|| रथ सप्तमी की व्रत कथा ||
रथ सप्तमी के दिन सूर्य देव, जो आरोग्य के देवता हैं, की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र सांब ने दुर्वासा ऋषि के श्राप से मुक्ति पाने के लिए इस दिन सूर्य देव की आराधना की थी। इस पर्व को अचला सप्तमी, सूर्य सप्तमी, माघ सप्तमी और सूर्य जयंती के नामों से भी जाना जाता है। इस वर्ष रथ सप्तमी 4 फरवरी, मंगलवार के दिन पड़ रही है। आइए जानते हैं रथ सप्तमी से जुड़ी प्रमुख कथाएं।
(अचला सप्तमी, सूर्य सप्तमी, माघ सप्तमी और सूर्य जयंती) व्रत कथा
यह कथा भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र सांब से जुड़ी है। सांब अत्यंत सुंदर और बलवान थे और उन्हें अपनी सुंदरता पर बड़ा घमंड था। एक बार भगवान श्रीकृष्ण और सांब साथ बैठे थे, तभी दुर्वासा ऋषि वहां आए।
तपस्या के कारण दुर्वासा ऋषि बेहद कमजोर दिख रहे थे। उनके शरीर की दशा देखकर सांब हंसने लगे। यह देखकर दुर्वासा ऋषि क्रोधित हो गए और उन्होंने सांब को कुष्ठ रोग (कोढ़) का श्राप दे दिया।
श्राप के कारण सांब की स्थिति बहुत दयनीय हो गई। उन्होंने अपनी गलती का एहसास किया और भगवान श्रीकृष्ण से सलाह मांगी। कृष्ण ने उन्हें सूर्य देव की पूजा करने और अचला सप्तमी का व्रत रखने की सलाह दी।
सांब ने पिता की आज्ञा मानते हुए प्रतिदिन सूर्य देव की पूजा आरंभ की और सप्तमी का व्रत विधिपूर्वक किया। उनकी अटूट भक्ति और व्रत के फलस्वरूप सांब अपने श्राप से मुक्त हो गए और अपनी सुंदर काया पुनः प्राप्त कर ली।
धार्मिक शास्त्रों के अनुसार, रथ सप्तमी का पर्व सूर्य जयंती के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि इसी दिन सूर्य देव सात घोड़ों के रथ पर सवार होकर प्रकट हुए थे। इसलिए इस तिथि को रथ सप्तमी कहा जाता है।
पुराणों में सूर्य देव को आरोग्य का देवता कहा गया है। सूर्य की उपासना करने से रोगों से मुक्ति पाने का मार्ग प्रशस्त होता है। इस व्रत को करने से शारीरिक कमजोरी, हड्डियों की समस्या, जोड़ों का दर्द जैसे रोग दूर हो जाते हैं। साथ ही, सूर्य की ओर मुख करके उनकी स्तुति करने से चर्म रोग जैसे गंभीर रोग भी समाप्त हो जाते हैं।
धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख है कि यदि विधिपूर्वक इस व्रत का पालन किया जाए, तो संपूर्ण माघ मास के स्नान का पुण्य प्राप्त होता है। रथ सप्तमी, जो माघ शुक्ल सप्तमी पर पड़ती है, से जुड़ी कथा का वर्णन पौराणिक ग्रंथों में मिलता है।
रथ सप्तमी की दूसरी कथा
एक अन्य कथा के अनुसार, गणिका नाम की एक महिला ने अपने जीवन में कभी भी कोई पुण्य कार्य नहीं किया था। जब उसका अंत समय आया, तो वह वशिष्ठ मुनि के पास पहुंची और पूछा, “मैंने कभी कोई दान-पुण्य नहीं किया, तो मुझे मुक्ति कैसे मिलेगी?”
मुनि ने उत्तर दिया, “माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अचला सप्तमी कहा जाता है। इस दिन किया गया दान-पुण्य हजार गुना फल प्रदान करता है। इस दिन पवित्र नदी में स्नान करें, सूर्य देव को जल चढ़ाएं, दीप दान करें और बिना नमक का भोजन ग्रहण करें। ऐसा करने से महान पुण्य की प्राप्ति होती है।”
गणिका ने वशिष्ठ मुनि के निर्देशों का पालन करते हुए सप्तमी का व्रत रखा और विधिपूर्वक पूजा-अर्चना की। कुछ समय बाद जब उसने शरीर त्याग दिया, तो उसे स्वर्ग में राजा इंद्र की अप्सराओं का प्रधान बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
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