|| पूजा विधि ||
- इस दिन सुबह जल्दी उठे, अपनी दिनक्रिया को पूर्ण करे |
- भगवान विट्ठल की पूजा की तैयारियां करे, विट्ठल जी की पूजा आरती करे |
- विट्ठल जी की भक्ति में लीन रहे, लोगो को भी उनके बारे में अवगत कराये |
- दिन में एक बार फल आहार करे |
- अगले दिन विधि अनुसार व्रत को तोड़े |
- भोग में विट्ठल जी का प्रिय भोग बनाकर उनको परोसे तत्पश्चात स्वयं भोजन ग्रहण करे |
|| व्रत कथा ||
यह कथा महाराष्ट्र राज्य मे पंढरपुर की है जहां भगवान विट्ठल विराजमान थे वहाँ नरहरि नाम के एक संत व्यक्ति थे जो पेशे से सुनार थे और सुनारी का काम करते थे। स्वर्ण आभूषण बनाने के अलावा वह सच्चे दिल से ईश्वर की भक्ति भी करते थे।
लेकिन वो ईश्वर को केवल शिव रूप मे ही पूजा करते थे निरंतर शिव जाप करने से उनके द्वारा बनाए गए स्वर्ण आभूषणों मे एक अलग ही छठा दिखाई देती थी, पर आश्चर्य की बात यह थी कि नरहरि ने भगवान विट्ठल को कभी देखा तक नहीं था और न ही वो देखने को राजी थे। उनका तो रोम-रोम केवल शिव-भक्ति की लगन में ही डूबा हुआ था। शिव के सिवा उन्हे कुछ भी नहीं सूझता था वो पूर्ण रूप से शिवमय ही थे।
लोग इस बात से हैरान थे कि पंढरपुर में रहकर कोई विट्ठल के दर्शन से कैसे वंचित रह सकता है। एक बार एक विट्ठल भक्त साहूकार ने भगवान से मनोति मांगी की उसे अगर संतान प्राप्ति हो जाय तो वह विठोवा को सोने की कमरबंद पहनाएगा विट्ठल जी के आशीर्वाद से साहूकार की मनोकामना पूर्ण हो गयी तब वह नरहरि जी के पास पहुंचा और उसने उन्हें विठोवा देवता के देवालय में चलकर उनके लिए सोने का कमरबंद तैयार करने को कहा।
जब नरहरि जी ने कारण पूछा तो साहूकार ने बताया कि उसके कोई संतान नही थी। उसने मनौती की थी यदि उसे संतान हुई, तो वह विठोवा देवता को सोने का कमरबंद बना कर देगा। नरहरि जी ! भगवान विट्ठलनाथ ने प्रसन्न हो मुझे संतान दी है, इसलिए आज मैं उन्हें यह रत्नजड़ित सोने का कमरबंद चढ़ाना चाहता हूं। पंढरपुर में तुम्हारे अलावा इसे कोई नहीं गढ़ सकता। इसलिए उठो, भगवान की कमर का नाप ले आओ और ज़ल्दी से कमरबंद तैयार कर दो।
मगर नरहरि जी ने कहा – वे शिवजी के अलावा किसी अन्य देवालय में प्रवेश नही करते, इसलिए वे किसी दूसरे सुनार के पास जाए। साहूकार ने कहा – ‘आपके समान श्रेष्ठ सुनार और कोई नही, इसलिए मैं कमरबंद आपसे ही बनवाऊंगा। मैं विट्ठल देवता का नाप ले आता हूँ। साहूकार के द्वारा काफी विनती करने पर नरहरि जी ने मजबूरी में इसे स्वीकार कर लिया।
साहूकार नाप लेकर आ गया और नरहरि जी ने उस नाप की कमरबंद बना दी, मगर पहनाने पर वह चार अंगुल बड़ी पड़ गयी। तो नरहरि ने उसे चार अंगुल छोटा कर दिया, किंतु इस बार चार अंगुल छोटी हो गयी कई बार ऐसा हुआ। आख़िर मे पुजारी व अन्य लोगो ने साहूकार को सलाह दी कि नरहरि स्वयं नाप ले-ले।
साहूकार के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर बड़ी मुश्किल से नरहरि जी इसके लिए तैयार हुए। नरहरि जी स्वयं मंदिर जाकर नाप लेने को तैयार हो गये, किंतु शर्त रखी कि मेरी आंखों पर पट्टी बांधकर ले चलो, मैं हाथों से टटोलकर नाप ले लूंगा। साहूकार नरहरि जी को उनकी आंखों पर पट्टी बाँधकर मंदिर ले आया। जब उन्होंने नाप लेने के लिए मूर्ति को स्पर्श किया, तो उन्हे आभास हुआ की वह शिवजी की मूर्ति है।
नरहरि जी ने सोचा – कहीं मुझे शिवालय तो नही ले आए। यह सोचकर अपने आराध्य देव के दर्शनों के लोभ से वो बच नहीं पाये और पट्टी खोल दी, लेकिन वह शिवजी कि मूर्ति नही थी वह तो विट्ठल जी की मूर्ति थी। वे पुन: आँखों पर पट्टी बांधकर नाप लेने लगेफिर हाथों से टटोलकर नाप लेने का प्रयास किया तो पुन: शिव का आभास हुआ। नरहरि जी असमंजस में पड़ गये।
नरहरि जी को ईश्वर का यह रहस्य समझने में देर नहीं लगी। उन्हे समझ में आ गया कि दोनों एक ही है ‘हरी’ और ‘हर’ अलग-अलग नहीं है `हरिहर’ एक हैं। वे व्यर्थ ही उनमे भेद करते आ रहे थे। नरहरि जी ने प्रभु से क्षमा मांगी। वे आत्मविभोर हो प्रसन्नता से चिल्ला उठे – विश्व के जीवनदाता! मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरे मन का अज्ञान और अन्धकार दूर कर दीजिये। मैं अपने अज्ञान के लिए आप से क्षमा मांगता हू तब भगवान ने भी प्रसन्न होकर भक्त की प्रसन्ता के लिए अपने सिर पर शिवलिंग धारण कर लिया।
तब से लेकर आज तक पंढरपुर के विट्ठल भगवान के सिर पर शिवलिंग विराजमान हैं। ये कथा हमे भगवान के भिन -भिन रूपों मे ईश्वर की एक रूपता को बताती है हम व्यर्थ ही अपनी अज्ञनता के कारण भगवान के भिन भिन रूपों मे भेद करते है।
” जय हरिहर “
|| अंत मे निष्कर्ष ||
ये भी एक बड़ी ही विचित्र बात है, हम सभी अक्सर ये कहते है, की ईश्वर एक है, परन्तु फिर भी उसके भिन्न भिन्न रूपों के आकर्षण मे आकर इस पर विचार करने लगते है, की कौन रूप मे ज्यादा प्रभावी होता है। मन मे उत्पन्न हुआ यही विचार तो उस सर्वेश्वर की माया की प्रबलता को सिद्ध करता है जिसके प्रभाव मे आकर हम ईश्वर मे ही भेद करने लगते है। परन्तु जैसे ही माया का पर्दा हटता है तो उस ईश्वर की एकता का आभास होने लगता है, यही नरहरि की कथा से प्रमाणित होता है।
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