – लाभ ।।
- गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ हमेशा आसन पर बैठ पूर्व, उत्तर या ईशान कोण की दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए।
- अथर्वशीर्ष स्तोत्र के पाठ से मनुष्य के जीवन में सर्वांगीण उन्नति होती है।
- इसके पाठ से सभी प्रकार के विघ्न-बाधाएं दूर होती है।
- व्यापार या नौकरी में उन्नति होती है।
- आर्थिक समस्या दूर होने के साथ समृद्धि बढ़ती है।
- विद्यार्थियों को शिक्षा के क्षेत्र में आ रही रुकावटें दूर होती है।
- विचारों से नकारात्मकता खत्म होती है और पवित्रता आती है।
।। श्री गणपति अथर्वशीर्ष मूलपाठ ।।
शांति पाठ
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिः।
व्यशेम देवहितं यदायुः।।
अर्थ: हे देववृंद, हम अपने कानों से कल्याणमय वचन सुनें। जो याज्ञिक अनुष्ठानों के योग्य हैं ऐसे हे देव, हम अपनी आंखों से मंगलमय कार्यों को होते देखें निरोग इंद्रियों एवं स्वस्थ देह के माध्यम से आपकी स्तुति करते हुए हम प्रजापति ब्रह्मा द्वारा हमारे हितार्थ सौ वर्ष अथवा उससे भी अधिक जो आयु नियत कर रखी है उसे प्राप्त करें। तात्पर्य है कि हमारे शरीर के सभी अंग और इंद्रियां स्वस्थ एवं क्रियाशील बने रहें और हम सौ या उससे अधिक लंबी आयु पावें।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
ॐ शांतिः॥ शांतिः॥ शांतिः॥
अर्थ: महान कीर्तिमान, ऐश्वर्यवान इन्द्र हमारा कल्याण करें, विश्व के ज्ञान स्वरूप, सर्वज्ञ, सबके पोषणकर्ता पूषा अर्थात सूर्य हमारा कल्याण करें, जिनके चक्रीय गति को कोई रोक नहीं सकता वे गरुड़ देव हमारा कल्याण करें, अरिष्टनेमि जो प्रजापति हैं वे सभी दुरितों को दूर करने वाले हैं वे हमारा कल्याण करें, वेद वाणी के स्वामी, सतत वर्धनशील बृहस्पति हमारा कल्याण करें। ॐ सर्वत्र शांति स्थापित हो।
ॐ नमस्ते गणपतये।।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। त्वमेव केवलं कर्ताऽसि।
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि। त्वमेव केवलं हर्ताऽसि।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।
त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम् ।।
अर्थ: ॐकार पति भगवान गणपति को नमस्कार है। हे गणेश तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्व हो। तुम्हीं केवल कर्ता हो। तुम्हीं केवल धर्ता हो। तुम्हीं केवल हर्ता हो। निश्चयपूर्वक तुम्हीं इन सब रूपों में विराजमान ब्रह्म हो। तुम साक्षात नित्य आत्मस्वरूप हो।
ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।
अर्थ: मैं यथार्थ कहता हूं। सत्य कहता हूं।
अव त्वं माम् । अव वक्तारम्। अव श्रोतारम्।
अव दातारम्। अव धातारम्।
अवानूचानमव शिष्यम्।
अव पश्चात्तात्। अव पुरस्त्तात्।
अवोत्तरात्तात् । अव दक्षिणात्तात्।
अव चोर्ध्वात्तात्। अवाधरात्तात्।
सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ॥
अर्थ: हे पार्वती नंदन आप मेरी, मुझ शिष्य की रक्षा करो। वक्ता आचार्य की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। व्याख्या करने वाले आचार्य की रक्षा करो। शिष्य की रक्षा करो। पश्चिम से रक्षा। पूर्व से रक्षा करो। उत्तर से रक्षा करो। दक्षिण से रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे से रक्षा करो। सब ओर से मेरी रक्षा करो। चारों ओर से मेरी रक्षा करो।
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मय:।
त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममय:।
त्वं सच्चिदानंदा द्वितीयोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥
अर्थ: आप वाङ्मय हो, चिन्मय हो। तुम आनंदमय हो। तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानंद अद्वितीय हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम दानमय विज्ञानमय हो।
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति॥
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति॥
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति॥
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः॥
त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥
अर्थ: यह जगत तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत तुममें विलय को प्राप्त होगा। इस सारे जगत की तुममें प्रतीति हो रही है। तुम भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश हो। परा, पश्चंती, बैखरी और मध्यमा वाणी के ये भाग तुम्हीं हो।
त्वं गुणत्रयातीतः त्वमवस्थात्रयातीतः॥
त्वं देहत्रयातीतः ॥ त्वं कालत्रयातीतः॥
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्॥
त्वं शक्तित्रयात्मकः॥
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं॥
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं
इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं
ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम्॥
अर्थ: सत्व, रज और तम तीनों गुणों से परे हो। तुम जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म और वर्तमान तीनों देहों से परे हो। तुम भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों से परे हो। तुम मूलाधार चक्र में नित्य स्थित रहते हो। इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीन प्रकार की शक्तियाँ तुम्हीं हो। तुम्हारा योगीजन नित्य ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो, तुम विष्णु हो, तुम रुद्र हो, तुम इन्द्र हो, तुम अग्नि हो, तुम वायु हो, तुम सूर्य हो, तुम चंद्रमा हो, तुम ब्रह्म हो, भू:, र्भूव:, स्व: ये तीनों लोक तथा ॐकार वाच्य पर ब्रह्म भी तुम हो।
गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादि तदनंतरम्॥
अनुस्वारः परतरः ॥ अर्धेन्दुलसितम् ॥ तारेण ऋद्धम्॥
एतत्तव मनुस्वरूपम् ॥ गकारः पूर्वरूपम्॥
अकारो मध्यमरूपम् ॥ अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्॥
बिन्दुरुत्तररूपम् ॥ नादः संधानम्॥
संहितासंधिः ॥ सैषा गणेशविद्या॥
गणकऋषिः ॥ निचृद्गायत्रीच्छंदः॥
गणपतिर्देवता ॥ ॐ गं गणपतये नमः॥
अर्थ: गण के आदि अर्थात ‘ग्’ कर पहले उच्चारण करें। उसके बाद वर्णों के आदि अर्थात ‘अ’ उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वार उच्चारित होता है। इस प्रकार अर्धचंद्र से सुशोभित ‘गं’ ॐकार से अवरुद्ध होने पर तुम्हारे बीज मंत्र का स्वरूप (ॐ गं) है। गकार इसका पूर्वरूप है।बिन्दु उत्तर रूप है। नाद संधान है। संहिता संविध है। ऐसी यह गणेश विद्या है। इस महामंत्र के गणक ऋषि हैं। निचृंग्दाय छंद है श्री मद्महागणपति देवता हैं। वह महामंत्र है- ॐ गं गणपतये नमः।
एकदंताय विद्महे । वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥
अर्थ: एक दंत को हम जानते हैं। वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। वह दन्ती (गजानन) हमें प्रेरणा प्रदान करें। यह गणेश गायत्री है।
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।
रदं च वरदं हस्तैर्ब्रिभ्राणं मूषकध्वजम्।
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम्।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:॥
अर्थ: एकदंत चतुर्भुज चारों हाथों में पाक्ष, अंकुश, अभय और वरदान की मुद्रा धारण किए तथा मूषक चिह्न की ध्वजा लिए हुए, रक्तवर्ण लंबोदर वाले सूप जैसे बड़े-बड़े कानों वाले रक्त वस्त्रधारी शरीर पर रक्त चंदन का लेप किए हुए रक्तपुष्पों से भलीभांति पूजित। भक्त पर अनुकम्पा करने वाले देवता, जगत के कारण अच्युत, सृष्टि के आदि में आविर्भूत प्रकृति और पुरुष से परे श्री गणेश जी का जो नित्य ध्यान करता है, वह योगी सब योगियों में श्रेष्ठ है।
नमो व्रातपतये। नमो गणपतये। नम: प्रमथपतये।
नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय।
विघ्ननाशिने शिवसुताय।
श्री वरदमूर्तये नमो नमः॥
अर्थ: व्रात अर्थात देव समूह के नायक को नमस्कार। गणपति को नमस्कार। प्रथम पति अर्थात शिवजी के गणों के अधिनायक, के लिए नमस्कार। लंबोदर को, एकदंत को, शिवजी के पुत्र को तथा श्री वरदमूर्ति को नमस्कार-नमस्कार।
॥ फल श्रुति ॥
एतदथर्वशीर्षं योऽधीते। स ब्रह्मभूयाय कल्पते।
स सर्वतः सुखमेधते । स सर्वविघ्नैर्नबाध्यते।
स पञ्चमहापापातप्रमुच्यते ॥
अर्थ: यह अथर्वशीर्ष (अथर्ववेद का उपनिषद) है। इसका पाठ जो करता है, ब्रह्म को प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। सब प्रकार के विघ्न उसके लिए बाधक नहीं होते। वह सब जगह सुख पाता है। वह पांचों प्रकार के महान पातकों तथा उपपातकों से मुक्त हो जाता है।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
सायंप्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।
धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति ॥
अर्थ: सायंकाल पाठ करने वाला दिन के पापों का नाश करता है। प्रात:काल पाठ करने वाला रात्रि के पापों का नाश करता है। जो प्रातः, सायं दोनों समय इसका पाठ करता है वह निष्पाप हो जाता है। वह सर्वत्र विघ्नों का नाश कर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।
इदम् अथर्वशीर्षमऽशिष्याय न देयम्।
यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति।
सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते।
तं तमनेन साधयेत्॥
अर्थ: इस अथर्वशीर्ष को जो शिष्य न हो उसे नहीं देना चाहिए। जो मोह के कारण देता है वह पातकी हो जाता है। सहस्र (हज़ार) बार पाठ करने से जिन-जिन कामों-कामनाओं का उच्चारण करता है, उनकी सिद्धि इसके द्वारा ही मनुष्य कर सकता है।
अनेन गणपतिमभिषिञ्चति स वाग्मी भवति।
चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति स विद्यावान् भवति।
इत्यथर्वण वाक्यं।
ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्। न बिभेति कदाचनेति ॥
अर्थ: इसके द्वारा जो गणपति को स्नान कराता है, वह वक्ता बन जाता है। जो चतुर्थी तिथि को उपवास करके जपता है वह विद्यावान हो जाता है, यह अथर्व वाक्य है जो इस मंत्र के द्वारा तपश्चरण करना जानता है वह कदापि भय को प्राप्त नहीं होता।
यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति।
यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति।
स मेधावान् भवति।
यो मोदकसहस्रेण यजति।
स वाञ्छितफलमवाप्नोति।
यः साज्यसमिद्भिर्यजति।
स सर्वं लभते स सर्वं लभते ॥
अर्थ: जो दूर्वांकुर के द्वारा भगवान गणपति का यजन करता है वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजो (धानी-लाई) के द्वारा यजन करता है वह यशस्वी होता है, मेधावी होता है। जो सहस्र (हजार) लड्डुओं (मोदकों) द्वारा यजन करता है, वह वांछित फल को प्राप्त करता है। जो घृत के सहित समिधा से यजन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है।
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा
सूर्यवर्चस्वी भवति।
सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ
वा जप्त्वा सिद्धमंत्रो भवति।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते। महादोषात्प्रमुच्यते।
महापापात् प्रमुच्यते।
स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति।
य एवं वेद इत्युपनिषत् ॥
अर्थ: आठ ब्राह्मणों को सम्यक रीति से भोजन कराने पर दाता सूर्य के समान तेजस्वी होता है। सूर्य ग्रहण में महानदी में या प्रतिमा के समीप जपने से मंत्र सिद्धि होती है। वह महाविघ्न से मुक्त हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है।
॥ अथर्ववेदीय गणपति उपनिषद समाप्त ॥
॥ शान्ति मंत्र ॥
ॐ सहनाववतु । सहनौभुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
अर्थ: भगवान, हम गुरु और शिष्य की एक साथ रक्षा करे। हमारा साथ-साथ पालन करें। हम दोनों को साथ-साथ पराक्रमी बनाएं। हम दोनों का जो पढ़ा हुआ शास्त्र है, वो तेजस्वी हो। हम गुरु और शिष्य एक दूसरे से द्वेष न करें।
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः॥
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः।
व्यशेम देवहितं यदायुः॥
अर्थ: हे देववृंद, हम अपने कानों से कल्याणमय वचन सुनें। जो याज्ञिक अनुष्ठानों के योग्य हैं ऐसे हे देव, हम अपनी आंखों से मंगलमय कार्यों को होते देखें निरोग इंद्रियों एवं स्वस्थ देह के माध्यम से आपकी स्तुति करते हुए हम प्रजापति ब्रह्मा द्वारा हमारे हितार्थ सौ वर्ष अथवा उससे भी अधिक जो आयु नियत कर रखी है उसे प्राप्त करें। तात्पर्य है कि हमारे शरीर के सभी अंग और इंद्रियां स्वस्थ एवं क्रियाशील बने रहें और हम सौ या उससे अधिक लंबी आयु पावें।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
अर्थ: महान कीर्तिमान, ऐश्वर्यवान इन्द्र हमारा कल्याण करें, विश्व के ज्ञान स्वरूप, सर्वज्ञ,सबके पोषणकर्ता पूषा अर्थात सूर्य हमारा कल्याण करें, जिनके चक्रीय गति को कोई रोक नहीं सकता वे गरुड़ देव हमारा कल्याण करें, अरिष्टनेमि जो प्रजापति हैं वे सभी दुरितों को दूर करने वाले हैं वे हमारा कल्याण करें, वेद वाणी के स्वामी, सतत वर्धनशील बृहस्पति हमारा कल्याण करें।
ॐ शांतिः॥ शांतिः॥ शांतिः॥
अर्थ: ॐ सर्वत्र शांति स्थापित हो।
॥ इति श्री गणपति अथर्वशीर्ष स्तोत्रम् ॥
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